Lok Sabha Election: आदर्श आचार संहिता – लंबा सफ़र रहा है इसका

Achar Sahinta: इस संहिता को बनाने का तर्क यह है कि पार्टियों और उम्मीदवारों को अपने विरोधियों के प्रति सम्मान दिखाना चाहिए, उनकी नीतियों और कार्यक्रमों की रचनात्मक आलोचना करनी चाहिए, और कीचड़ उछालने और व्यक्तिगत हमलों का सहारा नहीं लेना चाहिए।

Written By :  Neel Mani Lal
Update:2024-03-16 16:58 IST

Lok Sabha Election (Photo: Social Media)

Lok Sabha Election: चुनाव आयोग द्वारा लोकसभा चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के बाद आदर्श आचार संहिता लागू हो गयी है। आदर्श अचार संहिता क्या है और इसका सफ़र कैसा रहा है, जानते हैं इसके बारे में।

क्या है आचार संहिता?

आदर्श अचार संहिता एक सर्वसम्मत दस्तावेज़ है। इसका मतलब यह है कि राजनीतिक दल चुनाव के दौरान अपने आचरण को नियंत्रण में रखने और संहिता के दायरे के भीतर काम करने के लिए स्वयं सहमत हैं। इस संहिता को बनाने का तर्क यह है कि पार्टियों और उम्मीदवारों को अपने विरोधियों के प्रति सम्मान दिखाना चाहिए, उनकी नीतियों और कार्यक्रमों की रचनात्मक आलोचना करनी चाहिए, और कीचड़ उछालने और व्यक्तिगत हमलों का सहारा नहीं लेना चाहिए।

क्या क्या है इसमें

- आदर्श आचार संहिता के तहत केंद्र तथा राज्य सरकारों के मंत्रियों को चुनाव कार्य के लिए आधिकारिक मशीनरी का उपयोग करने और चुनाव प्रचार के साथ आधिकारिक दौरों को जोड़ने से मनाही है।

- सार्वजनिक धन का उपयोग करके मौजूदा सरकार के कार्यों की प्रशंसा करने वाले विज्ञापनों से बचना चाहिए।

- संहिता लागू रहने के दौरान सरकार किसी वित्तीय अनुदान की घोषणा नहीं कर सकती, सड़कों या अन्य किसी फैसिलिटी के निर्माण का वादा नहीं कर सकती, और सरकारी या सार्वजनिक उपक्रम में कोई तदर्थ नियुक्ति नहीं कर सकती।

- कोई मंत्री, मतदाता या उम्मीदवार की हैसियत के अलावा किसी भी मतदान केंद्र या मतगणना केंद्र में प्रवेश नहीं कर सकते।

केरल कनेक्शन

आदर्श आचार संहिता का सबसे पहले इस्तेमाल केरल में किया गया था जहाँ 1960 में राज्य के विधानसभा चुनावों से पहले प्रशासन ने एक ड्राफ्ट संहिता तैयार की जिसमें चुनाव प्रचार के महत्वपूर्ण पहलुओं जैसे जुलूस, राजनीतिक रैलियां और भाषण जैसे मसले शामिल थे। यह प्रयोग काफी सराहा गया और चुनाव आयोग ने केरल के उदाहरण का अनुकरण करने और 1962 के लोकसभा चुनावों के लिए सभी मान्यता प्राप्त दलों और राज्य सरकारों के बीच एक ड्राफ्ट प्रसारित करने का निर्णय लिया। लेकिन एक औपचारिक आदर्श आचार संहिता चुनाव आयोग ने 1974 में, मध्यावधि आम चुनावों से ठीक पहले, जारी की और इसने इसके कार्यान्वयन की निगरानी के लिए जिला स्तर पर जिम्मेदारी फिक्स की गयी।

आदर्श संहिता 1977 के संसदीय चुनावों के दौरान भी प्रसारित की गई थी। इस समय तक संहिता का उद्देश्य केवल राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के आचरण का मार्गदर्शन करना था।

जब पार्टियों ने की शिकायत

12 सितंबर, 1979 को सभी राजनीतिक दलों की एक बैठक में आयोग को सत्तारूढ़ पार्टियों द्वारा आधिकारिक मशीनरी के दुरुपयोग से अवगत कराया गया। आयोग को बताया गया कि सत्तारूढ़ दलों ने सार्वजनिक स्थानों पर एकाधिकार कर लिया है, जिससे दूसरों के लिए बैठकें करना मुश्किल हो गया है। मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए सरकारी खजाने की कीमत पर विज्ञापन प्रकाशित करने वाली पार्टी के भी उदाहरण थे। इस बैठक में राजनीतिक दलों ने चुनाव आयोग से संहिता में बदलाव करने का आग्रह किया। इसके बाद चुनाव आयोग ने, 1979 के लोकसभा चुनावों से ठीक पहले, सात भागों वाला एक संशोधित मॉडल कोड जारी किया, जिसमें एक भाग सत्ता में पार्टी को समर्पित था और बताया गया था कि चुनाव की घोषणा होने के बाद क्या किया जा सकता है और क्या नहीं किया जा सकता। आदर्श आचार संहिता इसे बाद निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव कराने के एक अभिन्न अंग के रूप में विकसित हुआ है। हालाँकि संहिता को कई मौकों पर संशोधित भी किया गया है। आखिरी बार ऐसा 2014 में हुआ था, जब आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुसार घोषणापत्र पर कुछ चीजें जोड़ीं। 1991 के बाद से आदर्श आचार संहिता को चुनावों के एक अभिन्न अंग के रूप में देखा जाने लगा है, जो यह सुनिश्चित करके चुनावी मुकाबले को लोकतांत्रिक बनाता है कि सत्ता में रहने वाली पार्टी और सत्ता में दावा करने वाले लोग इसका पालन करेंगे।

आलोचना भी हुई है

मई 1990 में तत्कालीन कानून मंत्री दिनेश गोस्वामी के अधीन चुनाव सुधार पर गोस्वामी समिति ने सुधारों के लिए महत्वपूर्ण सिफारिशें कीं। इनमें यह सुझाव था कि संहिता की कमजोरी को वैधानिक समर्थन देकर और कानून के माध्यम से लागू करने योग्य बनाकर दूर किया जा सकता है। गोस्वामी समिति ने कुछ क्षेत्रों को चुनावी कानून के दायरे में लाने और उनके उल्लंघन को चुनावी अपराध बनाने का सुझाव दिया था सरकार ने संहिता के कुछ प्रावधानों के उल्लंघन को दंडनीय बनाने के लिए जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में संशोधन का प्रस्ताव रखा। हालाँकि, यह विधेयक पारित नहीं हो सका।

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