MP News: सतना के इस गांव में आज भी चरखे से चलती है जिंदगी, बापू के स्वावलंबन से सीखा सबक

MP News: मध्यप्रदेश का एक ऐसा गांव भी है जिसने बापू के स्वावलंबन के पाठ से ऐसा सबक लिया कि वह उनकी जीविका का साधन बन गया। गांव चरखा चला कर अपनी जीविका चला रहा है।

Update: 2022-10-06 02:28 GMT

एमपी सतना: मध्यप्रदेश के सतना के सुलखमा गांव में चरखे से चलती है जिंदगी: Photo- Social Media

MP Satna News: मध्यप्रदेश का एक ऐसा गांव भी है जिसने बापू के स्वावलंबन के पाठ (lessons of independence) से ऐसा सबक लिया कि वह उनकी जीविका का साधन बन गया। यही नहीं, कई पीढ़ियों से यह गांव चरखा चला कर अपनी जीविका चला रहा है। सतना जिला मुख्यालय से 90 किलोमीटर दूर रामनगर तहसील का यह गांव है सुलखमा। यहां की आबादी लगभग 2600 है। यहां रहने वालों की जीविका का साधन चरखा है। पाल जाति बाहुल्य इस गांव की यह परंपरा महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) के सिखाए पाठ की वजह से है।

गांधी जी ने स्वावलंबी भारत पर सपना संजोया था, उसका पालन आज भी इस गांव में हो रहा है और चरखे से कम्बल बनाकर यहां के लोग अपनी आजीविका चलाते हैं। यह काम भी अलग-अलग हिस्सों में बंटा हुआ है। चरखा चलाकर ऊन काटने का काम घर की महिलाओं का होता है, जो घर के बाकी काम निपटाकर खाली बचे समय में चरखे से ऊन तैयार करती हैं। इसके बाद का काम घर में पुरुषों का होता है जो काटे गए ऊन से कम्बल और बाकी चीजें बुनने का काम करते है।

पीढ़ियों से चल रहा यह काम

49 साल के रघुवर पाल ने बताया कि यह पता नहीं कि चरखा चलाने का काम कब से किया जा रहा है। बाबा-दादा बताते रहे कि पुरखों का काम है, जो सीखते-सिखाते यहां तक आ गया। रघुवर आगे बताते हैं कि दूसरा कोई और काम नहीं सीखा इसलिए चरखा से ऊन काटने और कंबल बनाने का काम कर रहे हैं।

पुरखे जो सीखा गए वह क्यों खत्म होने दें

पाल समाज (Pal Samaj) की पीढ़ियों से चले आ रहे चरखा चलाने के काम का नई पीढ़ी के लिए चुनौती बना चुका है। यहां के 50 वर्षीय संपत पाल बताते हैं कि ऊन तो घर में होता नहीं है, इसलिए लागत निकालना मुश्किल है। 25 रुपये किलो मिलने वाला ऊन आज 70 से 80 रुपये में मिलता है। जबकि एक कंबल बनाने में 10 दिन लगते हैं। यह बिकता है या नहीं यह कहना मुश्किल है इसलिए अब कोई मांग करता है तभी चरखा चलाने का काम करते हैं, लेकिन यह भी डर रहता है कि पुरखे जो सीखा गए वह क्यों खत्म होने दें इसलिए बरसात के दिन छोड़कर 8 माह यह काम चलता रहता है।

सरकार जोर लगाए तो यह काम आगे बढ़ जाएगा। यही कारण है कि चरखा चलाने और ऊन कातने की इस विरासत को बचाने की चुनौती है।

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