कविता: क्यों, आखिर क्यों? हो गई क्या हमसे, कोई भूल? बहके-बहके लगने लगे फूल!
क्यों, आखिर क्यों?
हो गई क्या हमसे
कोई भूल?
बहके-बहके लगने लगे फूल!
अपनी समझ में तो
कुछ नहीं किया,
अधरों पर उठ रही शिकायतें
सिया,
फूँक-फूँक कदम रखे,
चले साथ-साथ,
मगर
तन पर क्यों उग रहे बबूल?
नजऱों में पनप गई
शंका की बेल,
हाथों में
थमी कोई अजनबी नकेल!
आस्था का अटल सेतुबंध
लडख़ड़ाता है
हिलती है एक-एक चूल!
रफू ग़लतफ़हमियाँ
जीते हैं दिन!
रातों को चुभते हैं
यादों के पिन
पतझर में भोर हुई
शाम हुई पतझर में
कब होगी मधुऋतु
अनुकूल
तन पर...
तस्वीर और दर्पन
कुछ कुछ हवा
और कुछ
मेरा अपना पागलपन
जो तस्वीर बनाई
उसने
तोड़ दिया दर्पन।
जो मैं कभी नहीं था
वह भी
दुनिया ने पढ़ डाला
जिस सूरज को अघ्र्य चढ़ाए
वह भी निकला काला
हाथ लगीं- टूटी तस्वीरें
बिखरे हुए सपन!
तन हो गया
तपोवन जैसा
मन
गंगा की धारा
डूब गए सब काबा-काशी
किसका करूँ सहारा
किस तीरथ
अब तरने जाऊँ?
किसका करूँ भजन?
जो तस्वीर...