कविता, मंजिल: हाथ पे रख हाथ क्यों बैठा है प्यारे, मंजिलें कब से खड़ीं बाँहे पसारे
हाथ पे रख हाथ क्यों बैठा है प्यारे
मंजिलें कब से खड़ीं बाँहे पसारे
ये सफर तुझको ही तय करना पड़ेगा
फिर भला तू रास्ता किसका निहारे
ठोकरों की अब नहीं परवाह करना
बस हवाओं के समझ लेना इशारे
क्या हुआ गर खार का मौसम हुआ तो
लौट आएँगी कभी फिर से बहारें
हौसलों की हाथ में पतवार है तो
दूर आँखों से नहीं होंगे किनारे
गम न कर तन्हाइयों का, देख भी ले
रात, चलते हैं अकेले ही सितारे
है जिन्हें खुद पर यकीं सबसे जियादा
जिंदगी में वे नहीं ढूंढें सहारे
डर नहीं उसको अँधेरे का जरा भी
चाँद सूरज रास्ता जिसका सँवारे
जब रमा थामेंगे दामन कोशिशों का
काम सब होंगे तभी पूरे हमारे