Chauri Chaura Kand: चौरी चौरा कांड के संदेश को याद रखने की जरूरत, देखें Y- Factor...

Y- Factor :चौरी चौरा कांड के संदेश को याद रखने की जरूरत...

Written By :  Yogesh Mishra
Update:2021-04-17 13:22 IST

Chauri Chaura Kand: कुछ लोगों का यह मानना है कि 4 फरवरी 1922 को चौरी चौरा में हिंसक प्रदर्शन के बाद भी बापू यदि असहयोग आन्दोलन न रोकते, तो इस जनसंघर्ष के चलते अंग्रेज पच्चीस वर्ष पूर्व ही भारत से भाग जाते। या खदेड़ दिये जाते। सन सत्तावन की क्रान्ति तब ताजा ही थी। तीस करोड़ भारतीयों का सामना कुल तीन लाख गोरों से होता। तभी प्रथम विश्वयुद्ध (1914-18) में सम्राट कैसर की पराजय के बावजूद ब्रिटिश सत्ता को जर्मन सेना गंभीर जख्म दे चुकी थी। मुसलमान भी खलीफा की समाप्ति (सेवर्स की संधि, 1920, के तहत) से आक्रोशित थे। खिलाफत आंदोलन से दोनों मतावलम्बी इतने आत्मीय हो गये थे कि मस्जिदों से गौवध बंद हेतु पूर्ण समर्थन की आवाज उठी थी। कुल मिलाकर यही लगा कि बापू एक प्रवीण जरनैल नहीं हुये जो शत्रु की दुर्बलताओं को अपनी रणनीति का आधार बनाते। लाभ उठाते।

बापू भी अष्टांग योग की प्रथम पंक्ति: ''अहिंसायाः परो धर्मो'' पर केन्द्रित थे। दूसरी पंक्ति: ''विधिना या भवेद्हिंसा त्वहिंसैव प्रकीर्तिता'' पर कतई नहीं। अर्थात पन्द्रहवें महापुराण कूर्मपुराण के अध्याय 11 के पन्द्रहवें श्लोक में लिखा है कि: ''अहिंसा परमधर्म है, परन्तु विधि से जो हिंसा होती है वह तो अहिंसा ही कही गयी है।'' भगवान विष्णु ने कछुआ का अवतार धारण करके इस पुराण को राजा इन्द्रद्युम्न को सुनाया था।

फिलहाल मीमांसा का मुद्दा यह उठता है कि एक जनवादी आन्दोलन जिसका एकमात्र लक्ष्य औपनिवेशिक शोषण का खात्मा था उसके औचित्य पर विवाद क्यों? सशस्त्र नरराक्षसों (पुलिस) द्वारा निर्मम हत्याओं का प्रतिरोध करना था। कुरूक्षेत्र का पैगाम भी ऐसा ही था। फिर गांधीजी के पड़ोसी सौराष्ट्रवासी तो कृष्ण ही थे। गौर करें गांधीजी के एक क्षणिक निर्णय से भारतीय जनयुद्ध दशकों पिछड़ गया। लखनऊ जेल से उनके प्रियतम चेले जवाहरलाल नेहरू ने गांधीजी का खुला, कट्टर विरोध किया था। उनके क्रुद्ध पिता मोतीलाल नेहरू ने कांग्रेस छोड़कर नई पार्टी स्वराज दल बना लिया।

गांधीजी के स्वजन और समधी चक्रवर्ती राजगोपालधारी को त्रास हुआ कि गांधीजी ने आंदोलन वापस क्यों ले लिया? कांग्रेसी नेता मौलाना हसरत मोहानी और मौलाना मोहम्मद अली जौहर ने गांधीजी की मुखालफत की। मौलाना अब्दुल बारी ने तो गांधीजी को लकवाग्रस्त तक कह डाला। विट्टलभाई झवेरदास पटेल ने कांग्रेस छोड़ दी। नया दल बनाया। गनीमत रही कि उनके अनुज बल्लभभाई पटेल ने ठीक सात साल बाद बारदोली सत्याग्रह द्वारा ब्रिटिश राज को किसानों के समक्ष झुका दिया। कांग्रेस को संजीवनी दे दी।

राष्ट्र आभारी था पंडित मदनमोहन मालवीय का जिन्होंने अपनी वकीली जिरह द्वारा अंग्रेज जज से 172 अभियुक्तों में से 153 को फांसी से बचा लिया। चौरी चौरा मुकदमें हेतु मालवीयजी ने काला चोगा दोबारा पहना था। जरा देखें कि गांधीजी के उत्कृष्ट और मानवीय भावना का जवाब अंग्रेज राज ने कैसे दिया? उनके पुराने संपादकीयों को खोजकर बापू पर राजद्रोह का आरोप लगाकर जेल में डाल दिया गया।

अहमदाबाद के शाहीबाग भवन में मुकदमा चला। न्यायमूर्ति बू्रम्सफील्ड जज थे। यह गांधीजी की भारत में प्रथम कारागार-यात्रा थी। बापू की इस सजा से राष्ट्रीय कांग्रेस तथा जंगे-आजादी में नयी जवानी लौट आई। चौरी चौरा की मानों भरपायी हो गई हो। फिर नमक सत्याग्रह (दाण्डी कूच), 1941 के व्यक्तिगत सत्याग्रह और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन ने चरम तक स्वतंत्रता संघर्ष को पहुंचा दिया।

यहां एक क्षोभभरा उदगार भी व्यक्त होना चाहिए । स्कूली इतिहास पुस्तकों में चौरी चौरा की घटना को नहीं शामिल किया गया। इतिहास की दिशा बदल देने वाली इस घटना की उपनिवेशी मानसिकता से रूग्ण भारतीय शिक्षाकर्मियों ने भी उपेक्षा कर दी। नेहरू ने तो नजरांदाज किया ही ? हां, इन्दिरा गांधी जरूर 6 फरवरी, 1982 में चौरी चौरा में भारतीय शहीदों के स्मारक की नींव डालने आयीं थीं।चार दशक बाद वहां आज वहां समारोह हुआ। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी रहे। योगी आदित्यनाथ आयोजक थे।

नये दौर में इस तीर्थस्थल के सिलसिले में राष्ट्रीय स्तर पर हिंसा-अहिंसा पर नयी बहस चलनी चाहिये। खासकर इस्लामी पाकिस्तान, कम्युनिस्ट चीन और भारत में छिपे द्रोहियों से किये जाने वाले सलूक के बावत। नये भारत की ऐसी अपेक्षा है। इस पूरी दुखांत वारदात का सजीव चित्रण भाई सुभाषचन्द्र कुशवाहा ने अपनी पुस्तक ''चौरीचौरा विद्रोह और स्वधीनता आंदोलन'' में दिया हैं। वे लिखते है: ''चौरीचौरा विद्रोह की शुरूआत एक फरवरी, 1922 को होती है, जब मुण्डेरा बाजार में स्वयंसेवक भगवान अहीर और उसके दो अन्य साथियों को जागीरदार के इशारे पर चौरा थाने का दरोगा मारता है, स्वयंसेवकों की बैठक उसी दिन शाम को डुरी खुर्द गांव में होती है। चार फरवरी को अन्य गांवों से स्वयंसेवकों का जुटान होता है।

एक जुलूस भोपा बाजार होते हुये चौरा थाने को जाता है। आसपास के जमींदारों के कारिंदे जुलूस को रोकने का असफल प्रयास करते हैं। चौकीदारों द्वारा लाठीचार्ज करने और पुलिस द्वारा गोली चलाये जाने से अनेक स्वयंसेवक मारे जाते हैं। इसी प्रतिक्रिया में किसान रेलवे पटरी की गिट्टियों की बौछार करते हैं। जब पुलिस वाले थाना भवन में छिपकर बचने का प्रयास करते हैं, तो आक्रोशित जनता मिट्टी का तेल छिड़ककर थाना भवन को जला देती है और 23 पुलिसकर्मी मारे जाते हैं।

जुल्मी दरोगा गुप्तेश्वर सिंह भी मारा जाता है, जिसे ''द लीडर'' जैसा इलाहाबाद का जमींदारपरस्त अखबार ''हीरो आफ गोरखपुर'' कहता है।स्वयंसेवकों की भीड़ रेलवे लाइन को तोड़ देती है। पोस्ट आफिस पर तिरंगा झंडा फहरा कर आजादी का शुभारम्भ किया जाता है। उसके बाद ब्रिटिश दमन का दौर शुरू होता है। सेशन कोर्ट, गोरखपुर, द्वारा नौ जनवरी 1923 को 172 किसानों को फांसी की सजा सुनाई जाती है। हाई कोर्ट द्वारा 19 स्वयंसेवकों को फांसी की सजा बहाल रखी जाती है। बाकी को आजीवन से लेकर तीन-तीन साल सजा सुनाई जाती है।'' 

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