About India Economy: इकॉनमी में हमारी ऊंची छलांग, शायद कभी हम भी ब्रितानियों जैसे अमीर होंगे

About India Economy 2029: भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) की एक शोध रिपोर्ट ने कहा है कि 2029 तक भारत के दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की संभावना है।

Written By :  Yogesh Mishra
Update:2022-09-06 22:26 IST

About India Economy SBI Report (Photo - Social Media)

About India Economy 2029: जिस तरह भारत व पाकिस्तान के बीच खेले जाने वाले मैच में दोनों देशों के दर्शकों के लिए बहुत रोमांच होता है, कुछ उसी तरह का रोमांच बीते हफ्ते भारत के लोगों ने तब महसूस किया जब अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के डेटाबेस और ऐतिहासिक विनिमय दरों के आधार पर ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट में यह एलान किया गया कि भारत ने ब्रिटेन को अपदस्थ करके दुनिया की पाँचवीं अर्थव्यवस्था बनने का गौरव हासिल कर लिया है। इसके बाद अब तो भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) की एक शोध रिपोर्ट ने कहा है कि 2029 तक भारत के दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की संभावना है।

किसी मैच में भारत-पाक के बीच रोमांच केवल जीत हार तक सीमित रहता है, पर ब्रिटेन व भारत के बीच रोमांच के कई कारण हैं। पहला, भारतीय अर्थव्यवस्था को मुद्रा कोष ने यह पहचान दी है। दूसरा, भारत ने ब्रिटेन को पछाड़ा है। ब्रिटेन की जगह हासिल की है। ब्रिटेन की 3200 अरब डॉलर की अर्थव्यवस्था के मुक़ाबले भारत की अर्थव्यवस्था 3500 अरब डॉलर की है। भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार सांकेतिक नक़दी के साथ 854.7 अरब डॉलर है। मुद्रा कोष की यह मान्यता तब आई है जब भारत में लोग नरेंद्र मोदी के बारे में कहने लगे हैं कि अर्थव्यवस्था पर उनकी पकड़ नहीं है और ये उनकी बड़ी असफलता है। वैसे, सच्चाई यह है कि जब नरेंद्र मोदी ने सत्ता सँभाली थी तब भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया में ग्याहरवें पायदान पर थी। आज भारतीय अर्थव्यवस्था से मज़बूत स्थिति में केवल अमेरिका, चीन, जापान और जर्मनी हैं।

गौरतलब है कि भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन 1773 से 1858 तक रहा है। सन् 1600.में ईस्ट इंडिया कंपनी एक व्यापारिक कंपनी के रूप में भारत आई थी। 1765 में ये कंपनी एक शासकीय निकाय में बदल गयी।1765 से 1773 तक कंपनी के काम को देखा गया। फिर इनको शासन करने की इजाज़त दे दी गयी। यानी कंपनी राज की शुरुआत हो गयी। कंपनी राज 1858 तक चला। 1858 से कंपनी राज ख़त्म हो गया और भारत सीधे ब्रिटिश राज के अधीन आ गया। हम लंबे समय तक शोषण के शिकार रहे। ब्रिटेन ने लंबे समय तक हमारा ही नहीं, दुनिया के कई देशों का शोषण किया है। कहा जाता था कि ब्रिटिश राज में सूरज नहीं डूबता था। हमें आज़ाद हुए जुमा जुमा पचहत्तर साल हुए। पर हमने ब्रिटेन को पछाड़ा है!

ऐसे में नरेंद्र मोदी विरोधी इसे भी नुक्ताचीनी के चश्मे से देखेंगे। वैसे, लोकतंत्र में देखा भी जाना चाहिए। पर किसी फ़ैसले पर पहुँचने से पहले कुछ और उन आँकड़ों को देख लेना चाहिए जो एक ओर उनकी आलोचना को जवाब देते हैं, तो दूसरी ओर ब्रिटेन को पीछे छोड़ने के एलान को आधार प्रदान करते हैं। इस साल के अप्रैल से जून के बीच देश की जीडीपी में 20.1 फ़ीसदी का उछाल आया है। मैन्युफ़ैक्चरिंग या विनिर्माण क्षेत्र में पिछले साल अप्रैल से जून के बीच 36 फ़ीसदी गिरावट के मुक़ाबले इस साल की इसी तिमाही में 40.6 फ़ीसदी की बढ़ोतरी देखी गयी है। सर्विसेज़ सेक्टर में भी सुधार हुआ है।

जनसंख्या के लिहाज़ से हम ब्रिटेन से बहुत आगे हैं। उसकी आबादी पौने सात करोड़ है। जबकि भारत की आबादी 138 करोड़ के क़रीब। इस तरह अर्थव्यवस्था का विकास लोगों तक पहुँचने के सवाल पर हमारी गति ब्रिटेन जैसी नहीं कही जा सकती है। हमारी प्रति व्यक्ति जीडीपी केवल 2500 डॉलर है जबकि ब्रिटेन की 4700 डॉलर। इस लिहाज़ से यह कहा जा सकता है कि समृद्धि के मामले में भारत से ब्रिटेन काफ़ी आगे है। पर कोविड काल की दिक़्क़तों व यूक्रेन युद्ध के कारण क्रूड ऑयल के दामों में बढ़ोतरी, चौरानबे फ़ीसदी कर्मचारी असंगठित क्षेत्र में होने, उत्पादन का पैंतालीस फ़ीसदी असंगठित क्षेत्रों से जुड़े होने और असंगठित क्षेत्र में गिरावट के दौर के बावजूद पाँचवें पायदान पर पहुँचना कम प्रशंसनीय नहीं है।

यही नहीं, देश के श्रम पोर्टल पर साढ़े सत्ताइस करोड़ लोगों का पंजीकरण है, इनमें से चौरानबे फ़ीसदी बताते हैं कि उनकी आमदनी दस हज़ार महीने से कम है। बेरोज़गारी की दर जून में 7.80 फ़ीसदी थी। सिर्फ 19 फ़ीसदी औरतें ही जॉब मार्केट में हैं। फिर भी पाँचवा पायदान!

यह महज़ इसलिए क्योंकि विदेशी मुद्रा भंडार के मामले में भारत दुनिया में चौथे स्थान पर है। जबकि तमाम चुनौतियों के बाद भी भारत ने विकास दर की रफ़्तार को जारी रखा है। जबकि पाकिस्तान बदहाली के कामगार पर है, श्रीलंका का संकट इतना ख़राब है कि राष्ट्रपति को देश छोड़ कर भागना पड़ा, बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था भी चुनौतियों से गुजर रही है, उसे मुद्राकोष से धन चाहिए, केवल छह माह तक बांग्लादेश बिना अंतरराष्ट्रीय मदद के चल सकता है। दिलचस्प यह है कि बांग्लादेश व श्रीलंका की अर्थव्यवस्था के बारे में अमर्त्य सेन सरीखे नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने इसी साल बड़ी सकारात्मक टिप्पणी की थी।

उधर भारतीय स्टेट बैंक की हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि 2014 के बाद से भारत द्वारा अपनाए गए रास्ते से पता चलता है कि देश को 2029 में तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का टैग मिलने की संभावना है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि बढ़ती अनिश्चितताओं के कारण, वैश्विक अर्थव्यवस्था में 6 से 6.5 प्रतिशत की वृद्धि दर अब सामान्य बात हो गई है।भारत को 2027 में जर्मनी से आगे निकल जाना चाहिए । सबसे अधिक संभावना है कि विकास की मौजूदा दर पर 2029 तक जापान भी पीछे हो जाएगा।

रिपोर्ट में कहा गया है कि विश्व जीडीपी में भारत की हिस्सेदारी अब 3.5 प्रतिशत है, जो 2014 में 2.6 प्रतिशत थी। 2027 में वैश्विक जीडीपी में भारत द्वारा जर्मनी की वर्तमान चार प्रतिशत की हिस्सेदारी को पार करने की संभावना है।

एसबीआई के मुख्य अर्थशास्त्री सौम्य कांति घोष द्वारा लिखी गई रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत को चीन में निवेश मंदी का लाभ मिलने की संभावना है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सशक्तिकरण के व्यापक आधार पर विकास से भारत की प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ेगी। यह बेहतर कल के लिए बल गुणक के रूप में कार्य कर सकता है। वैश्विक भू-राजनीति में सही नीतिगत दृष्टिकोण और जियोपॉलिटिक्स के साथ मौजूदा अनुमानों में ऊपर की ओर संशोधन भी हो सकता है। यानी चीजें और बेहतर हो सकती हैं।

एसबीआई की मुख्य अर्थशास्त्री ने हाल ही में पहली तिमाही के लिए जीडीपी संख्या का हवाला देते हुए, वित्त वर्ष 2013 के लिए पूरे साल के विकास के अनुमान को 7.5 प्रतिशत से घटा कर 6.8 प्रतिशत तक संशोधित किया था।पहली तिमाही में भारत की विकास दर संख्या ने 13.5 प्रतिशत की आम वृद्धि दिखाई, जो कि विनिर्माण क्षेत्र के खराब प्रदर्शन से नीचे चली गई है।

बेशक, भारत अन्य देशों के मुकाबले अर्थव्यवस्था में उत्तरोत्तर आगे बढ़ता जाएगा, लेकिन लोगों को इंतजार है कि उनकी निजी जिंदगी भी ब्रिटेन और जर्मनी के लोगों जैसी ही हो जाये। लेकिन इसकी उम्मीद 2029 यानी अगले सात साल तो क्या, अगले 70 सालों में पूरी होती तो फिलहाल नजर नहीं आती। जब देश की दसियों करोड़ आबादी को पेट भरने के लिए आज भी मुफ्त अनाज की दरकार है और सरकार भी इस सच्चाई को स्वीकार करती है तो भले ही हम दुनिया की नंबर वन अर्थव्यवस्था हो जाएं तो क्या फर्क पड़ता है?

( लेखक पत्रकार हैं।) 

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