समाजवाद क्या राष्ट्रवाद का विरोधी है ?

हर भारतीय समझता है कि हिटलर का राष्ट्रवादी-समाजवाद उसे विश्व सम्राट बनाने का हथियार था। पर ऐसा हो नहीं सकता था। हिटलर ने आत्महत्या की। हिटलर की जो चाल चलेगा, हिटलर की वह मौत मरेगा।

Written By :  K Vikram Rao
Update:2022-05-24 20:10 IST

K Vikram Rao

कल (22 मई 2022) मैं पटना में था। नारद जयंती (Narad Jayanti) पर विश्व संवाद केन्द्र द्वारा मीडिया आयोजन में मुख्य वक्ता था। विषय था: ''पत्रकारिता का धर्म।'' बड़ा गूढ था। फिर एक श्रोता ने फबती कसी : ''समाजवाद से राष्ट्रवाद की ओर?'' मुझे हंसी आ गयी। मजाक लगा। समाजवाद और राष्ट्रवाद (Socialism and Nationalism) का काढ़ा (जोशिंदा फारसी में) बड़ा वीभत्स होता है।

गत सदी में देखा जा चुका है। ऐसा क्वाथ एडोल्फ हिटलर (Adolf Hitler) ने गढ़ा था। उसकी पार्टी का नाम ही था ''नेशनल सोशलिस्ट (नाजी) पार्टी।'' चिह्न था आर्यों का स्वस्तिक। नारा था : ''आर्य (जर्मन) नस्ल ही श्रेष्ठतम है।'' तब हिटलर ने गोरे तानाशाह विंस्टन चर्चिल (Winston Churchill) को राय दी थी, कि महात्मा गांधी को खामोश करना है तो गोली मार दो। चर्चिल जानता था कि ऐसा करने के उसी दिन ही करोड़ों गुलाम भारतीय मुट्ठी भर अंग्रेजी साम्राज्यवादियों को खत्म कर देते।

हर भारतीय समझता है कि हिटलर का राष्ट्रवादी-समाजवाद उसे विश्व सम्राट बनाने का हथियार था। पर ऐसा हो नहीं सकता था। हुआ भी नहीं। हिटलर ने बंकर में आत्महत्या की, अर्थात ''हिटलर की जो चाल चलेगा, हिटलर की वह मौत मरेगा।''

मुझे उस व्याकरण को दुरुस्त करना पड़ा। मुझे उन्हें याद दिलाना पड़ा कि अप्रतिम समाजवादी डॉ. राम मनोहर लोहिया (Samajwadi Dr. Ram Manohar Lohia) अपने नाम के अनुसार, राम तथा कृष्ण के अनन्य भक्त, रामायण मेला के संचालक थे चित्रकूट में। कृष्ण लीला के प्रणेता। लोहिया भले ही हिटलर का युग बर्लिन में देख चुके थे। मगर वे सबसे उग्र हिटलर-विरोधी रहे। लोहिया ने हमें विश्वयारी की बात सिखाई। विश्व मानव की सार्वभौम एकता का प्रतिपादन किया। वहीं हम बुद्धिकर्मी भी सूत्र उच्चारते हैं : ''हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेंगे। एक खेत नहीं, एक बाग नहीं, हम पूरी दुनिया मांगेंगे।''

अर्थात, हम श्रमजीवी पत्रकार क्यों संकीर्णतावादी बनें? एक राष्ट्र की सीमा हमें अवरुद्ध नहीं कर सकती। द्वारिकाधीश केवल द्वीप के देवता नहीं थे। विश्वदेव हैं। याद कर लें 31 दिसम्बर 1955 की आधी रात (शनि-रवि) जब हैदराबाद में लोहिया के नेतृत्व में नवीनतम सोशलिस्ट पार्टी बनी थी। मशाल जुलूस में निकले इन आधुनिक समाजवादी का नारा था : ''इंसान केवल एक राष्ट्र में नहीं, सारे राष्ट्रों के समान हैं। विश्व मानव की यही अवधारणा है।''

मगर, अब यही वैश्विकता सिकुड़ कर यादववाद, इस्लामिस्ट, जाट संगत, पिछड़ा-अगड़ावाद और न जाने क्या-क्या गिरोह ! जी हां गिरोह! मानवता एक ही होती है। पर खंडित कर दी गयी। लोहिया और दीनदयाल की रुहें कांप रही होंगी ऐसा नजारा देख कर। सोशलिस्ट का नायाब शस्त्र था, आत्मपीड़न। मगर आज? जेल जाने से सोशलिस्ट डरते हैं। हिचकते हैं। सुविधाभोगी हो गये हैं। उन्हें कैसी अनुभूति होगी, कि समतामूलक समाज का लक्ष्य क्या है? बुनियादी इंसानी एकता का रूप क्या होगा? इसीलिए यदि विकृत समाजवाद में घातक राष्ट्रवाद घुल गया? तो वह औषधि नहीं, हलाहल होगा। 'मर्यादा पुरुषोत्तम' और 'लीला पुरुषोत्तम' कृपया मानव को इससे बचाएं। दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानवता और लोहिया की विश्व यारी समान ही हैं।  

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