धीरे-धीरे जमीनी हकीकत से बहुत दूर होती चली गई CPM

Update:2018-03-04 14:41 IST

नीलमणि लाल

बंगाल और त्रिपुरा में ख़तम होकर सीपीएम सिमटते-सिमटते सीपीएम सिर्फ केरल तक सिमट गई है। त्रिपुरा में अपने आखिरी गढ़ को खोने के बाद अब इस पार्टी के लिए यह समझना मुश्किल हो गया है आखिर ऐसा क्या हुआ कि माणिक सरकार जैसी पर्सनालिटी एकदम से इस तरह ध्वस्त क्यों हो गई?

त्रिपुरा में जिस व्यापक पैमाने पर सीपीएम का सफाया हुआ है उससे इस पार्टी और इसके नेताओं के लिए अगर कुछ समझ में नहीं आ रहा तो वह पूरी तरह स्वाभाविक प्रतिक्रिया कही जाएगी। जो पार्टी सामान्य से अत्यधिक विशाल नामों और व्यापक कैडर का दम भरती रही है उसके लिए ये पराजय इस तथ्य का सबूत है कि अब कम्युनिस्ट विचारधारा किस दिशा और दशा में पहुंच गई है।

त्रिपुरा का चुनाव ‘लेफ्ट’ और ‘राईट’ के बीच पहला सीधा चुनावी मुकाबला था। इस मुकाबले का नतीजा सीपीएम की विचारधारा के साथ-साथ माणिक सरकार की पर्सनालिटी की हार है। सीपीएम को त्रिपुरा में अपनी स्थिति और बीजेपी की पैठ का अंदाजा जरूर रहा होगा। लेकिन उसकी उम्मीद माणिक सरकार पर टिकी हुई थी। माणिक सरकार की व्यक्तिगत छवि और हैसियत भले ही बहुत अच्छी हो, लेकिन उनके अलावा अन्य नेताओं के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता।

वाम दल हमेशा से अपने आप को ‘आम जनता’ की आवाज के रूप में प्रदर्शित करने में फख्र महसूस करते रहे हैं। हालांकि, ये कभी भी राष्ट्रीय स्तर पर चुनावी मैदान में कोई मजबूत किरदार नहीं रहे हैं लेकिन इनका मानना रहा है कि बड़े मुद्दों पर बहस इन्हीं के द्वारा शुरू की जाती रही है। यही वजह है कि स्टूडेंट और कैंपस की पॉलिटिक्स में इसका दखल बढ़-चढ़कर रहता है।

त्रिपुरा में सीपीएम हमेशा की तरह युवाओं पर दांव लगाए हुए रही लेकिन असलियत में युवाओं और आमजन की अपेक्षाओं और उम्मीदों को समझ पाने में नाकामयाब रही या शायद पार्टी इसे समझना चाहती ही नहीं थी। अब पार्टी भले ही बीजेपी पर पैसे और संसाधनों के भरपूर इस्तेमाल का राग अलापे लेकिन असलियत यही है कि सीपीएम अब जमीनी स्थिति से बहुत दूर चली गई है। युवाओं के संग इसका कनेक्ट ख़त्म हो चुका है। रही बात मिडिल क्लास की तो उसे सीपीएम से कहीं ज्यादा भरोसा मोदी पर है। इसके अलावा पार्टी के भीतर येचुरी और करात के बीच की दूरी भी बताती है पार्टी की अंदरूनी हालत किस हाल में है।

सीपीएम की हालत या बीजेपी की जीत में एक फैक्टर ये भी है कि त्रिपुरा में इन दोनों के अलावा कांग्रेस की 'जीरो' उपस्थिति हो गई है। पांच साल पहले कांग्रेस का वोट शेयर 36 से घटकर इस चुनाव में 3 फीसदी से भी कम हो गया है और ये सब का सब बीजेपी के पाले में चला गया। कांग्रेस और कांग्रेस समर्थक वोटों को जिस तेजी से बीजेपी ने अपने पाले में किया है उसकी रफ़्तार केरल में भी नजर आए तो कोई ताज्जुब नहीं किया जाना चाहिए।

सीपीएम के लिए अब अपनी विचारधारा में लोगों, ख़ासकर युवाओं का भरोसा स्थापित करने की बहुत बड़ी चुनौती है, लेकिन युवाओं की अपेक्षाओं के सामने इस विचारधारा के टिकने का कोई आधार फिलहाल तो नजर नहीं आता।

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