लखनऊः तनाव, विग्रह, क्रूरता व हिंसा से भरे वर्तमान समाज में भगवान बुद्ध का दर्शन आज कहीं अधिक प्रासंगिक है। मानव के प्रति उनकी अपार करुणा, निष्ठुरता को पिघला देने वाली गहरी संवेदना समस्याओं के घिरे वर्तमान समाज के लिए अमृत संजीवनी है। भगवान बुद्ध के अंतर में प्रवाहित शांति की अज्रसधारा से निकली उनकी सरल, व्यावहारिक और मन को छू लेने वाली शिक्षाएं व्यक्ति को समाधान की ओर ले जाती हैं।
अवांछनीयताओं के खिलाफ क्रांति
सामान्यतया बाहरी तौर से देखने पर भगवान बुद्ध का चरित्र एक व्यक्ति विशेष की उपलब्धि मानी जा सकती है किन्तु तात्विक दृष्टि से इसे एक क्रांति कहना अधिक समीचीन होगा। अब से करीब ढाई हजार वर्ष पूर्व तत्कालीन विकृतियों का उन्मूलन करने वाली चिंगारी के रूप में जन्मे इस युगपुरुष के अवतरण युग में अवांछनीयताओं का बोलबाला था। भारतीय वैदिक धर्म अपना शाश्वत स्वरूप खो चुका था। अंधविश्वासों व रूढ़ियों को ही धर्म का पर्यायवाची माना जाने लगा था। ब्राह्मण व क्षत्रियों को मनमानी की छूट थी, जबकि शूद्रों को पशुतुल्य माना जाता था। साधना के नाम पर तांत्रिक वामाचार का बोलबाला था। यज्ञ का पवित्र कर्म निरीह पशुओं को भूनकर खाने की भट्ठी बन गया था। चारों ओर छाए इस सघन अंधकार को देखा तो राजकुमार सिद्धार्थ की आत्मा छटपटा उठी और उन्होंने अपनी आहुति देकर इस अंधकार से लड़ने का बीड़ा उठा लिया।
सद्ज्ञान की जलाई ज्योति
गृहत्याग कर कठोर तपश्चर्या से "बुद्धत्व" प्राप्त करके वे युग की पुकार को पूरा करने की दिशा में चल पड़े। लोकमानस में छाए अंधकार को निरस्त करने के लिए सद्ज्ञान की ज्योति जलाना जरूरी होता है। मगर विशाल लक्ष्य की पूर्ति के लिए सहयोगी भी महत्व होता है। इसलिए उन्होंने अनुयायी बनाए, जिन्हें परिपक्व पाया, उन्हें परिव्राजक बनाकर सद्ज्ञान का आलोक चहुंओर फैलाने की जिम्मेदारी सौंपी। यही था बुद्ध का धर्मचक्र प्रवर्तन अभियान जो उन्होंने वाराणसी के निकट सारनाथ से शुरू किया। तब उनके शिष्यों की संख्या केवल पांच थी, मगर बुद्ध को इसकी चिंता न थी। वे जानते थे कि आदर्श यदि ऊंचे हो व संचालन दूरदर्शितापूर्ण तो सद्उद्देश्य अंतत: पूर्ण हो ही जाते हैं।
वैदिक धर्म के मूल आदर्शों की पुर्नस्थापना की
बौद्ध धर्म मध्यम मार्ग के अनुसरण का उपदेश देता है। इसमें कट्टरता नहीं है। भगवान बुद्ध मूलत: एक सुधारवादी थे। उन्होंने हिन्दू धर्म में शामिल विकृतियों को दूर कर भारतीय वैदिक धर्म के मूल आदर्शों की पुर्नस्थापना की। बुद्ध का मूल प्रतिपादन सार रूप में तीन सूत्रों में है- बुद्धं शरणं गच्छामि! सघं शरणं गच्छामि! धम्मं शरणं गच्छामि। अर्थात हम बुद्धि व विवेक की शरण में जाते हैं। हम संघबद्ध होकर एकजुट रहने का व्रत लेते हैं। हम धर्म की नीति निष्ठा का वरण करते हैं। ये तीन सूत्र जो बौद्ध धर्म के आधार माने जाते हैं, वैदिक धर्म के भी मूल सूत्र हैं। उन्होंने अपने प्रवचनों में स्थान-स्थान पर वैदिक साहित्य के तमाम उद्धरण भी दिए, जिसके पर्याप्त साक्ष्य बौद्ध साहित्य में उपलब्ध हैं।
बुद्धि को शुद्ध करने पर दिया जोर
भगवान बुद्ध ने तत्कालीन समाज में व्याप्त कुरीतियों व विसंगतियों का निदान करते हुए कहा कि यदि बुद्धि को शुद्ध न किया गया तो परिणाम भयावह होंगे। उन्होंने चेताया कि बुद्धि के दो ही रूप संभव हैं- कुटिल और करुण। बुद्धि यदि कुसंस्कारों में लिपटी है, स्वार्थ के मोहपाश और अहं के उन्माद से पीड़ित है तो उससे केवल कुटिलता ही निकलेगी, परन्तु यदि इसे शुद्ध कर लिया गया तो उसमें करुणा के फूल खिल सकते हैं। बुद्धि अपनी अशुद्ध दशा में इंसान को शैतान बनाती है तो इसकी परम शुद्ध दशा में व्यक्ति "बुद्ध" बन सकता है, उसमें भगवत सत्ता अवतरित हो सकती है।
बुद्धि-शुद्धि के आठ मंत्र
मानव बुद्धि को शुद्ध करने के लिए भगवान बुद्ध ने इसका विज्ञान विकसित किया। इसके लिए उन्होंने आठ बिंदु सुझाए। जो बौद्ध धर्म के अष्टांग मार्ग के नाम से जाने जाते हैं। आठ चरणों वाली इस यात्रा का पहला चरण है- सम्यक दृष्टि अर्थात सबसे पहली जरूरत है कि व्यक्ति का दृष्टिकोण सुधरे। हम समझें कि जीवन सृजन के लिए है न कि विनाश के लिए। दूसरा चरण है- सम्यक संकल्प। ऐसा होने पर ही निश्चय करने के योग्य बनते हैं। इसके बाद तीसरा चरण है- सम्यक वाणी यानी हम जो भी बोलें, उससे पूर्व विचार करें। मुंह से निकले शब्द अपने साथ दूसरे या सामने वाले के हितसाधक हों, उनके मन को शांति पहुंचाने वाले हों। चौथा चरण है- सम्यक कर्म। यदि मानव कुछ करने से पूर्व उसके आगे पीछे के परिणाम के बारे में भली-भांति विचार कर ले तो वह दुष्कर्मों के बंधन से सदैव मुक्त रहेगा। इसका अगला चरण है- सम्यक आजीविका, यानी कमाई जो भी हो, जिस माध्यम से अर्जित की जाय, उसके रास्ते ईमानदारी के हों, किसी का अहित करके कमाया गया पैसा सदैव व्यक्ति व समाज के लिए कष्टकारी ही होता है। सम्यक व्यायाम- यह छठा चरण है। इसके तहत इस बात की शिक्षा दी गई है कि शारीरिक श्रम व उचित आहार-विहार से शरीर को स्वस्थ रखा जाय क्योंकि अस्वस्थ शरीर से मनुष्य किसी भी लक्ष्य को सही ढंग से पूरा नहीं कर सकता। इसके आगे सातवां चरण है- सम्यक स्मृति। यानी बुद्धि की परिशुद्धि। व्यक्ति के शारीरिक व मानसिक विकास का यह महत्वपूर्ण सोपान है। इसके पश्चात आठवां व अंतिम चरण है- सम्यक समाधि। इस अंतिम सोपान पर पहुंचकर व्यक्ति बुद्धत्व की अवस्था प्राप्त कर सकता है।
सार रूप में कहें तो ये आठ चरण मनुष्य के बौद्धिक विकास के अत्यंत महत्वपूर्ण उपादान हैं। मानवी बुद्धि अशुद्धताओं से जितनी मुक्त होती जाएगी, उतनी ही उसमें संवेदना पनपेगी और तभी मनुष्य के हृदय में चेतना के पुष्प खिलेंगे। यहीं संवेदना संजीवनी आज की महा औषधि है, जो मनुष्य के मुरझाए प्राणों में नवचेतना का संचार कर सकती है।
...और बनता गया कारवां
सद्उद्देश्य के लिए जब कोई प्रामाणिक व्यक्ति आगे आता है और दूरदर्शिता व परमार्थ निष्ठा से जनमानस को प्रभावित करता है तो लोग पीछे हो लेते हैं। भगवान बुद्ध चले तो अकेले पर उन्हें साथियों-अनुयायियों की कोई कमी न रही और देखते-देखते बौद्ध धर्म भारत की सीमाओं को पार कर तिब्बत, चीन, भूटान, जापान, म्यांमार, मलेशिया, इंडोनेशिया, कोरिया, जापान आदि देशों में फैल गया। यहां तक कि कई जगहों पर तो यह राजधर्म की तरह प्रतिष्ठित हो गया। अपनी उपयोगिता का कारण एशिया का बहुत बड़ा भू-भाग तो पहले से ही उनके संदेश को धारण किए हुए है, अब पश्चिम में भी भगवान बुद्ध का संदेश काफी तेजी से लोकप्रिय हो रहा है।