लखनऊ: मानव जीवन के सर्वांगीण विकास आैर आंतरिक प्रतिभा के जागरण के लिए भारतीय ऋषि मुनियों ने एक सुनिश्चित व्यवस्था बनायी थी। उनका विचार था कि उचित वातावरण में नियम और संयम के निर्धारित अनुबंधों का पालन किए बगैर जीवन में विद्या का वास्तविक ज्ञान अर्जित कर सकना असम्भव है।
वे इस तथ्य से भली भांति अवगत थे कि व्यक्तित्व के सम्पूर्णता के लिए अनुशासन के नियमों का पालन करते हुए आैसत स्तर के जीवन जीने के लिए भी शिक्षण और प्रशिक्षण बहुत जरूरी है। गुरुकुल और मठों आदि के माध्यम से प्रतिभा परिष्कार ये पद्धति हमारी देवभूमि की अत्यन्त पुनीत परम्परा थी। जीवन विद्या के इन्हीं आलोक केन्द्रों के कारण ही हमारा देश विश्वगुरु कहलाता था।
वेद और पुराण ब्राह्मण ग्रन्थ, रामायण, महाभारत, रामचरितमानस जैसे अनेकानेक धर्मग्रन्थों में वर्णित प्रसंग हमारे देश की इस महान परम्परा की उपयोगिता सिद्ध करते हैं। 16वीं शताब्दी में भारत भ्रमण पर आए चीनी यात्री ह्वेनसांग की पुस्तक सीयुची पश्चिम की यात्रा में भारत के विभिन्न बौद्ध विहार और अन्य सनातन धर्म के मठों मंदिरों और आश्रमों आदि के बारे में विस्तृत विवरण प्रस्तुत करते हुए इस व्यवस्था की प्रशंसा की गई है।
जीवन विद्या का ये शिक्षण हमारी भारत भूमि में ही नहीं विश्व भर में दिया जाता था। व्यक्तित्व परिष्कार के तमाम केन्द्र पाश्चात्य देशों में भी थे, जहां मनुष्य में देवत्व जगाने की कला सिखायी जाती थी। ईसाई धर्म के महान संत सेंट एंथनी ऐसी ही एक शख्सियत माने जाते हैं।
पश्चिमी जगत में फादर ऑफ डेजर्ट के रूप में विख्यात मिस्र निवासी सेंट एंथनी ने तीसरी शताब्दी के आरंभिक दिनों में लाल समुद्र के पास प्रतिभाएं निखारने के लिए एक आश्रम बनाया था। इस आश्रम में रहने वालों को कठोर जीवन का पालन करना पड़ता था। सेंट एंथनी के इस आश्रम में 13 सौ साधु आैर साध्वियां रहती थीं।
इनका जीवन आश्रम पद्धति के अनुसार काफी कठोर नियमों से बंधा था। इस आश्रम में विद्याध्ययन के अलावा साधकों के लिए लगभग चार घंटे प्रार्थना आदि के लिए निश्चित थे यहां आत्मरक्षा के लिए कुंगफू-कराटे जैसी मार्शल आर्ट और अन्य युद्धकलाएं भी सिखायी जाती थी। अन्य समय में ये लोग आश्रम की आवश्यकतानुसार तकनीकी ज्ञान अर्जित करते थे।
इसके तहत बढ़ई मिस्त्री लोहार बागबानी बंजर और बेकार पड़ी भूमि को उपजाऊ बनाकर उनपर कृषिकार्य आदि का प्रशिक्षण दिया जाता था ताकि आश्रम राजाश्रय पर निर्भर रहने की बजाय आत्मनिर्भर रह सके। यूरोप के प्रख्यात मनीषी डोनाल्ड बरबिक ने अपने लेख डेडली लाइफ इन एमोनेस्ट्री में वहां के आश्रमों और मठों के नियमों और कठोर जीवनचर्या के बारे में विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है।
रोमन साम्राज्य के पतन के बाद 6ठीं सदी में वहां संत बेनिडिक्ट द्वारा स्थापित मोंटे कासीनो नामक मठ पूरे विश्व में विख्यात था। इस यूरोपीय मठ की आचार संहिता की ग्यारहवीं शताब्दी की एक हस्तलिपि प्राप्त हुई है।
जिसमें इस ख्यातिनाम मठ के नियमों का विस्तृत उल्लेख मिलता है। साथ ही इसमें मठ के कुछ चित्र भी दिए गए हैं। ये पांडुलिपि संत ग्रेगरी ने तैयार की थी, जिसमें संत बेनिडिक्ट की उपलब्धियों और जीवनचर्या पर विस्तार से रोशनी डाली गयी है।
मठ में एक धर्माध्यक्ष हुआ करता था जिसे एबोट कहा जाता है। यही नहीं इस मठ में रहने वालों का आहार और विहार सात्विक और निरामिष रखना अनिवार्य घोषित किया गया था। इसी के साथ यहां गर्मी के मौसम में केवल एक समय आहार आैर शीतकाल में यूरोप की कड़ाके की ठंड से बचने के लिए दो समय आहार दिया जाता था।
यहां लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए श्रमशीलता आैर मितव्ययिता के नियमों का पालन करना आवश्यक था। समय और प्रबंधन अर्थात दिनचर्या का विभाजन कुछ इस प्रकार था। जिसमें चार घंटे सामूहिक प्रार्थना व अन्य समय कारखानों में उत्पादन के लिए श्रम आदि के लिए निर्धारित थे। दो बजे जागरण और सायं साढ़े 6 बजे निद्रा के लिए आश्रमवासी अपने-अपने कक्ष में चले जाते थे।
ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार साल 814 से साल 840 में केरोलीगीआन साम्राज्य के सम्राट लुइस ने यूरोप के सभी मठों में बेनिडिक्ट के नियमों का परिपालन अनिवार्य बना दिया था।
कहा जाता है कि साल 1000 तक तो ये व्यवस्था चलती रही, लेकिन इसके बाद संपन्न वर्ग की ओर से कृषि कार्य जैसे कठोर श्रम के लिए वेतन भोगी कर्मी रखे जाने लगे थे।
विभिन्न मठों के धर्माधिकारियों के बुद्धिविवेक पर यह बात निर्भर करती थी कि मठ में कठोर तपस्या का अनुपालन करते हुए शास्त्रों और ज्ञान-विज्ञान के शिक्ष-प्रशिक्षण पर अधिक बल देना है या तकनीकी कौशल पर।
माना जाता है कि इन मठों की व्यवस्था के लिए संत बेनिडिक्ट के बनाए नियम गीता के निष्काम कर्मयोग के शिक्षण और योगशास्त्रों व साधनाशास्त्रों में निर्धारित थे। आश्रम में प्रार्थना आदि के समय नि:शब्द शांति बनाए रखना आवश्यक माना जाता था।
फिर भी कोई आपस में चर्चा आदि करना चाहे तो इसके लिए अलग से एक हॉल बनाया गया था। शीतलकाल में ठंडक से बचने के लिए आश्रमों में तापने के लिए आग का प्रबंध कर दिया जाता था।
साथ ही, मठवासियों के लिए सादे आैर ऊनी वस्त्रों का भी समुचित प्रबंध रहता था। शिक्षण और प्रशिक्षण पूरा कर यहां से निकलने वाले लोकसेवी प्रतिभा के धनी तो होते ही थे। साथ ही वे अपनी सादगी और सरलता के लिए भी दूर-दूर तक जाने जाते थे।