आखिर राजनीति में हम कब तक जलाएंगे अपने 'चिराग' से चिराग?
आजादी के बाद राष्ट्रकवि ‘दिनकर’ का उद्घोष "सिंहासन खाली करो कि जनता आती है"। बेशक आमजन मानस में एक उम्मीद लेकर आया था। लेकिन जब एक पखवाड़ा पहले जब कांग्रेस के सर्वेसर्वा राहुल गांधी अमेरिका की प्रतिष्ठित कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में परिवारवाद को हिंदुस्तान की राजनीति में जायज ठहराते हुए उसके बचाव में कई तर्क दे रहे थे।
शिमला: आजादी के बाद राष्ट्रकवि ‘दिनकर’ का उद्घोष "सिंहासन खाली करो कि जनता आती है"। बेशक आमजन मानस में एक उम्मीद लेकर आया था। लेकिन जब एक पखवाड़ा पहले जब कांग्रेस के सर्वेसर्वा राहुल गांधी अमेरिका की प्रतिष्ठित कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में परिवारवाद को हिंदुस्तान की राजनीति में जायज ठहराते हुए उसके बचाव में कई तर्क दे रहे थे।
उसी समय कांग्रेस के सबसे दिग्गज स्टेट्स मैंन वीरभद्र सिंह इस परिवारवाद में शायद एक और अध्याय जोड़ने की तैयारी कर रहे थे। आखिरकार उन्होंने अपने पुत्र विक्रमादित्य सिंह को अपना राजनैतिक उत्तराधिकारी बता कर अपने लिए विदाई की मांग कर ली।
वीरभद्र सिंह ने अपने क्षेत्र में जनसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा "भले ही इनकी उम्र कम है लेकिन उत्साह गजब का है। अब इनका पॉलिटिकल विजडम शानदार है और परिपक्वता आ गई है। इसके साथ ही वहां की स्थानीय कमेटी ने एक प्रस्ताव भी पास किया जिसमे यह मांग की गई कि उन्हें शिमला ग्रामीण से आलाकमान एमएलए का उम्मीदवार बनाए। एक पिता के रूप में सीएम वीरभद्र सिंह की ये बातें कितनी जायज हैं, इसके लिए एक कहावत मशहूर है जब 'बाप की चप्पल बेटे के पैरों में आ जाए तो समझो बच्चा बड़ा हो गया।'
बात कुछ पुरानी है। गांधी परिवार के एक और चिराग वरुण गांधी एक जनसभा को संबोधित कर रहे थे। भारी भीड़ के बीच गजब उत्साह था। जयकारों के बीच उन्होंने कहा "मेरा नाम वरुण गांधी है इसलिये मैं मंच पर हूं, पार्टी का महासचिव हूं अगर यह नाम मेरे पीछे नहीं होता तो मैं आज बाकी लोगों की तरह ही होर्डिंग और पोस्टर लगा रहा होता"। शोर के साथ इस बात के लिए भी लोगों ने तालियां बजाईं। इन तालियों और जयकारों के बीच जो शब्द मेरे मन मे रह गया वह था वरुण गांधी का वह यथार्थ जो आजादी के 67 साल बाद भी बदलने को राजी नही था। इन सबके बीच जो चीज जो मुझे सबसे ज्यादा परेशान कर रही थी वह युवा झंडाबरदारों का झुंड जो पोस्टर बैनर लगाते फिरते हैं, इसके साथ ही उनके राजनीतिक सपने का सपना ही रह जाने वाली हकीकत। बात आई गयी हो गयी। लेकिन मुद्दा वही रहा आज भी आगे भी रहेगा ही। लेकिन सवाल यह है कि आखिर कब तक हम राजनीति में अपने 'चिराग' से चिराग जलाते रहेंगे।
यह बात किसी एक के लिए नहीं है। हिमाचल की कई बार कमान संभाल चुके प्रेम कुमार धूमल का परिवार भी राजनिति में फल-फूल रहे हैं। वहीं सुखराम शर्मा के बेटे भी उनके राजनैतिक उत्तराधिकारी बने। सही मायनों में तो शायद ही कोई ऐसा सियासी क्षत्रप हो जो परिवारवाद का अपवाद हो।
आखिर कब सड़कों पर आंदोलन करने वालों को सदन में भी जगहें मिलनी शुरू होगी? आखिर कब पोस्टर लगाने वाले पोस्टर में आएंगे भी? आखिर कब परचम उठाने वाले परचम लहरायेंगे भी। आखिर कब हम इस परिवारवाद को तिलांजलि दे पाएंगे। खैर यह जनता आप है आपके बच्चे सिर्फ परचम ढोएंगे भी या फहराएंगे भी! इस शेर के साथ मैं अपनी बात खत्म करता हूं।
'अब उजाला ठोकरें ही दे दे शायद। रात जंगल में कोई शम्मा जलाने से रही।'