लखनऊ: हानि, लाभ, जीवन, मरण... क्या सच में विधि के हाथ में। ये पूर्ण सत्य नहीं, आधा सच जरूर है। बेशक जन्म विधि के हाथ लेकिन मरण? संभवत: नहीं। मरना खुद के हाथ में। आश्चर्य हो सकता है। ये वैज्ञानिक चमत्कार नहीं जीवन जीने की कला है।
भारत में देह दान की सदियों पुरानी परम्परा रही है। दधिचि ने राक्षसों ले लडने के लिए देवताओं को अपनी हड्डियां दान कर दी थीं। दधिचि इसीलिए अमर हुए। हां, जीने की कला, दूसरों की आंखों में बस अपने अधूरे सपनों को पूरा करने की हसरत। दूसरों के दिल में धड़कते रहने की हसरत। आम तौर पर देहदान वो लोग करते हैं जो उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच जाते हैं जहां उनके मन में जीने की ज्यादा चाह नहीं बची रहती।
किसी और देह की आंखों में बसना या...
सपने भी कम्बख्त अजीब होते हैं, कभी पीछा ही नहीं छोड़ते। भले ही हाथ में जुंबिश न बचे और न आंखों में दम। देहदान के बाद इसे खासतौर पर जाना। अब किसी और देह की आंखों में बसना या किसी के दिल में धड़कने का सपना। कैसी होगी वो देह? क्या इस जीवन में जो सपने अधूरे रह गए वो बाद में पूरे हो पाएंगे?
आगे की स्लाइड्स में पढ़ें पूरी खबर ...
ये तो मिसाल है
कुछ दिन पहले एक खबर पढ़ी थी। मुंबई से ढाई सौ किलोमीटर दूर लगभग पांच सौ की आबादी वाले एक गांव बेबलेवाड़ी की अनोखी दास्तान। यहां के आधे से अधिक लोगों ने एक लिखित संकल्प लिया है कि अपनी मृत्यु के बाद वे अपनी आंखें दान करेंगे। और ऐसा संकल्प लेने में उन्होंने समाज और धर्म की उन मान्यताओं की खास फिक्र नहीं की, जो इंद्रियों को हटाकर शव का अंतिम संस्कार करने की मुखालफत करती हैं। पांच सौ लोगों में आधे से अधिक लोगों के इस संकल्प की अहमियत को जो समझना चाहते हों, उन्हें इतना ही बताना काफी है कि लगभग दो करोड़ की आबादी वाले मुंबई में हर साल नेत्रदान के महज 2,000 मामले सामने आते हैं।
दुनिया में सबसे अधिक नेत्रहीन भारत में
यह जानी हुई बात है कि दुनिया में सबसे अधिक नेत्रहीन भारत में हैं। इनमें कइयों की दृष्टि लौटाई जा सकती है। बशर्ते कोई नेत्रदान के लिए तैयार हो। वैसे नेत्रदान, किडनीदान या अन्य अंगों के दान को लेकर हमारे समूचे समाज में जितनी अज्ञानता मौजूद है, वह समझ से परे है। न लोग समस्या की व्यापकता से परिचित हैं, न इस पहलू से परिचित है कि किस तरह अंगदान या देहदान के बाद उनका इस्तेमाल होता है। भारत में हर साल लगभग दो लाख लोग दिल, आंत और लीवर की ऐसी तकलीफों से मरते हैं, जिन्हें अंग प्रत्यारोपण से बचाया जा सकता है।
मरने के बाद भी नहीं छूट रहा मोह
इक्कीसवीं सदी में भी अज्ञान और अंधश्रद्धा का ऐसा आलम है कि मरने के बाद भी हम अपने अंगों और शरीर का मोह छोड़ने के लिए कतई तैयार नहीं।
देहदान वाले अधिकतर 60 से ज्यादा आयु के
देश का दिल कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की आबादी 40 लाख से ज्यादा है। यहां बड़ी संख्या में राजनेता, नेता, बड़े अधिकारी और हजारों की संख्या में पत्रकार भी रहते हैं। इनकी पैनी नजर समाज के हर हिस्से पर होती है। लखनऊ के किंग जार्ज मेडिकल विश्वविद्यालय के एटानामी विभाग के प्रमुख एस के पांडेय कहते हैं कि 'राजधानी में अब तक कुल 276 लोगों ने देहदान किया है, जिसमें सभी 60 से ज्यादा के आयु के हैं।'
हालांकि पूरे देश में इसका कोई अधिकृत आंकड़ा मौजूद नहीं है। भारत दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला दूसरा देश है लेकिन अन्य देशों के मुकाबले यहां देहदान काफी कम है ।