छिन गए हैं औरतों की खुशियों के रंग, शुरू हुई है जब से तीन तलाक और चार निकाह की जंग

शौहर को दूसरी, तीसरी या चौथी औरत के साथ रात बिताने का दंश झेलने वाली या छोटी सी गलती या बिना गलती के ही कान में पिघले सीसे की तरह जाने वाले तलाक शब्द को सुनने का दर्द सहने वाली औरत कहां बची है इस बहस में।

Update: 2016-10-14 07:53 GMT

Vinod Kapoor

लखनऊ: तलाक और चार शादी को लेकर छिड़ी बहस ने विवाद का रूप तो पहले ही ले लिया था, अब तो म्यानों से तलवार भी निकल आई हैं। लेकिन जिसके लिए ये बहस शुरु हुई वो औरत इससे गायब हो गई है।

खुद के घर में रहते या निकाल दिए जाने के बाद शौहर को दूसरी, तीसरी या चौथी औरत के साथ रात बिताने का दंश झेलने वाली या छोटी सी गलती या बिना गलती के ही कान में पिघले सीसे की तरह जाने वाले तलाक शब्द को सुनने का दर्द सहने वाली औरत कहां बची है इस बहस में। अब तो बहस इस बात पर टिक गई है कि सरकार शरीयत में दखल दे रही है। यदि ऐसा हुआ तो पूरे देश में खूनखराबा होगा।

तीन तलाक और चार विवाह को जारी रखने का तर्क देने वाले हों या समान आचार संहिता की वकालत करने वाले। कोई भी उस औरत से नहीं पूछ रहा कि तुम क्या चाहती हो। शरीयत के नाम पर पुरानी परम्परा से बंधे रहना या बराबरी की आजादी की मंशा।

मुसलमानों की नुमाइंदगी करने वाली देश की सबसे बड़ी संस्था तीन तलाक और चार विवाह के पक्ष में कैसे कैसे तर्क गढ़ रही है। बोर्ड की दलील पर जरा नजर डाल लें। यदि इसे जबरन रोका गया तो औरतें जलाई जाने लगेंगी। उनके खिलाफ हिंसा की वारदात बढ़ जाएगी। मानो जो हो रहा है वो हिंसा नहीं है।

समय के साथ बदलाव

ये देश औरतों को लेकर बहुत सी कुरीतियों से जूझता रहा है। सती प्रथा थी तो बाल विवाह था। पति के मरते ही पत्नी को उसके शव के साथ जिंदा आग में झोंक दिया जाता था। संभवत: कभी सती प्रथा ठीक रही हो। युद्ध में पति के मरने के बाद उसकी पत्नी पर दुश्मनों का अत्याचार नहीं हो, शायद इसीलिए ऐसा किया गया होगा।

बाल विवाह का भी अपना तर्क रहा होगा। जिस उम्र में बच्ची प्यार का प नहीं समझ पाती थी उस उम्र में उसे सेक्स का स समझा दिया जाता था। लेकिन ये समय के साथ दूर हुआ। उनके उद्धार के लिए राजा राम मोहन राय सामने आए तो पौराणिक कथाओं के अनुसार अहिल्या का उद्धार करने राम को आना पड़ा। अहिल्या तो पत्थर की थी जिसका राम ने उद्धार कर दिया लेकिन यहां तो हाड़ मांस की ना जाने कितनी अहिल्यायें अपने घरों में सिसक रही हैं।

कबीर ने लिखा था मुई खाल की आह से सार भस्म हो जाए। मतलब मरी हुई खाल की आह से लोहा भी भस्म हो जाता है। लेकिन यहां तो जिंदा हाड़ मांस खून, दिल और दिमाग रखने वाली औरतों के साथ ऐसा हो रहा है और कोई भी भस्म होता दिखाई नहीं देता। यहां बार बार औरत शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है। वो इसलिए कि औरत को कभी महिला बनने ही नहीं दिया गया।

शायद चार निकाह एक समय ठीक रहा होगा कि, युद्ध में मारे जाने वाले मुसलमान योद्धाओं की बीवियों पर दुश्मन नजर नहीं डाल सके, इसलिए उस वक्त इसे जरूरी कर दिया गया हो लेकिन तीन तलाक पर कोई तर्क समझ में नहीं आता।

देश संविधान से चलेगा या शरीयत से

अब सवाल ये भी उठाया जा रहा है कि देश बनाए गए संविधान से चलेगा या धर्म के आधार पर जिसे शरीयत का नाम दिया जा रहा है। यदि शरीयत के हिसाब से एक वर्ग चलना चाहता है तो कानून व्यवसथा में शरीयत कानून क्यों नहीं। जहां जान के बदले जान और हाथ के बदले हाथ काट देने की व्यवस्था तुरंत होती है। तीन तलाक और चार विवाह के पक्ष में तर्क देने वाले लोग कानून व्यवस्था में देश का कानून क्यों मानते हैं। बड़ा अजीब सा तर्क है। चार शादी करने वाला इकबाल नाम को कोई जज दो शादी करने वाले किसी राम गोपाल को तुरंत सजा सुना देता है।

हिंदू हो या मुसलमान औरत पहले औरत होती है। उसकी पीड़ा, उसका दर्द समझना होगा। आदि शक्ति या आधी शक्ति के नारे से काम नहीं चलने वाला है । कोई भी इस्लामिक धर्म गुरू इस पर बहस को तैयार नहीं कि औरतों में इतनी अशिक्षा क्यों है? दुनिया भर के चलने वाले चकलाघरों में रहने वाली औरतों या लड़कियों में मुसलमान की ही संख्या ज्यादा क्यों है? गरीबी क्यों है? बहस की दिशा मोड़िए जनाब। औरतें किसी भी समुदाय की हों वो पहले औरत होती हैं। उसकी ताकत के बिना जवान मर्द भी अधूरा होता है। उसकी भावनाओं को समझिए। औरतों के विकास के बिना कोई भी समाज विकसित नहीं हो सकता। इंडोनेशिया, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे पूरी तरह इस्लामिक देश भी तीन तलाक और चार विवाह को गलत मान इससे दूर हो चुके हैं। फिर भारत तो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यहां भी ऐसी व्यवस्था के लिए जगह नहीं होनी चाहिए।

Tags:    

Similar News