Azadi Ka Amrit Mahotsav: इस "अमृत" को दिल में संजोना होगा
Azadi Ka Amrit Mahotsav: होना तो यह चाहिए था कि यह भाव हम सब भारतवासियों में स्वतः आता और सरकार हमारा अनुसरण करती। पर अमृत महोत्सव पर हमारी भागीदारी सरकार के अनुसरण का नतीजा है।
Azadi ka Amrit Mahotsav: पर्व और उत्सव किसी जीवन, समाज व राष्ट्र के अभीष्ट होते हैं। अनिवार्य यह है कि हम अपने जीवन के पर्व- जन्मदिन, विवाह वर्षगाँठ आदि इत्यादि जितने लगाव से मनाते हैं, उतने ही लगाव व चाव से सामाजिक व राष्ट्रीय पर्व भी मनायें। वैसी ही भागीदारी हो। वैसा ही अहसास होना चाहिए। आज़ादी के अमृत महोत्सव को मनाने में यह चाव, लगाव, अहसास व संलग्नता दिखी है। पर सरकार की अगुवाई के बाद।
होना तो यह चाहिए था कि यह भाव हम सब भारतवासियों में स्वतः आता और सरकार हमारा अनुसरण करती। पर अमृत महोत्सव पर हमारी भागीदारी सरकार के अनुसरण का नतीजा है। हाँ, यह सही है कि देश इस बार सन्नाटा ओढ़े नहीं बैठा रहा। आज़ादी के तराने गाये गये। रैलियाँ निकलीं। घर घर तिरंगा लहराया। भारत का अभिमान तिरंगा ,आन बान शान तिरंगा , विजयी विश्व तिरंगा प्यारा , झंडा ऊँचा रहे हमारा गाते हुए लोग आज़ादी का जश्न मनाने घर से निकले । लोग ख़ुशी व उत्साह से लबरेज़ हैं।ताजगी, लगाव व ऊर्जा का जज़्बा दिखा है। एक चमक, एक उत्साह है। देश की फ़िज़ा में आज़ादी की अलग ख़ुशबू महसूस हुई है।
अमृत महोत्सव पर कायाकल्प जैसा अनुभव हुआ। लोगों में आज़ादी का जज़्बा कम नहीं हुआ है, यह पता चला। हाँ, अनुष्ठानों में लोगों की रुचि ज़रूर कम हुई है। पर इसे मीडिया पूरा कर देता है। स्वतंत्रता का विवेक आत्मानुशासन के बिना क़तई संभव नहीं है, यह दिखा है। बड़ी चेतना आकार लेती, पसरती और उसमें सबको समाहित करती दिखी।
आज़ादी के समय किसी ने समाजवाद का सपना देखा, किसी ने राम राज्य का, किसी ने साम्यवाद का, किसी ने धर्मनिरपेक्षता का, किसी ने मुस्लिम राष्ट्र के सापेक्षिक हिंदू बहुल राष्ट्र का। पर आज़ादी इन किसी भी सपनों में नहीं आई। वह विहित हुई लोकतांत्रिक संविधान में, सार्विक मताधिकार में, समान नागरिक अधिकारों में, धर्म स्वातंत्र्य में, समाज के निचले पायदान पर खड़े लोगों के आरक्षित अधिकार में, संसाधनों व सुविधाओं को वंचितों व अभावग्रस्तों तक पहुँचाने के संकल्प में।
साढ़े सात दशकों की हमारी स्वतंत्रता की यात्रा कोई सीधी सपाट यात्रा नहीं रही।बहुत उतार चढ़ाव आये। विभाजन, सांप्रदायिक हिंसा, विस्थापन, चार युद्ध, अलगाववादी आंदोलन, क्षेत्रीय दावेदारियों, क्षेत्रीय व सामुदायिक आकांक्षाएँ, आपातकाल, मंडल कमंडल की सियासत, आर्थिक सुधार का दौर, अस्थिर कमजोर गठबंधन वाली सरकारें, वैश्वीकरण, संचार क्रांति, राष्ट्रवाद व देशभक्ति के दौर से यह यात्रा गुजरी है।
लोगों ने देखा कि दो देशों की सरहद , भूगोल की एक रेखा कैसे इंसान की क़िस्मत की रेखा की तरह बदलती है। हमारी स्वतंत्रता कठोर यातनाओं से परिपूर्ण और शहीदों के बलिदानों से भरी पड़ी है। इसे शांति व क्रांति, दोनों दौर से गुजरना पड़ा है। लेकिन हमारी आंतरिक ज्ञानधारा अक्षुण्ण तथा प्रवाहशील बनी रही। हमारी स्वाधीनता में समानता अंतर्निहित है। भारतीय लोकतंत्र का बहुधार्मिक स्वरूप यथार्थ में हिंदू मानस संस्कारों का ही सहजात है। उपलब्ध लोकतांत्रिक संवाद की ज़मीन को हमने लगातार फैलाया। हर साल पुराने हो रहे लोकतंत्र व गणतंत्र में लोक व गण के हितों का ख़्याल रखा। सामाजिक न्याय की लड़ाई का अर्थ सामाजिक मोलभाव में चतुराई और जाति घृणा नहीं माना। न्याय को विलंबित न्याय के हक़दारों तक पहुँचाते हुए उसे अंतत: जाति निरपेक्ष और धर्म निरपेक्ष बनाया।
ज्ञान प्राप्ति की तीव्रता, उत्कंठा और दुर्लभ सैद्धांतिक सहिष्णुता के सम्मिलित प्रभावों ने ही विश्व की आदिम जीवंत सभ्यता के रूप में हमें अप्रतिहत बनाये रखा। हम एक प्राकृत धर्म समुच्चय के रूप में विकसित हुए हैं। यही सब वजहें हैं कि स्वतंत्रता व लोकतंत्र की दुनिया में भारत की साख है। वैश्विक मंचों पर हमें अनसुना नहीं, हमें सुना जाता है। हमारी राय को गंभीरता से लिया जाता है। ऐसा महज़ इसलिए क्योंकि हमारे स्वतंत्रता की साढ़े सात दशक की यात्रा सिर्फ़ अबाधित ही नहीं, गौरवशाली भी रही।
दरअसल समय के साथ साथ प्रतीक भी चमक खोने लगते हैं, उनके माध्यम से दिये जाने वाले संदेशों पर कर्मकांड हावी होने लगते हैं। इन्हीं कर्मकांडों से निजात पाने व निजात दिलाने के लिए ऐसे आयोजनों की ज़रूरत होती है,जो निजता से समग्रता की सार्वजनिक यात्रा कराती हो। जो समाज के साथ गौरव बोध जीने का अवसर दिलाती हो। हमें बताती हो कि हम उस संस्कृति के वाहक हैं, जो वसुधैव कुटुंबम का पाठ पढ़ाती है। जो उपभोग नहीं, उपयोग सिखाती है। जय हिंद का नारा आबिद हसन जफयाब ने दिया था, यह बताती हो।
शिवाजी जब मुग़ल बादशाह आदिल शाह के सरदार अफ़ज़ल खान से मिलने जा रहे थे, तब उन्हें बघनख पहनने की राय रुस्तम जमा ने ही दी थी। प्रतापगढ़ के पास एक शामियाने में हुई मुलाक़ात के दौरान जब अफ़ज़ल ने शिवाजी पर हमला किया तो शिवाजी का बघनख काम आया। इसी से वह अफ़ज़ल का वध कर सके, यह सिखाती हो। हमारे स्वराज या लोकतंत्र में दैहिक, दैविक, भौतिक तापा, रामराज्य काहू नहिं व्यापा का संकल्प है। यानी रामराज्य वह है जिसमें कोई शारीरिक व मानसिक कष्ट नहीं पाये। आर्थिक कठिनाइयों से कोई त्रस्त न हो।
भारत के लिए जीना व भारत के लिए मरना, धर्म व कर्म दोनों होना चाहिए। हमारी संस्कृति ज़रूरत से ज़्यादा आकांक्षाओं पर ज़ोर नहीं देना सिखाती है। परंपरा पर कीचड़ न उछालने व आधुनिकीकरण को आँख मूँद को स्वीकार न करने की नसीहत देती है। बिना परिचय के प्रेम नहीं होता। हमें अपनी परंपरा को जानना समझना होगा। हमें यह भूल गया है कि हम जहां खड़े हैं, वह हमसे पहले की पीढ़ी दर पीढ़ी की निरंतर साधना का उपहार है। हमें अपने अतीत से निकट परिचय प्राप्त करना होगा। पूर्वजों की उपलब्धियों पर इतराना होगा। शून्य की खोज आर्यभट्ट ने की थी, कणाद ने परमाणु के बारे में सबसे पहले बताया था, भास्कराचार्य ने सिद्धांत शिरोमणि में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बारे लिखा है।
त्रिकोणमिति की खोज बौद्धायन ने की थी। इस तरह की अनेकानेक उपलब्धियों से परिचित होना होगा। हमने जीवन व प्रकृति के बीच रिश्ते प्रयोगशाला में विकसित नहीं किये। इन सब पर गर्व करना होगा। यह परिचय तो देश से हमारे प्रेम को जोड़ेगा, प्रगाढ़ करेगा। राष्ट्रीय पर्व हमें अंतरावलोकन को बाध्य करते हैं। आज़ादी केवल अधिकारों की माँग करना ही नहीं सिखाती, बल्कि दायित्वों के निर्वहन का भी नाम है। सत्य, अहिंसा व भाईचारे की ख़ातिर निरंतर सक्रियता ही आज़ादी है। हमें अपनी जड़ें अतीत में तलाशनी होगी। भविष्य में उसे पसरने का आयाम देना होगा। नेतृत्व वही करेगा जिसकी नज़र सामने मौजूद चुनौतियों पर होगी, जिसकी जड़ें अतीत और नज़रें भविष्य में होंगी। अतीत पर इतराये बिना स्वर्णिम भविष्य नहीं बन सकता। क्योंकि कहा गया है जो जड़ों से जितना जुड़ेगा, वह उतना ही ऊँचा उड़ेगा। आज़ादी एक ऐसा समय है,जब किसी राष्ट्र की आत्मा को अभिव्यक्ति मिलती है। पचहत्तर साल में इसकी ध्वनि कितनी तेज होनी चाहिए।
अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन कैनेडी ने कहा था -" यह न पूछो कि तुम्हारा देश तुम्हारे लिए क्या कर सकता है, यह खुद से पूछो कि तुम अपने देश के लिए क्या कर सकते हो।" यही सवाल खुद से पूछने का वक्त है। पर इसके लिए ज़मीनी हालात को अभी और बदलने की ज़रूरत है। इस महोत्सव के "अमृत' को दिल में बसाना बिठाना होगा, इसे मात्र एक दिन के लिए नहीं, बल्कि सदा के लिए आत्मा में पिरोना - संजोना होगा ताकि हर पल हमें ये याद रहे, गौरवान्वित करता रहे।