हमारा कानून खुद कैद में है

भारत में ऐसी सरकारें भी बनी हैं, जिनके नेता भारतीय गौरव और वैभव को लौटा लाने के सपने दिखाते रहे लेकिन सत्तारुढ़ होते ही वे उन नौकरशाहों की नौकरी करने लगे, जो अंग्रेजी टकसाल में ढले सिक्के हैं।

Written By :  Dr. Ved Pratap Vaidik
Published By :  Vidushi Mishra
Update:2021-12-30 09:15 IST

भारत को आजाद हुए 75 साल (Azadi Ke 75 Saal) होने को हैं लेकिन जरा हम सोचें कि हमारे जीवन के कौन-कौनसे ऐसे क्षेत्र हैं, जिनमें हम पूरी तरह से आजाद हो गए हैं? हमारे न्याय शासन, प्रशासन, शिक्षा, चिकित्सा, भाषा आदि सभी क्षेत्रों में हमने कुछ प्रगति जरुर की है लेकिन इन सभी क्षेत्रों में अंग्रेजों की गुलामी ज्यों की त्यों बरकरार है। विदेशों से कोई भी उत्तम और आधुनिक साधन और ज्ञान को स्वीकार करने में हमें कोई संकोच नहीं करना चाहिए लेकिन उसकी चकाचौंध में फंसकर अपने पूर्वजों की महान उपलब्धियों को ताक पर रख देना कहां तक ठीक है?

न्याय के क्षेत्र में अंग्रेजी कानून-पद्धति को आज तक किसी भी सरकार ने चुनौती नहीं दी है। भारत में ऐसी सरकारें भी बनी हैं, जिनके नेता भारतीय गौरव और वैभव को लौटा लाने के सपने दिखाते रहे लेकिन सत्तारुढ़ होते ही वे उन नौकरशाहों की नौकरी करने लगे, जो अंग्रेजी टकसाल में ढले सिक्के हैं।

यह थोड़ी प्रसन्नता की बात है कि आजकल हमारे सर्वोच्च न्यायालय के कुछ प्रमुख न्यायाधीश भारतीय न्याय-व्यवस्था को अंग्रेजों की टेढ़ी-मेढ़ी न्यायप्रणाली से मुक्त करने की आवाज उठाने लगे हैं।

भारतीयकरण नितांत आवश्यक

भारत के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमना तो इस बारे में अपने दो-टूक विचार पेश कर ही चुके हैं लेकिन पिछले हफ्ते इसी अदालत के जज एस. अब्दुल नजीर ने जोरदार तर्क और तथ्य पेश करते हुए कहा है कि भारत की न्याय-व्यवस्था से उपनिवेशवादी मानसिकता को यथाशीघ्र विदा किया जाना चाहिए। उसका भारतीयकरण नितांत आवश्यक है।

यह ठीक है कि वर्तमान सरकार ने अंग्रेजों के बनाए हुए कई छोटे- मोटे कानूनों को रद्द करने का अभियान चलाया है लेकिन भारत की मूल कानूनी व्यवस्था आज भी जितना न्याय करती है, उससे ज्यादा अन्याय करती है। करोड़ों मुकदमे बरसों से अदालतों में लटके रहते हैं। वकीलों की फीस बेहिसाब होती है।

अंग्रेजी की बहस और फैसले मुवक्किलों के सिर पर से निकल जाते हैं। भारत में इंसाफ तो जादू-टोना बन गया है। हमारे जज और वकील अपने तर्कों को सिद्ध करने के लिए ब्रिटिश और अमेरिकी नजीरों को पेश करते हैं। हमारे वकीलों और जजों को यह पता नहीं कि दुनिया की सबसे प्राचीन और विशद न्याय-व्यवस्था भारत की ही थी।

कानून की पढ़ाई में अंग्रेजी पर प्रतिबंध

भारत के न्यायशास्त्रियों- मनु, कौटिल्य, कात्यायन, बृहस्पति, नारद, पाराशर, याज्ञवल्क्य आदि को हमारे कानून की कक्षाओं में क्यों नहीं पढ़ाया जाता? यह जरुरी नहीं है कि उनके हर कथन को मान ही लिया जाए।

देश और काल के अनुसार उनका ताल-मेल भी जरुरी है लेकिन इसमें क्या शक हो सकता है कि उनके द्वारा प्रतिपादित न्याय-पद्धति भारतीय मानस, संस्कृति और परंपरा के ज्यादा अनुकूल होगी।

हमारी न्याय-व्यवस्था के भारतीयकरण के लिए यह जरुरी है कि कानून की पढ़ाई में अंग्रेजी पर प्रतिबंध लगे, कानून भारतीय भाषाओं में बनें और अदालत की बहस और फैसले भी स्वभाषा में हों। हमारा कानून खुद कैद में है। उसे मुक्ति कब मिलेगी?


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