Babasaheb Ambedkar: कुछ बात हैं कि हस्ती मिटती नहीं मिटाए..
Babasaheb Ambedkar Untold Story in Hindi: अंबेडकर की उन बाइस प्रतिज्ञाओं पढ़ें। जिसे अंबेडकर ने बौद्ध धर्म ग्रहण करते हुए दिलाई थीं। इन प्रतिज्ञाओं वाली किताब गुजरात सरकार ने अंबेडकर की 125 वीं जयंती के उपलक्ष्य पर कक्षा छह से आठ के बच्चों के बीच बाँटीं थीं।
Babasaheb Ambedkar Untold Story: हमारे देश में महापुरुषों, नामचीनों, प्रेरणा पुरुषों, प्रतीक पुरुषों, ‘भारत रत्नों’ की कोई कमी नहीं। बहुत से देशों में नहीं होती हैं। लेकिन हम दूसरों से अलग हैं सो हमारे यहां जितना ज्यादा महापुरुषों को याद किया जाता है, उन्हें कोट किया जाता है, उन पर लड़ा जाता है, विवाद किया जाता है, उतना शायद किसी भी मुल्क में नहीं किया जाता होगा। यही वजह है कि ये भी अपने व पराये होते रहते हैं। इनके लिए भी स्वहितपोषी खांचे गढ़े जाते हैं। इन खाँचों में उन्हें फिट किया जाता है।
हमारे यहां प्राचीन सम्राटों, स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं और अग्रणी क्रांतिकारियों, दिवंगत प्रधानमंत्रियों, जातिविशेष के नेताओं के जन्मदिवस और मृत्यु दिवस जिस शिद्दत मनाए जाते हैं उसकी सिर्फ दो ही वजहें हैं - एक तो सरकारी तौर पर परंपरा का मशीनी तरीके से निर्वाह और दूसरी वजह पूर्ण रूप से राजनीतिक है, जिसमें नेता, दल और संगठन अपनी दुकान चलाने के लिए महापुरुषों के नामों का परचम लहराए रहते हैं जबकि खुद इन लम्बरबरदारों की सोच, निजी जीवन और आचार विचार में उन महापुरुषों का तिनका मात्र भी नहीं होता।
जनता तो अपने वर्तमान की उलझनों और भविष्य की अनिश्चितताओं में इतनी उलझी हुई है कि व्हाट्सएप और फेसबुक के इतर उसे किसी भी महापुरुष से कोई लेना देना नहीं। पचास साल पहले घरों में शायद गांधी, नेताजी सुभाष इत्यादि की फोटो दीवार पर टँगी दिख जाती थी, लेकिन अब कहीं ढूंढे नहीं मिलेगी।
किसी जमाने में हॉस्टलों के कमरों में स्वामी विवेकानंद, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद आदि की फोटो जरूर ही सम्मानित जगह पाए होती थी। लेकिन अब इनकी जगह फ़िल्मस्टार्स और क्रिकेटरों ने ले ली है। अब ‘आज़ाद’ सिर्फ साल में एक दिन याद किये जाते हैं, अब वो हॉस्टलों के नायक नहीं हैं।
सच्चाई तो यह है कि महापुरुष अब सिर्फ सरकारी दफ्तरों और स्कूलों तक सीमित हो गए हैं। वहीं पर उनकी फोटो नजर आएंगी। लेकिन वहां भी अब पीएम, प्रेसिडेंट, सीएम, गवर्नर के चित्र ज्यादा प्रमुख स्थान पाते हैं। आज सार्वजनिक स्थलों पर, सरकारी होर्डिंगों में, सरकारी विज्ञापनों में पुराने नायकों - महापुरुषों के चित्र नहीं होते। अब प्राथमिकता में ये सब नहीं हैं। उनको घर के बूढ़ों की तरह कोने में या किसी ताक पर सजा दिया गया है। उनकी उपयोगिता खत्म हो चुकी है।
अब जो है वह नए भारत की नई पसंद है, जहां नायकों की परिभाषाएं बदल गई हैं। कौन नायक कितना वोट दिलवा सकता है।किसको गिराने में काम आ सकता है। यह नायक की उपयोगिता बन बैठा है। पर देश की तकरीबन बीस फ़ीसदी जनसंख्या ऐसी है जिनके लिए यह नहीं बदला। जो अपने प्रतीक पुरुष व प्रेरणा पुरुष को ‘नये पैमाने’ या ‘नई कसौटी’ पर नहीं कसते। उन्हें अपने घरों और दिलों में जिलाये हुए हैं। ऐसा किसी भी अन्य शख्सियत के बारे में नहीं कहा जा सकता।
इस शख्स का नाम है डॉ भीमराव अंबेडकर। अंबेडकर 1924 में इंग्लैंड से वापस लौटे। लौटने के बाद वकालत शुरु की। दलित उत्थान के काम को भी हाथ में लिया। उन्होंने दलित उत्थान के काम को अंजाम देने के लिए बहिष्कृत हितकारिणी सभा की शुरुआत की। चमन लाल सीतलवाड को सभा का अध्यक्ष बनाया। आंबेडकर चेयरमैन बने। 1927 में महाड आंदोलन शुरु किया। इसमें चावदार तालाब का पानी दलितों के इस्तेमाल कराने की माँग थी। इस सत्याग्रह के मंच पर महात्मा गांधी की तस्वीर थी। ऐसा इसलिए क्योंकि अंबेडकर अछूतों के लिए काम कर रहे थे। गांधी इसी वर्ग की आवाज़ उठा रहा थे।
14 अगस्त, 1931 को गांधी व अंबेडकर के बीच मुंबई के मणि वन में मुलाक़ात हुई।
शशि थरुर की किताब-अंबेडकर: अ लाइफ में इस मुलाक़ात के बारे में लिखा हैं। अंबेडकर ने कांग्रेस की दलितों के प्रति सहानुभूति को औपचारिक बताया। पर गांधी ने अंबेडकर को मातृभूमि के संघर्ष का महान देश भक्त करार दिया। पर अंबेडकर ने इसका जवाब कुल इस तरह दिया,” मेरी कोई मातृभूमि नहीं हैं। कोई भी स्वाभिमानी अछूत इस भूमि पर गर्व नहीं कर सकता। जहां उनके साथ बिल्लियों ओर कुत्तों से ही बदतर व्यवहार किया जाता हैं।”
1932 में दूसरा गोलमेज सम्मेलन हुआ। जिसमें दलित, मुसलमान, सिख व ईसाई के लिए अलग अलग निर्वाचन की घोषणा की गई। केंद्रीय विधानमंडल में दलितों को लिए 71 सीटें आरक्षित की गई। यह तक किया गया की यहां न केवल दलित उम्मीदवार होंगे, बल्कि केवल दलित की वोट भी देंगे। गांधी को यह पसंद नहीं आया।उन्होंने यरवदा जेल में अनशन शुरु कर दिया।22 सितंबर को अंबेडकर व गांधी की मुलाक़ात जेल में हुई। पर बाद में 147 आरक्षित सीटों के तहत पूना पैक्ट हुआ।
1942 से 1946 तक अंबेडकर वायसराय की काउंसिल में श्रम मंत्री थे। मुंबई से चुनाव लड़े। वह हार गये। जोगेंद्र नाथ मंडल और मुस्लिम लीग के नेता हुसैन शहीद सोहरावर्दी की मदद से खुलना उप चुनाव जीता। विभाजन के बाद खुलना पूर्वी पाकिस्तान में चला गया। भारत में हिंदू पुरुष व महिला को समान अधिकार नहीं थे। पुरुष एक से ज़्यादा शादी कर सकते थे। विधवा दोबारा शादी नहीं कर सकते थी। उसे संपत्ति व तलाक़ का अधिकार नहीं था।
11 अप्रैल 1947 को संविधान सभा के सामने अंबेडकर ने हिंदू कोड बिल पेश किया। जिसमें संपत्ति, विवाह, तलाक़, उत्तराधिकार आदि से जुड़े क़ानून थे।नेहरु ने इसका समर्थन किया पर बिल 9 अप्रैल, 1948 को सलेक्ट कमेटी को भेज दिया गया। 1951 में यह बिल संसद में पेश किया गया। बिल का जनसंघ व कांग्रेस का एक हिन्दुवादी धड़ा विरोध कर रहा था।
विरोध करने वालों का तर्क था-
1- संसद के सदस्य जनता से चुने हुए नहीं हैं।
2- इन क़ानूनों को केवल हिंदू पर ही नहीं सभी पर लागू होना चाहिए । यानी आज के समान नागरिक संहिता। इस बिल के पास न हो पाने के चलते अंबेडकर ने इस्तीफ़ा दे दिया।
1951 में लोकसभा चुनाव हुए। अंबेडकर उत्तरी मुंबई से अपनी शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के टिकट पर चुनाव लड़े। इस निर्वाचन क्षेत्र से दो सदस्यों का चयन होना था। कांग्रेस ने नारायण काजरोलकर को उतारा। तकरीबन पंद्रह हज़ार वोटों से काजरोलकर ने अंबेडकर को हरा दिया।
भाजपा इसे ही कह रही है कि अंबेडकर को कांग्रेस ने हराया। भाजपा के इस आरोप की पड़ताल करते हुए कई और सवालों का जवाब ज़रूरी है-
पहला, क्या कांग्रेस को दूसरी पार्टी से चुनाव लड़ रहे उम्मीदवार को जीताना चाहिए । ऐसा कई राजनितिक दल करता है क्या?
दूसरे, इस चुनाव के समय एस के पाटिल मुंबई कांग्रेस अध्यक्ष थे । उन्होंने चुनाव से पहले यह ऐलान किया कि अगर अंबेडकर मुंबई से चुनाव लड़ते हैं तो कांग्रेस उनके खिलाफ उम्मीदवार नहीं उतारेगी।
पर अंबेडकर की शेड्यूल कास्ट फेडरेशन का समाजवादियों के साथ गठबंधन हो गया। इसे लेकर पाटिल नाराज़ हुए। उन्होंने कांग्रेस उम्मीदवार अंबेडकर को खिलाफ उतार दिया। यही नहीं, अंबेडकर की हार की वजह कांग्रेस से ज़्यादा कम्युनिस्ट थे। कम्युनिस्टों ने अंबेडकर के खिलाफ वोट करने की अपील की। इसका फ़ायदा कांग्रेस उम्मीदवार को मिल गया। वह जीत गये।
बाद में अंबेडकर मुंबई प्रांत से राज्यसभा में चले गये। दो साल बाद भंडारा में हुए उप चुनाव में भी अंबेडकर को कांग्रेस उम्मीदवार से शिकस्त खानी पड़ी। अंबेडकर ने अमरीकी व ब्रिटेन दोनों देशों में उच्च शिक्षा पाई। विदेशी विश्वविद्यालय से पीएचडी करने वालो पहले भारतीय थे। अंबेडकर साइमन कमीशन के एकमात्र भारतीय सदस्य थे।संघ के विचारक दत्तोपंत ठेंगडी अंबेडकर के करीबी थे। उनके चुनाव एजेंट भी रहे। उन्होंने डॉ अंबेडकर पर एक किताब भी लिखी। डॉ कृष्ण गोपाल जी ने भी अंबेडकर पर किताब लिखी है।
अंबेडकर की उन बाइस प्रतिज्ञाओं पढ़ें। जिसे अंबेडकर ने बौद्ध धर्म ग्रहण करते हुए दिलाई थीं। इन प्रतिज्ञाओं वाली किताब गुजरात सरकार ने अंबेडकर की 125 वीं जयंती के उपलक्ष्य पर कक्षा छह से आठ के बच्चों के बीच बाँटीं थीं। किताब का शीर्षक था- राष्ट्रीय महापुरुष भारत रत्न डॉ बी आर अंबेडकर । अहमदाबाद के सूर्य प्रकाशन ने तकरीबन चार लाख प्रतियां छापी थीं।इसे हिंदू विरोधी सामग्री कह कर वापस लेना पड़ा। इसे दलित चिंतक पी.ए.परमार ने गुजराती में लिखी थी। इसी के साथ संघ से जुड़े दीनानाथ बत्रा की किताब भी बाँटी गयी थी।
अंबेडकर संविधान सभा में दोबारा गांधी जी की इच्छा से गये।गांधी जी ने वल्लभ भाई पटेल और राजेंद्र प्रसाद को बुलाकर रहा कि मुझे हैं हाल में अंबेडकर संविधान सभा में चाहिए ।कांग्रेस ने मुंबई के अपने नेता एक आर जयकर को इस्तीफ़ा दिलवाया। उस सीट से अंबेडकर को लड़वा कर सदन में भेजा।इसके बाद उन्होंने संविधान निर्माण का योगदान किया।
आज के भारत में अंबेडकर करोड़ों भारतीयों के लिए भगवान हैं। ओबीसी/दलित/आदिवासी आरक्षण की जड़ें गहरी होने के साथ, अंबेडकर की छवि हर उस दलित/शूद्र/आदिवासी के घर में है, चाहे उसे आरक्षण का फायदा मिला हो या न मिला हो। यहां तक कि आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों के लिए आरक्षण भी बाबा साहेब की विचारधारा की वजह से है, यह सच माना जाता है। गांव गांव में अंबेडकर की मूर्तियों की स्थापना की कुछ तो वजह है, जिसने पोलीटिकल सिस्टम को हिलाकर रख दिया है।लोगों को अंबेडकर की सामाजिक-आध्यात्मिक छवि को कम करने के लिए कई रणनीतियां बनानी पड़ी हैं।
हालाँकि अम्बेडकर को सिर्फ आरक्षण तक सीमित कर देना उनके साथ अन्याय होगा। ठीक उसी तरह जिस तरह उन्हें संविधान के साथ सीमित कर दिया गया है। अम्बेडकर नेहरू सरकार द्वारा बनाई गई सात सदस्यीय संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष थे। संविधान के निर्माण में 299 सदस्यों वाली संविधान सभा भी शामिल थी जिस ने 1946 से 1949 के बीच तीन वर्षों तक उथल-पुथल भरे समय में काम किया था।
हमारे संविधान को भले ही लम्बी लम्बी बहसों, बैठकों के बाद बनाया गया था। लेकिन सच्चाई यह है कि हमारा संविधान बहुत मौलिक कतई नहीं है। इसे तमाम देशों के संविधानों और वहां की प्रचलित परंपराओं को जोड़ गांठ कर तैयार किया गया था।
बतौर संविधान ड्राफ्ट कमेटी के अध्यक्ष डॉ अंबेडकर का नाम तो सबको याद है। लेकिन बाकी छह लोगों के नाम की तो कोई चर्चा नहीं होती, वो सब गुमनामी में ही बने हुये हैं। डॉ अम्बेडकर ने खुद 24 नवम्बर,1949 को संविधान सभा सम्पन्न होने पर अपने संबोधन में खासतौर पर संविधान कमेटी के चीफ ड्राफ्ट्समैन एस.एन. मुखर्जी और संवैधानिक सलाहकार बी.एन.राउ का नाम लेकर उनके योगदान को क्रेडिट दिया था।
संविधान ड्राफ्ट कमेटी की अध्यक्षता तो अंबेडकर के बहुआयामी व्यक्तित्व का एक हिस्सा भर था। उनके विचार और उनका प्रभाव इससे आगे बहुत व्यापक रहा है। उनको सिर्फ संविधान और आरक्षण तक सीमित कर देना उनके साथ अन्याय होगा। वह तो एक सोशल रिफॉर्मर थे। नारी पुरुष समानता के वह प्रबल पैरोकार थे। उन्होंने हाशिये पर पड़े समुदायों के लिए लड़ाइयां लड़ीं, हमारे समाज की जातिगत कुरूपता को खत्म करने के लिए जतन किये, भारतीय समाज की बुराइयों के खिलाफ संघर्ष किया। डॉ अम्बेडकर के लेख, उनके भाषण, उनकी लिखी किताबें आज भी प्रासंगिक हैं, आज भी शोध का विषय हैं। अम्बेडकर ने अर्थव्यवस्था, कश्मीर, विदेश नीति, रोजगार वगैरह पर स्पष्ट राय रखी थीं। लेकिन आज अंबेडकर के उन विचारों की चर्चा तक नहीं होती।
अंबेडकर को केवल दलितों के साथ जोड़ कर छोड़ दिया गया है। मान लिया गया है कि अंबेडकर जिसके पाले में होंगे, दलित वोट का वही दावेदार होगा। जबकि अंबेडकर ने जो कुछ किया वह केवल दलितों के लिए। सभी देशवासियों के लिए, मानवता के लिए किया। हद तो यह हो गयी है कि हर राजनीतिक दल और नेता अंबेडकर हमारे हैं, अंबेडकर के साथ दूसरे सत्ताधारियों ने अन्याय किया , यह बताने व जताने में लगा है। पर सही यह है कि अंबेडकर के लिए विश्वनाथ प्रताप सिंह व कांशीराम ने ही काम किया। यह ज़रूर है कि संघ के दत्तोपंत ठेंगडी अंबेडकर के चुनाव एजेंट रहे। उन पर किताब लिखी। लेकिन इनके अलावा जो भी अंबेडकर के लिए कुछ करते हुए दिख रहे हैं, उसके पीछे उनके अपने हित साधने की रीति नीति है।
शायद यही वजह है कि दुखद ही है कि भारतीय समाज वहीं और उसी स्थिति में है जैसा अंबेडकर छोड़ कर गए थे। वजहें वही हैं जिनसे बाद के वर्षों में अम्बेडकर का आज़ाद भारत की व्यवस्थाओं और यहां तक की भारत में लोकतंत्र से मोहभंग हो गया था।अफसोसनाक है कि आज भी हम उन्हीं व्यवस्थाओं में उलझा कर रखे गए हैं जिनसे आज़ादी पाने की लड़ाई अंबेडकर ने लड़ी थी। अफसोसनाक यह भी है कि जिनका काम अंबेडकर के विचारों को आगे बढ़ाना होना चाहिए था, उन्होंने अंबेडकर को सिर्फ वोट पाने के टूल तक सीमित कर दिया है।
अफ़सोसनाक यह है कि इस खेल में हम सिर्फ दर्शक ही बने हुए हैं। हमारे लिए अम्बेडकर सबके नहीं हैं बल्कि एक अलग वर्ग के हैं। जबकि सच्चाई यह है कि अम्बेडकर का कद मार्टिन लूथर किंग और नेल्सन मंडेला जैसी शख्सियतों से ऊंचा है। अब वक्त है कि कितना ही अच्छा हो कि अम्बेडकर को नीले रंग और वर्ग विशेष के सीमित दायरे से आज़ाद करें, उन्हें समझें और आगे बढ़ें।
(लेखक पत्रकार हैं।)