Bharat Ratna: ताकि कोई कमी न रहे भारत के रत्न तलाशने में
Bharat Ratna: ऐसा काम जो पीढ़ियों तक की दिशा और दशा को किसी रास्ते पर उत्तरोत्तर आगे ले जाते हैं।
Bharat Ratna: बदलाव प्रकृति का नियम है । लेकिन हर कालखंड में, हर राष्ट्र और समाज में बदलाव अपने आप नहीं आते, उसे लोग ही लाते हैं। लेकिन सब नहीं, बल्कि कुछ ही लोग अपनी सोच, अपने कार्यों, निर्णयों से क्रांतिकारी बदलाव लाते हैं। इसीलिए इन्हें नायक/नायिका कहा जाता है। इन्होंने ऐसा कुछ कर दिया होता है जो युगों तक याद किया जाता है। ऐसा काम जो पीढ़ियों तक की दिशा और दशा को किसी रास्ते पर उत्तरोत्तर आगे ले जाते हैं। इन्हीं नायकों को हर कालखंड में, हर राष्ट्र और समाज में सम्मानित किया जाता रहा है, उन्हें मान्यता दी जाती रही है। अमेरिका का प्रेसिडेंशियल मेडल ऑफ़ फ्रीडम, यूनाइटेड किंगडम का आर्डर ऑफ़ गार्टर, रूस में हीरो ऑफ़ रशियन फेडरेशन, पाकिस्तान में निशान ए पाकिस्तान इत्यादि। हर देश में नागरिकों को सम्मानित करने की परम्परा रही है। भारत में भारत रत्न देने का रिवाज़ है। 1954 से भारत रत्न सम्मान देने की शुरुआत हुई और अब तक 53 विभूतियों का सम्मान किया जा चुका है। 71 वर्ष में 53, साल में औसतन एक भी नहीं। वहीँ अमेरिका में 1963 में स्थापित सर्वोच्च नागरिक सम्मान को 647 लोगों को दिया जा चुका है।
यह कहने में गुरेज़ नहीं होना चाहिए कि भारत में नागरिक सम्मान देने में थोड़ी कंजूसी की जाती रही है। ये तो कहिये कि 2014 में केंद्रीय सत्ता परिवर्तन के बाद से आम और गुमनाम जनों में से ढूंढ कर नायकों को सम्मानित किया जाने लगा है वरना पहले तो आम आदमी की कोई पूछ ही नहीं थी। फिर भी एक बात महत्वपूर्ण है। आज भी आम नायक/नायिका पद्मश्री सम्मान तक ही अमूमन सीमित हैं। उन्हें पद्म भूषण, पद्म विभूषण और भारत रत्न का तक लंबा सफ़र तय करना बाकी है। शीर्ष के तीन नागरिक पुरस्कार और सम्मान अभी काफी हद तक ख़ास ब्रैकेट में ही हैं । उन्हें आजाद होना बाकी है। ऐसा नहीं कि आमजन पद्मश्री से ऊपर के लायक नहीं होते लेकिन अभी उन्हें उस पायदान पर लाया नहीं गया है। अभी तो उन्हें सिर्फ पद्मश्री क्लब में ही एंट्री मिल पाई है। कुल 3225 जनों को पद्मश्री मिला है जबकि 1287 को पद्म भूषण तथा 336 को पद्म विभूषण दिया गया है। भारत रत्न तो सिर्फ 53 विभूतियों को ही मिला है।
भारत रत्न को देखने तो पाएंगे कि जितनों को यह सम्मान दिया गया उनमें से आधे के करीब तो पॉलिटिक्स से जुड़ी शख्सियतें ही हैं। यथा, सी राजगोपालाचारी, जवाहरलाल नेहरू, गोविंद वल्लभ पन्त, बिधान चन्द्र राय, पुषोत्तम दास टण्डन, राजेन्द्र प्रसाद, ज़ाकिर हुसैन, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, कामराज, एमजी रामचंद्रन, राजीव गांधी, मोरारजी देसाई, अबुल कलाम आजाद, गुलजारी लाल नन्दा, सी सुब्रमण्यम, जी बोरदोलोई, अटल बिहारी वाजपेयी, प्रणव मुखर्जी, नाना जी देशमुख, कर्पूरी ठाकुर, लाल आडवाणी, चौधरी चरण सिंह और पीवी नरसिम्हा राव।
इनके अलावा राधाकृष्णन, सीवी रमन, भगवान दास, जी विश्वेरैया, डीके कर्वे, पीवी काणे, मदर टेरेसा, विनोबा भावे, जेआरडी टाटा, सत्यजीत रे, अरुणा आसफ अली, एपीजे अब्दुल कलाम, एमएस शुभलक्ष्मी, जयप्रकाश नारायण, अमर्त्य सेन, रवि शंकर, लता मंगेशकर, बिस्मिल्ला खान, भीमसेन जोशी, सीएनआर राव, सचिन तेंदुलकर, मदन मोहन मालवीय, भूपेन हजारिका, एम एस स्वामीनाथन, अब्दुल गफ्फार खान, विवि गिरी, डॉ अम्बेडकर, नेल्सन मंडेला, वल्लभभाई पटेल को सम्मानित किया जा चुका है।
एक बात यह भी महत्वपूर्ण है कि चाहे लाल बहादुर शास्त्री हों, पीवी नरसिम्हा राव हों या चौधरी चरण सिंह, डॉ आंबेडकर हों या गोपीनाथ बोरदोलोई या भूपेन हजारिका या एमएस स्वामीनाथन – सबको उनके निधन के बरसों बरस बाद भारत रत्न अवार्ड से नवाज़ा गया। ऐसे रत्नों को उनके जीवन काल में तो पहचाना नहीं गया और मृत्यु के भी दशकों गुजर जाने के बाद सुधि आयी कि उन्हें सम्मान दिया जाना चाहिए, ये बात समझ से परे है। क्या हम अच्छे काम को पहचानने में इतने कमजोर हैं, इतने असमंजस में हैं या इतने अनिश्चित हैं कि बरसों लगा देते हैं? क्या राष्ट्र और समाज निर्माण से बढ़ कर भी कोई चीज होती है, जिनका ख्याल नागरिक सम्मान की लिस्ट बनाते वक्त रखा जाता है? इतने विलम्ब में बहुत से अच्छे काम भी अपनी प्रासंगिकता खो देते हैं। और अनेक अच्छे समसामयिक काम अपनी मान्यता को तरस जाते हैं।
सवाल वाजिब हैं कि गर सचिन तेंदुलकर को इतनी कम उम्र में भारत रत्न दिया जा सकता है तो पीवी नरसिम्हा राव की याद उनके निधन के बीस साल बाद क्यों आती है? सचिन तेंदुलकर जी को अवश्य ही भारत रत्न दिया जाना चाहिए लेकिन हॉकी के जादूगर कहे जाने वाले मेजर ध्यानचंद और बाबू के डी सिंह को क्यों नहीं? इस तरह की तुलनाएं बहुत की जा सकती हैं लेकिन इनमें नहीं जाना ही बेहतर होगा। क्योंकि इस कोटि में वीर सावरकर, पंडित दीन दयाल उपाध्याय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, डॉ राम मनोहर लोहिया, रतन टाटा आदि कई नाम हैं।
लेकिन यह सही है कि हमारे नागरिक सम्मानों ने जनता की ओर रुख़ किया है। पर इस बदलाव की शुरुआत की श्रेय का एक हिस्सा राजनाथ सिंह को भी दिया जाना चाहिए क्योंकि इसकी शुरुआत उनके गृहमंत्री रहते हुई थी। इन नागरिक सम्मानों का सीधा रिश्ता केंद्रीय गृह मंत्रालय से है। 1954 में ये सम्मान केवल जीवित रहते दिया जाता था, लेकिन 1955 में मरणोपरांत भी भारत रत्न दिये जाने का प्रावधान जोड़ा गया। इसके लिए प्रधानमंत्री राष्ट्रपति को सिफ़ारिश भेजते हैं। इसे पाने वालों को सरकारी महकमे सुविधाएं मुहैया कराते हैं। उदाहरण के लिए भारत रत्न पाने वालों को रेलवे की ओर से मुफ़्त यात्रा की सुविधा मिलती है। भारत रत्न पाने वालों को अहम सरकारी कार्यक्रमों में शामिल होने के लिए न्योता मिलता है। सरकार वॉरंट ऑफ़ प्रेसिडेंस में उन्हें जगह देती है। जिन्हें भारत रत्न मिलता है उन्हें प्रोटोकॉल में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल, पूर्व राष्ट्रपति, उपप्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश, लोकसभा अध्यक्ष, कैबिनेट मंत्री, मुख्यमंत्री, पूर्व प्रधानमंत्री और संसद के दोनों सदनों में विपक्ष के नेता के बाद जगह मिलती है। वॉरंट ऑफ़ प्रेसिडेंस का इस्तेमाल सरकारी कार्यक्रमों में वरीयता देने के लिए होता है। राज्य सरकारें भारत रत्न पाने वाली हस्तियों को अपने राज्यों में सुविधाएं उपलब्ध कराती हैं। इस सम्मान को अपने नाम से पहले या बाद में जोड़ा नहीं जा सकता. हालांकि, इसे पाने वाले अपने बायोडेटा, लेटरहेड या विज़िटिंग कार्ड जैसी जगहों पर ये लिख सकते हैं- 'राष्ट्रपति द्वारा भारत रत्न से सम्मानित' या 'भारत रत्न प्राप्तकर्ता।'
सन 1954 में हमारी जनसंख्या करीब 39 करोड़ थी और अब 140 करोड़ है। अब तक मात्र 4901 पद्म और रत्न ही तलाशे गए हैं। आबादी की तुलना में ये बेहद छोड़ा आंकड़ा है, लगभग नगण्य ही समझिये। कहीं ऐसा तो नहीं सोचा जाता कि ज्यादा लोगों को सम्मान देने से उस सम्मान की गरिमा और हैसियत घट जायेगी? या फिर हमारे बीच काबिल पद्म और रत्न ही नहीं हैं? या फिर ज्यादा सम्मान देने से "वर्ग अन्तर" ख़त्म होने का डर है?
बदलाव के बारे में सोचना ही बड़ी बात होती है। बदलाव ही राष्ट्र जो आगे ले जाते हैं। जो हो चुका है उससे अब आगे बढ़ने का समय है, क्यों नहीं हम नागरिक सम्मानों की प्रक्रिया-व्यवस्था को पारदर्शी तथा जन भागीदारी वाली बनाने के बारे में सोचें। एक ऐसा सिस्टम बनायें जिसमें तनिक भी पॉलिटिक्स की गुंजाइश न रहे ताकि कोई ये सोच सके कि कुछ मतलब जरूर रहा होगा तभी बदले बदले से सरकार नज़र आते हैं।
( लेखक पत्रकार हैं ।)