राजा मान सिंह फर्जी मुठभेड़ः खबर थी सजीव, बेरुखी से दफन हो गयी
मेरी अवधारणा है कि समाचार एक रबड़ के गेंद जैसा है। जितना दबाओगे, ज्यादा उछ्लेगी। मुझे गर्व हुआ कि मेरी बात सुरक्षा वालों को नीक लगी। संपादक वर्गीज, न्यायमूर्ति सरकारिया और पुलिस बल तीनों ने मुझे प्रशंसा का पात्र समझा।
के. विक्रम राव
यह पोस्ट भाषाई पत्रकारिता में चन्द कार्यरत मगर स्फूर्तिहीन मित्रों के चलताऊपन पर है। मानो कोविड-19 कीटाणु ने रिपोर्टिंग की भी सांस घोट दी हो। एक अत्यंत पठनीय, गमनीय, मानव-सुलभ रूचि से लबरेज और विधि- विधान से जुड़े खबरिया हादसे पर एक ढीली-ढाली रिपोर्टिंग और एडिटिंग की बाबत यह है। बेहतर प्रस्तुतीकरण का प्रयास किया जा सकता था।
समूची प्रकाशित खबर ही नीरस, निस्वाद, फीकी, मीठी और सीठी बना दी जाय। अमूमन अंग्रेजी के रिपोर्टर ज्यादा सावधानी बरतते हैं। वरिष्ठों का दबाव जो रहता है। मगर वे भी इस बार चूक गए। बहाना हो सकता है कि घटना 1985 की थी जो कई संवाददाताओं के जन्म से वर्षों पूर्व की थी। जानकारी का अभाव हो सकता है।
मेरे कुछ सवाल
अर्थात मेरे इस लेख का मूलाधार यही है कि मीडिया कार्यालयों में सन्दर्भ शाखा का संपन्न न होना, प्रबंधक की अक्षमता है। भुगतता पत्रकार है।
पत्रकार कहाँ सामग्री खोज सकें ?
अधकचरी रपट को प्रांजल बना सकें?
गूगल भी आधा-अधूरा ही है।
मामला है ये
मामला यह है कि फ़रवरी 1985 में भरतपुर रियासत के राजा मानसिंह (तब 64 वर्ष के थे) और उनके दो साथियों को राजस्थान पुलिस वालों ने इनकाउंटर में मार डाला था| यह खबर 21 फ़रवरी 1985 में पूरे भारत को दहला गयी थी।
तब घटनास्थल (भरतपुर जनपद, राजस्थान) से डेढ़ हजार किलोमीटर दूर हैदराबाद (आँध्रप्रदेश) के तेलुगु दैनिकों ने इसे प्रमुखता से, विस्तार से छापा था। पाठकों की दिलचस्पी भी बढ़ी थी। वहीँ मैंने भी पढ़ी थी। राजस्थान विधानसभा के निर्दलीय सदस्य राजा मानसिंह की निर्मम हत्या हुई थी।
सात बार वे विधायक रहे। तीन दशकों से भी अधिक। इंदिरा गाँधी (1980) की जबरदस्त लहर में भी उन्होंने अपनी सीट कांग्रेसी प्रत्याशियों को आसानी से हराकर बरक़रार रखी। उनकी हत्या भी 1985 चुनाव अभियान के दौरान ही हुई थी।
क्या था विवाद
विवाद अत्यंत साधारण था| उनके पोस्टरों को कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने फाड़ डाला था| दूसरे दिन राजस्थान के कांग्रेसी मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर की चुनाव सभा हुई। राजा मानसिंह ने आक्रोश में अपनी जोंगा जीप को कांग्रेस के मंच से भेड़ दिया। मुख्यमंत्री के खाली हेलीकाप्टर को भी टक्कर दे दी। क्षति हुई।
बस फिर क्या होना था? कुछ घंटों के बाद 15 सिपाहियों और एक पुलिस उपाधीक्षक ने घेरकर राजा मानसिंह और दो अन्य को भून डाला। परिवारवालों का कहना था कि राजा मानसिंह थाने गए थे, सरेंडर करने। पुलिस का कथन था कि उन्हें गिरफ्तार करने गए सिपाहियों पर राजा ने गोली चलाई। मुठभेड़ में राजा मानसिंह मारे गए।
असली बात गायब
इस घटना की कहानी इतनी ही ज्यादा संक्षेप में आज (22 जुलाई 2020) सब जगह छपी है। घटना से जुड़े तथ्यों को पेश ही नहीं किया गया। रपट लटकी, झूलती-सी लगी। एक रिपोर्टर के नाते हैदराबाद (टाइम्स ऑफ़ इंडिया) में उस वक्त मैं कार्यरत था, अतः वाकयात को काफी जान चुका था।
आज स्मृति में वे सब उभर आये। इसीलिए मुझे सभी अख़बारों में प्रकाशित न्यायिक फैसले वाली रपट बड़ी फीकी लगी। एक शब्द में, सिर्फ अधकचरी। आदतन मैं रोज सत्ताईस दैनिक (तीन भाषाओँ में) पढ़ता हूँ। टीवी चैनल देखना, सो अलग।
तर्क और तथ्य
अब मेरा भी तर्क और तथ्य जानिये, जो आज आम मीडिया से नदारद थे। नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने इस घटना के तुरंत बाद शिवचरण माथुर का मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र ले लिया। यह बात आज के अंग्रेजी दैनिक (हिन्दू) के अग्रलेख (छठे पृष्ठ) पर उल्लिखित है।
संपादक ने न्यायप्रक्रिया की मंथर गति की भर्त्सना की। दैनिक हिंदुस्तान ने भी संक्षेप में छापा है। सभी ग्यारह अभियुक्त (आजीवन सजा पाने वाले) साठ पार कर चुके हैं। मुख्य अभियुक्त डीवाईएसपी कान सिंह भाटी तो 82 वर्ष के हो गए हैं।
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इंदिरा गाँधी की हत्या से उपजी संवेदना की लहर से 1984 में अपार संसदीय बहुमत पाकर राजीव गाँधी ने नई पारी शुरू की थी। तत्काल उन्होंने सीबीआई जांच के आदेश दे डाले थे। वर्ना राजस्थान पुलिस अपने दोषी साथियों को बचाने में लीपापोती करती।
(यूपी के विकास दुबे के एनकाउन्टर के परिवेश में यह सामयिक लगती है)। स्वयं सीबीआई ने बताया कि हत्यारे पुलिसवालों ने साक्ष्य में हेराफेरी, फरेब तथा जालसाजी की थी।
राजीव गाँधी के इस त्वरित निर्णय से उनकी छवि ज्यादा धवल हो गयी। तब तक प्रधानमंत्री और उनके रक्षामंत्री (विश्वनाथ प्रताप सिंह) में प्रतिस्पर्धा शुरू नहीं हुई थी कि “किसकी कमीज ज्यादा सफ़ेद है?” रिन का कमाल हुआ नहीं था।
हालाँकि बोफोर्स होने तक राजीव एकदम श्वेत परिधान के माफिक निष्कलंक थे। प्रधानमंत्री ने शिवचरण माथुर को ऐसी ही पुलिसिया ज्यादती पर बर्खास्त कर सारे प्रदेशों को चेतावनी दे दी थी कि पुलिस को सुधारो। कानून का राज लाओ।
दो पत्रकारी घटनाएं
इसी पैंतीस साल पुरानी घटना और उसपर आज की प्रकाशित रपट के परिवेश में दो पत्रकारी घटनाएँ मुझे अपने जीवन से याद आ गयीं। आजाद भारत में तब तक का घोरतम हिन्दू-मुस्लिम दंगा गुजरात में सितम्बर 1969 में हुआ था।
अहमदाबाद के मुस्लिम-बहुल क्षेत्र कालूपुर के निकट जगन्नाथ मंदिर में गोधुली पर लौटती गायें वहीं उर्स की भीड़ में घुस गयीं। नतीजन पूरा गुजरात दंगाग्रस्त हो गया था| तब प्रदेश के आला पुलिस अधिकारियों ने हम पत्रकारों को साफगोई से बताया था कि मरने वालों की संख्या पांच सौ पार गयी है। यदि यह छपेगी तो दंगे भड़केंगे। सारे पत्रकारों ने तय किया कि न तो मृतकों की संख्या, न उनके धर्म, न कोई अफवाह ही छापेंगे। शांति प्रक्रिया तेज हो गई।
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दूसरी घटना है कश्मीर की। भारतीय प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष न्यायमूर्ति राजेंद्र सिंह सरकारिया ने प्रतिष्ठित संपादक बीजी वर्गीज तथा मुझे मिलाकर दो-सदस्यीय दल कश्मीर घाटी में जांच हेतु भेजा। वहां स्वर्गीय वेद मारवाह, IPS, उच्च पद पर थे। उन्होंने अखबारी अफवाहों से हो रही हानि का उल्लेख किया। उसी दिन श्रीनगर में खबर फैली कि कुपवाड़ा में दो सौ लाशें पड़ी हैं। पुलिस ने नागरिकों को मार गिराया है।
मेरे सुझाव पर कश्मीर पुलिस ने स्थानीय संवाददाताओं को सूचित किया कि हेलीकाप्टर उपलब्ध कराया जायेगा। अतः जो जाना चाहे, घटनास्थल पर जाकर जांच पड़ताल कर ले। कोई भी पत्रकार नहीं गया। अफवाह तो खबर बन ही नहीं पायी।
मेरी अवधारणा है कि समाचार एक रबड़ के गेंद जैसा है। जितना दबाओगे, ज्यादा उछ्लेगी। मुझे गर्व हुआ कि मेरी बात सुरक्षा वालों को नीक लगी। संपादक वर्गीज, न्यायमूर्ति सरकारिया और पुलिस बल तीनों ने मुझे प्रशंसा का पात्र समझा।