चरमराती स्वास्थ्य सेवाएं, स्वास्थ्य पर सिकुड़ता बजट, स्वास्थ्यकर्मियों और मरीज के परिजनों के बीच आये दिन इलाज को लेकर मारपीट रोज समाचार पत्रों की सुर्खियां बनती हैं। मेरी राय में इन हालातों के लिए जनता ज्यादा दोषी है। चुनाव में वह शिक्षा, बेरोजगारी, रोटी, आवास और स्वास्थ्य को मुद्दा न बनाकर नेताओं द्वारा दिए मुद्दों में उलझकर वोट देकर सरकार बनवा देती है। गरीब जनता के पास रह जाता है केवल कभी भूख से मरना तो कभी इलाज के अभाव में मरना। कोई बड़ा हादसा होता है तो जांच कमेटी बनती है सुधार के सुझाव दिए जाते हैं। चंद रुपयों से उनके आंसू पोछे जाते हैं। सिस्टम चलता रहता है लोग मरते रहते हैं, मीडिया टीआरपी बढ़ाता रहता है। राजनेता जाते हैं, घडिय़ाली आंसू बहा कर चले जाते हैं। कोई यह समझने की कोशिश नहीं करता जो योजनाएं संचालित हो रही है वह कितना प्रभावी हैं।
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अगर हम अस्पतालों की अंदरूनी हालात को देखें तो हालात रोंगटे खड़े करने वाले है। गलियारे में पड़े मरीज, स्ट्रेचर के अभाव में गोद में उठा कर लाए जाते मरीज, डॉक्टरों के कमरे के बाहर लंबी-लंबी कतारें। दर्द से तड़पते मरीज, एक सिरे से दूसरे सिरे तक दौड़ते उनके परिजन। मरीज को देखने की विनती करते रोते गिड़गिड़ाते लोग। काम के बोझ के तले संवेदनहीन बन गए डॉक्टर, सरकारी नौकरी की तरह काम करने वाले कर्मचारी। ये हाल है सरकारी स्वास्थ्य सेवा का।
अगर यूपी की राजधानी लखनऊ की स्वास्थ्य सेवाओं का हाल लें तो तो वह व्यथित करने वाला है। प्रदेश भर से इकलौते ट्रॉमा सेंटर में चौबीसों घंटें मरीजों का तांता लगा रहता है। एक अन्य ट्रॉमा सेंटर बन कर खड़ा है लेकिन मेडिकल यूनीवर्सिटी की राजनीति में ये अभी तक शुरू ही नहीं हो पाया है। गोरखपुर मंडल में एक भी ट्रॉमा सेंटर नहीं है लिहाजा बीएचयू के एक ट्रॉमा सेंटर पर मंडल के दस जिलों का बोझ है। ऐसे में आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि किस तरह की क्वालिटी का इलाज लोगों को मिल रहा है।
लखनऊ की बात करें तो सरकारी बलरामपुर अस्पताल, केजीएमयू, लोहिया संस्थान के रेफरल हॉस्पिटल और सिविल हॉस्पिटल में वेंटीलेटर डिब्बों में कैद हैं। अधिकतर अस्पतालों में हेड इंजरी का इलाज ही नहीं है। राजधानी में यह सुविधा केवल केजीएमयू,एसजीपीजीआई, लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान में है। जनपद के किसी भी जिले में न न्यूरोसर्जन है न न्यूरो के डॉक्टर हैं। यहां तक कि निजी अस्पतालों में भी ये सुविधा नहीं है।
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अब पूरे देश की स्वास्थ्य सेवाओं के स्वास्थ्य को आंकड़ों के शीशे से परखने कि कोशिश करते हैं। यूनाइटेड नेशन और वल्र्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार स्वास्थ्य सेवाओं में भारत 116 वें स्थान पर है। हमसे आगे भूटान ,म्यामांर, और श्री लंका हैं। भारत में 7,30,000 मासूम जन्म लेने के एक महीने के अंदर ही मेडिकल सुविधा के अभाव में मर जाते हैं। 10,50,000 बच्चे एक वर्ष से 5 वर्ष के अंदर मर जाते हैं। 40 फीसदी कुपोषित 5वर्ष की उम्र भी पूरी नहीं कर पाते। 15लाख मासूम डायरिया व प्रदूषित पानी के सेवन से मर जाते हैं।
शिक्षा, कुपोषण ,स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव में हमारा देश नीचे से 10वें पायदान पर है। यह भयावह तस्वीर, क्या हमारे सत्ताधीशो को नहीं डराती? जबकि सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ तौर पर कहा है कि मेडिकल सुविधा आम आदमी का मौलिक अधिकार है। लेकिन अस्पताल न्यूनतम सुविधा भी देने की स्थिति में नहीं हैं। स्वास्थ्य के प्रति सरकारी चिंता का हाल ये है कि 20१५ में भारत की कुल जीडीपी का मात्र ३.८९ फीसदी हेल्थ सेक्टर पर खर्च किया गया। ये सरकारी और निजी सेक्टर का कुल खर्च था। दूसरी ओर अमेरिका ने १७.९ फीसदी खर्च किया। ये बताता है कि हमारी प्राथमिकताएं क्या हैं।
सवाल यह उठता है कि ऐसी परिस्थितियां कैसे बन गईं। देश 130 करोड़ लोगों का है लेकिन सियासत 15-20 करोड़ के लिए ही होती है और सिस्टम चुनिंदा लोगों के माफिक ही क्रियाशील है। वल्र्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन और ङ्क्षडियन मेडिकल एसोसिएशन के आंकड़े बताते हैं कि भारत में प्रति 1700 मरीजों पर मात्र एक डॉक्टर और 6 लाख की आबादी पर एक अस्पताल तथा 1833 मरीज पर एक बेड। आईएमए में करीब 10 लाख 26 हजार डॉक्टर पंजीकृत हैं। जिसका केवल 10 फीसदी यानी 1लाख 5हजार डॉक्टर ही सरकारी अस्पतालों में कार्यरत हैं। बाकी 90 फीसदी प्राइवेट हॉस्पिटल में या निजी प्रैक्टिस में हैं।
हैरत की बात है कि करीब साढ़े 6 लाख गांवो पर केवल 29635 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र हैं। इनकी कार्यप्रणाली भी ऐसी है कि मामूली इलाज की दरकार वाले मरीजों को भी जिला अस्पताल या उससे आगे रेफर कर दिया जाता है। राजधानी या जिले स्तर के अस्पतालों में अनावश्यक रेफर किए गए मरीज भी भारी भीड़ बढ़ाते हैं। ऐसा क्यों है? क्या सीएचसी या पीएचसी सिर्फ रेफर करने के लिए बने हैं? क्यों नहीं वहीं पर इलाज दे दिया जाता? दरअसल, इन स्वास्थ्य केंद्रों पर सुविधाएं हैं नहीं। डॉक्टर वहां रहते नहीं हैं। जिनकी जबाबदेही बननी चाहिये वह आंखों में पट्टी बांधे रहे। राजनेता संवेदनशून्य बने हुए हैं। अब सवाल उठता है कि जो सत्ता पर है उनकी जबाबदेही कैसे तय हो उनको कैसे एहसास दिलाया जाये हालात बद-से-बदतर हैं।
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मेरी राय में भारत में खस्ताहाल सरकारी स्वास्थ्य ढांचे को सुधारने का एक ही तरीका है कि यह अनिवार्य कर दिया जाए कि नेता और वरिष्ट अधिकारी केवल सरकारी अस्पतालों में ही इलाज करा सकते हैं। सरकारी खर्चे पर प्राइवेट अस्पताल में इलाज की सुविधा खत्म कर दी जाए। दूसरा अगर किसी बीमारी का इलाज देश में उपलब्ध हो तो उस स्थिति में उन्हें विदेश भी न जाने दिया जाए। दूसरा, जो वीआईपी कल्चर है उसको आम आदमी के सामानांतर लाना होगा क्योंकि जो हमारे प्रतिनिधि चुनके विधानसभा या संसद में जाते हैं वे बेचारी जनता का दु:ख दर्द भूल जाते हैं। तीसरा उपाय ये है कि इलाज की सरकारी व्यवस्था पूरी तरह खत्म कर दी जाए। देश के प्रत्येक नागरिक को आयुष्मान भारत योजना के तहत लाया जाए और सबको एक निश्चित राशि का गारंटीड हेल्थ बीमा दिया जाए जिससे मरीज जहां कहीं चाहे अपना इलाज करा ले। जब तक ऐसी व्यवस्था लागू नहीं की जाएगी तब तक कोई बदलाव आ पाना मुश्किल है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)