देश की सबसे पुरानी पार्टी भयावह दलदल में, बेहाल कांग्रेस का संकटग्रस्त भविष्य

Update:2023-08-02 14:52 IST
जल्द होगी कांग्रेस वर्किंग कमिटी की बैठक, सोनिया और राहुल भी होंगे शामिल

रतिभान त्रिपाठी

कांग्रेस का हाल बेहाल है। कोई आज नहीं, पिछले कई सालों से ऐसी ही स्थिति बनी हुई है। कोई माने न माने, पद बचाए रखने या हासिल करने के लोभ में कांग्रेस नेता भले ही चाटुकारितावश कुछ न बोलें और बोलें तो नेतृत्व का बचाव करते दिखें, पर सच यही है। वह भी समझ रहे हैं कि पार्टी नेतृत्व कमजोर और दिशाहीन है। यह कहा जाए कि किंकर्तव्यविमूढ़ है तो भी गलत नहीं होगा। कांग्रेस के पुराने नेता और कई महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके सलमान खुर्शीद ने जब यह कह दिया कि लोकसभा चुनाव में हार के बाद राहुल गांधी के इस्तीफे से संकट बढ़ा है और उनके इस फैसले के कारण पार्टी हार के बाद जरूरी आत्मनिरीक्षण भी नहीं कर पायी। हम विश्लेषण के लिए भी एकजुट नहीं हो सके कि हम लोकसभा चुनाव में क्यों हारे? कांग्रेस की जो स्थिति है उसमें महाराष्ट्र और हरियाणा चुनाव जीतने की संभावना नहीं है। कांग्रेस की हालत ऐसे स्तर पर पहुंच गई है कि न केवल आगामी विधानसभा चुनावों में बल्कि यह अपना भविष्य तक नहीं तय कर सकती है। खुर्शीद के इस बयान से पार्टी में बवाल मच गया। अनुशासन की कई तलवारें सलमान खुर्शीद पर एक साथ तन गईं। उन्हें यह बात नहीं कहनी चाहिए, आखिर पार्टी की मर्यादा का सवाल है जैसी तमाम नैतिकतापूर्ण बातें खुर्शीद के खिलाफ कही जा सकती हैं, लेकिन खुर्शीद की बातें उतनी ही सच हैं, जैसे यह कहा जाए कि सूरज पूरब से निकलता है।

सलमान खुर्शीद की ओर से कांग्रेस की कड़ी आलोचना पर पार्टी के नेता राशिद अल्वी ने कड़ा ऐतराज जताया कि कांग्रेस को दुश्मनों की जरूरत नहीं है। घर में आग घर के ही चिराग से लग रही है। कांग्रेस नेताओं को इस तरह के बयान नहीं देने चाहिए। इससे पार्टी कमजोर होती है। अल्वी को सलमान खुर्शीद का बयान बहुत खराब लग रहा है लेकिन उन्हें तब बुरा क्यों नहीं लगा जब नेतृत्व की कमजोरी और दिशाहीनता से कांग्रेस चुनाव दर चुनाव पीछे होती चली गई, हर राज्य की सत्ता खोती चली गई, निस्तेज होती चली गई। अल्वी ने तब भी अपनी प्रतिक्रिया दी होती तो माना जा सकता है कि सलमान खुर्शीद के बयान पर उनकी प्रतिक्रिया अपनी जगह दुरुस्त है। लेकिन तब तो नेतृत्व की कमजोरी के खिलाफ उनकी बोलने हिम्मत नहीं हुई। ऐसे में कहने में कोई संकोच नहीं कि राशिद अल्वी जैसे चाटुकारों ने ही कांग्रेस का बंटाधार किया है और इस हालत में पहुंचाया है। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को सलमान खुर्शीद के बयान पर आज चटखारे लेने का मौका मिला है और यह मौका कांग्रेस के ही चाटुकारों ने दिया है, जो पार्टी की हर विफलता पर नेतृत्व के सामने सच बात कहने की बजाए दुम हिलाते रहे हैं और चरण चुंबन करते रहे हैं।

कांग्रेस की नाव मंझधार में है, यह सच है। देश की सबसे पुरानी पार्टी भयावह दलदल में धंसती दिख रही है। पार्टी में इन दिनों विद्रोह की स्थिति है। चाहे वह हरियाणा हो या महाराष्ट्र, हर जगह नेता आपस में टकरा रहे हैं। पार्टी में भगदड़ मची हुई है। इसकी जिम्मेदारी अगर किसी की है तो वह सिर्फ और सिर्फ नेतृत्व की। और हालत यह है कि नेतृत्व यह जिम्मा लेने को अब तक तैयार नहीं। अगर वह जिम्मा लेने की कोशिश भी करता दिखे तो यही चाटुकार और चरणोदक पिपासु आगे खड़े हो जाते हैं। कोई आत्महत्या कर लेने की धमकी का दिखावा करता है तो कोई अनशन पर बैठ जाता है। फिर भी नेतृत्व ऐसे लोगों को ढोता रहता है।

लोकसभा चुनावों में हार के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया था और अब, जब चुनाव सिर पर हैं, वे कहीं चुनाव प्रचार में दिख नहीं रहे हैं। यह क्या है? जब पार्टी संकट के दौर से गुजर रही है तो वह कहां चले गए? यह बात कहने में अतिशयोक्ति लग सकती है कि राहुल गांधी ने जिद करके कांग्रेस की अध्यक्षी हासिल की थी, लेकिन सच यही है। अगर सोनिया गांधी और राहुल गांधी के अध्यक्षीय कार्यकाल की समीक्षा की जाए तो यह सच निकलकर सामने आएगा कि राहुल गांधी के हिस्से में पराभव अधिक है जबकि सोनिया गांधी के हिस्से में विजय। लेकिन राहुल गांधी के करीबी उस समय भी राहुल गांधी में ही सर्वश्रेष्ठता देख रहे थे।

मौजूदा समय में कांग्रेस भंवर में फंसी है। हरियाणा कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अशोक तंवर ने हाल ही में पार्टी छोड़ दी। महाराष्ट्र कांग्रेस में भी विद्रोह जारी है। महाराष्ट्र के नेता संजय निरुपम पार्टी छोडऩे की धमकी दे चुके हैं। उन्होंने आरोप लगाया है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया एक बार भी महाराष्ट्र नहीं आए हैं और अपने दोस्तों से बातचीत के आधार पर टिकट बांट दिये हैं। निरुपम ने मल्लिकार्जुन खडग़े जैसे नेताओं को ‘बेकार लोग’ कह डाला। राज्य विधानसभा चुनाव के मतदान से पहले महाराष्ट्र व हरियाणा कांग्रेस में गुटबाजी सार्वजनिक मंचों से सामने आ रही है। हैरान करने वाली बात यह है कि कांग्रेस से बगावत करने वाले नेता सीधे तौर पर कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को निशाने पर ले रहे हैं और उस पर सवाल उठा रहे हैं। यह नौबत आई ही क्यों ? शीर्ष नेतृत्व ने इस तरह के दुष्परिणामों का अनुमान पहले क्यों नहीं लगाया।

सलमान खुर्शीद का यह कहना कहीं से गलत नहीं है कि कांग्रेस को मुश्किलों का सामना इसलिए करना पड़ रहा है कि अब तक पार्टी 2019 के लोकसभा चुनावों में मिली हार से बाहर नहीं निकल पा रही है। लोकसभा चुनावों में पार्टी की हार के बाद राहुल गांधी जल्दबाजी में पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ गए। उनकी मां सोनिया गांधी को कांग्रेस का अंतरिम अध्यक्ष बनाया गया। कहा गया कि चुनाव से निपटने के बाद जल्द ही नए अध्यक्ष पद का फैसला किया जाएगा। हरियाणा के अशोक तंवर ने पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा देते हुए आरोप लगाया है कि कांग्रेस के भीतर कुछ लोगों की वजह से पार्टी अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। उनका यह कहना कि उनकी किसी से निजी लड़ाई नहीं है, बल्कि उस सिस्टम से है जो देश की सबसे पुरानी पार्टी को खत्म कर रही है। तंवर की यह बात अर्धसत्य है। दरअसल अब तक वह भी उसी सिस्टम का हिस्सा रहे हैं, जिसकी खोट उन्हें अब अपने स्वार्थ में दिखने लगी है। लेकिन बात वहीं शीर्ष नेतृत्व के आसपास आकर टिक जाती है कि जब यह सब हरियाणा यह महाराष्ट्र में पहले से चल रहा था और नेतृत्व इससे बेखबर नहीं था तो समय रहते उपाय क्यों नहीं किए गए, जिससे आज जो नौबत है, आती ही नहीं।

134 साल पुरानी कांग्रेस का नेतृत्व इस हालत में आ खड़ा हुआ है कि पार्टी में विद्रोह हो रहा है और वह बचाव के उपाय नहीं कर पा रहा है। यह कांग्रेस के लिए आत्मचिंतन का भी वक्त है। लोकसभा चुनाव में हार के बाद राहुल गांधी जिस हालत में कांग्रेस को छोड़ भागे हैं, क्या वह सही है? बदलाव करना भी था तो ऐसे वक्त करते जो मुफीद होता। जब तीन महीने बाद चुनाव होने हों, उससे पहले ही नैतिकता का सवाल उठाकर पार्टी को मंझधार में छोडऩा कोई बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय नहीं था। क्या इसमें उनकी चूक नहीं है? जो उस वक्त पार्टी का नैरेटिव बना था, उसे बनाने में अहम योगदान तो पार्टी अध्यक्ष का ही होता है। लेकिन पद छोडऩे से पहले उन्हें पार्टी को ऐसी जगह स्थापित करना चाहिए था, जहां पार्टी के पास एक नेता होता और रोजमर्रा का काम जारी रहता और एक नए उद्देश्य से पार्टी आगे बढ़ती।

बदलाव की प्रक्रिया को शुरू किए बिना बीच में छोडक़र चले जाने और उनकी बुजुर्ग मां को मजबूरन यह जिम्मा उठाने का संदेश पूरे देश के कांग्रेसजनों तक जो गया, वह कोई सकारात्मक नहीं था। आज जो विद्रोह सामने है, वह उसी संदेश का नतीजा है। यह सच है कि राजनीति में वक्त बदलता है। कभी बहुत जल्द तो कभी इसके पीछे एक लंबी जद्दोजहद होती है। अशोक चव्हाण, पृथ्वीराज चव्हाण, मोहन प्रकाश, संजय निरुपम, सीपी जोशी हों या फिर मधुसूदन मिस्त्री। ऐसे नेताओं में फैसले लेने की कमी और फिर उन पर नेतृत्व के अंधाधुंध फैसलों ने विद्रोह को जन्म दिया है। इन सभी नेताओं को लगने लगा कि नेतृत्व समर्थ नहीं है, इसीलिए इनमें से कई मनमानी पर उतारू हो गये। इससे भी बड़ी चिंतापूर्ण बात यह कि देश की सबसे पुरानी पार्टी परिवार के बाहर न तो निकल पा रही और न ही उससे बाहर नेतृत्व खोज और स्वीकार कर पा रही है। अगर कांग्रेसी इस मानसिकता से बाहर नहीं निकले तो पार्टी का भविष्य क्या हो सकता है, सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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