संयुक्त अरब अमीरात यानी दुबई और अबूधाबी ने ऐतिहासिक फैसला लेते हुए अरबी और अंग्रेजी के बाद हिंदी को अपनी अदालतों में तीसरी आधिकारिक भाषा के रूप में शामिल कर लिया है। इसका मकसद हिंदी भाषी लोगों को मुकदमे की प्रक्रिया, उनके अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में सीखने में मदद करना है। न्याय तक पहुंच बढ़ाने के लिहाज से यह कदम उठाया गया है। अमीरात की जनसंख्या 90 लाख है और इसमें 26 लाख भारतीय हैं। इन भारतीयों में कई पढ़े लिखे और धनाढ्य लोग हैं लेकिन ज्यादातर मजदूर और कम पढ़े लिखे लोग हैं। इन लोगों के लिए अरबी और अंग्रेजी के सहारे न्याय पाना बड़ा मुश्किल होता है। इन्हें पता ही नहीं चलता कि अदालत में वकील क्या बहस कर रहे हैं और जजों ने जो फैसला दिया है, उसके तथ्य और तर्क क्या हैं?
बड़ा सवाल है कि जब विदेशों में बसे भारतीयों की इस तकलीफ का ध्यान रखने का निर्णय यूएई में लिया गया है तो भारत में ऐसे निर्णय क्यों नहीं लिए जाते? प्रश्न यह भी है कि विदेशों में ही हिन्दी की ताकत क्यों बढ़ रही है? झकझोरने वाला प्रश्न यह भी है कि राष्ट्र भाषा हिन्दी को आजादी के ७२ वर्ष बीत जाने पर भी अपने ही देश में क्यों घोर उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा है? हिन्दी की उपेक्षा राष्ट्रीय शर्म का विषय है, जबकि विश्व में हिन्दी की ताकत बढ़ रही है। भारत सरकार के प्रयत्नों से हिन्दी को विश्वस्तर पर प्रतिष्ठापित किया जा रहा है, यह सराहनीय बात है लेकिन भारत में उसकी उपेक्षा कब तक होती रहेगी, यह प्रश्न भी सरकार को सोचना चाहिए।
हिन्दी को कानून की भाषा बनाने का जो काम भारत में सबसे पहले होना चाहिए था, वह काम संयुक्त अरब अमीरात कर रहा है। इसके लिये अबू धाबी के शेख मंसूर अल नाह्यान बधाई के पात्र हैं। उनके इस निर्णय का स्वागत ही नहीं करना चाहिए बल्कि उनसे कुछ सीख भी लेनी चाहिए। भारत की अदालतों में आजादी के ७० साल बाद भी भारतीय भाषाओं का इस्तेमाल नहीं होता। सर्वोच्च न्यायालय तो अब भी अंग्रेजी में ही सारे काम-काज के लिये अड़ा हुआ है। वहां मुकदमों की बहस अंग्रेजी में ही होती है। जहां बहस अंग्रेजी में होती है, वहां फैसले भी अंग्रेजी में ही आते हैं। सुना गया है कि फैसलों के हिंदी अनुवाद की बात चल रही है। बात केवल कानून के सर्वोच्च संस्थान की ही नहीं है। समस्त सरकारी कामकाज भी अंग्रेजी में ही होता है, उच्च शिक्षा भी अंग्रेजी में ही दी जा रही है, यहां तक प्राथमिक-माध्यमिक शिक्षा में भी अंग्रेजी का ही बोलबाला है। कैसे हम अपनी भाषा को प्राथमिकता देंगे? कब भारत के भाग्य निर्माता हिन्दी को जनभाषा, राजकाज की भाषा एवं कानून की भाषा का दर्जा देकर बधाई के पात्र बनेंगे? सरकार को चाहिए कि वह ऐसे आदेश जारी करे जिससे सरकार के सभी कामकाज हिन्दी में होनेे लगें और अंग्रेजी से मुक्ति की दिशा सुनिश्चित हो। अगर ऐसा होता है तो यह राष्ट्रीयता को सुदृढ़ करने की दिशा में एक अनुकरणीय एवं सराहनीय पहल होगी। भारतीय जनता की सबसे बड़ी कमजोरी रही है कि हिन्दी को उसका उचित स्थान और सम्मान नहीं मिल पाया है।
विदेशमंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज के प्रयासों से विदेशों में हिन्दी की प्रतिष्ठा बढ़ी है। एक नया विश्वास जगा है कि वैश्विक स्तर पर हिंदी को मान्यता दिलाने के सरकार के प्रयास सफल होते दिखाई पड़ रहे हैं। १९७५ के विश्व हिन्दी सम्मेलन से लेकर भोपाल में आयोजित 2018 के सम्मेलन तक बार-बार यह प्रश्न खड़ा होता रहा है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी कब अधिकारिक भाषा बनेगी? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी राष्ट्र एवं राजभाषा हिन्दी का सम्मान बढ़ाने एवं उसके अस्तित्व एवं अस्मिता को नयी ऊंचाई देने के लिये अनूठे उपक्रम किए हैं। हिन्दी को उसका गौरवपूर्ण स्थान दिलाने के लिये नरेन्द्र मोदी एवं पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के प्रयत्नों को सदा याद रखा जाएगा। मोदी ने सितंबर 2014 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिंदी में भाषण देकर न केवल हिन्दी को गौरवान्वित किया बल्कि देश के हर नागरिक का सीना चौड़ा किया। सबसे पहले 1977 में वहां अटल बिहारी बाजपेयी ने हिंदी में भाषण दिया था। उस वक्त वे जनता पार्टी सरकार में विदेश मंत्री थे और यूएन में भारत की अगुवाई कर रहे थे। इसके बाद उन्होंने सन 2002 में भारत के प्रधानमंत्री के रूप में दोबारा इस अंतरराष्ट्रीय मंच से हिंदी में अपनी बात रखी थी। प्रश्न यह भी है कि दोनों ही सक्षम नेताओं ने हिन्दी को अपने ही देश में क्यों उपेक्षित रहने दिया। क्या कारण है कि आजादी के 70 साल बाद भी सरकारें अपना काम-काज अंग्रेजी में करती हैं?
सच्चाई तो यह है कि देश में हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को जो सम्मान मिलना चाहिए वह अंग्रेजी को मिल रहा है। अंग्रेजी और अन्य विदेशी भाषाओं की सहायता जरूर ली जाए लेकिन तकनीकी एवं कानून की पढ़ाई के माध्यम के तौर पर अंग्रेजी को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। क्योंकि इससे राष्ट्रीयता कमजोर होती है। राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय प्रतीकों की उपेक्षा एक ऐसा प्रदूषण है, एक ऐसा अंधेरा है जिससे ठीक उसी प्रकार लडऩा होगा जैसे एक नन्हा दीपक गहन अंधेरे से लड़ता है। राष्ट्रभाषा को लेकर छाई धुंध को मिटाने के लिए ठोस कदम उठाने ही होंगे। विकास की उपलब्धियों से हम ताकतवर बन सकते हैं, महान नहीं। महान उस दिन बनेंगे जिस दिन हिन्दी को उचित स्थान एवं सम्मान देंगे।
कितने दुख की बात है कि आजादी के 72 साल बाद भी राज्य सरकारें अपना काम-काज अंग्रेजी में करती हैं। हिन्दी विश्व की एक प्राचीन, समृद्ध तथा महान भाषा होने के साथ ही हमारी राजभाषा भी है, यह हमारे अस्तित्व एवं अस्मिता, राष्ट्रीयता एवं संस्कृति की भी प्रतीक है। भारत की स्वतंत्रता के बाद 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया था कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी। इस महत्वपूर्ण निर्णय के बाद ही हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रचारित-प्रसारित करने के लिए 1953 से सम्पूर्ण भारत में हर साल 14 सितम्बर का दिन हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाता है। राजभाषा बनने के बाद हिन्दी ने विभिन्न राज्यों के कामकाज में आपसी लोगों से सम्पर्क स्थापित करने का अभिनव कार्य किया है। चीनी भाषा के बाद हिन्दी विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। भारत और अन्य देशों में 70 करोड़ से अधिक लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। पाकिस्तान की तो अधिकांश आबादी हिंदी बोलती व समझती है। बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, तिब्बत, म्यांमार, अफगानिस्तान में भी लाखों लोग हिंदी बोलते और समझते हैं। फिजी, सूरीनाम, गुयाना, त्रिनिदाद जैसे देश तो हिंदी भाषियों द्वारा ही बसाए गए हैं। हिन्दी का हर दृष्टि से इतना महत्व होते हुए भी भारत में प्रत्येक स्तर पर इसकी इतनी उपेक्षा क्यों है?
शेक्सपीयर ने कहा था-‘दुर्बलता! तेरा नाम स्त्री है।’ आज शेक्सपीयर होता तो आम भारतीय एवं सरकारों के द्वारा हो रही हिन्दी की उपेक्षा के परिप्रेक्ष्य में कहता-‘दुर्बलता! तेरा नाम भारतीय जनता एवं शासन व्यवस्था है।’
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)