स्थानीय बनाम बाहरी मुद्दा: खतरनाक है क्षेत्रवाद को हवा देना

Update:2018-12-21 17:46 IST

प्रमोद भार्गव

मध्य प्रदेश के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री कमलनाथ ने स्थानीय बनाम बाहरी मुद्दा उछालकर ‘आ बैल मुझे मार’ कहावत चरितार्थ कर दी है। कमलनाथ ने उद्योग संवर्धन नीति के बारे में कहा कि मध्य प्रदेश में लगने वाले नए उद्योगों में अब 70 प्रतिशत नौकरियां स्थानीय लोगों को दी जाएंगी। कमलनाथ यहीं ठहर जाते तब तो यह मामला तूल नहीं पकड़ता, किंतु उन्होंने आगे बढक़र यह भी कह डाला कि बिहार और उत्तर प्रदेश के लोग यहां की नौकरियां हड़प लेते हैं, नतीजतन स्थानीय नौजवान नौकरियों से वंचित रह जाते हैं। इस बयान के चर्चा में आते ही भाजपा एवं अन्य दलों के नेताओं ने कमलनाथ को आड़े हाथ लेते हुए उनसे माफी मांगने की गुहार लगाई है। भाजपा ने इसे विभाजनकारी बयान का दर्जा दिया है। बहरहाल कमलनाथ ने किसानों की कर्जमाफी के साथ जो सकारात्मक वातावरण रचा था, उसे इस बयान ने धुंधला दिया है। चूंकि कमलनाथ एक वरिष्ठ और वजनदार नेता है, इसलिए उनसे क्षेत्रवाद को हवा देने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। बावजूद उन्होंने वहीं किया जो क्षेत्रवाद के आधार पर पिछले कुछ समय से महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक में देखने में आता रहा है।

दरअसल इस बयान से ऐसा लगता है कि अभी कमलनाथ को स्थानीय नीतियों का पूरा ज्ञान नहीं है। मध्य प्रदेश समेत देश के अन्य प्रदेशों में स्थानीय लोगों को रोजगार में प्रधानता देने के प्रावधान पहले से ही है। उन्होंने भी अपने बयान में 70 फीसदी रोजगार स्थानीय लोगों को देने की बात कही है। जबकि शेष बचे 30 प्रतिशत रोजगार उन्हें अन्य प्रदेश के युवाओं से ही भरा जाना है। दरअसल यह बयान कुछ वैसा ही हो गया, जैसा कि महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों को लेकर राज ठाकरे जब-तब देते रहते हैं। दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी एक बार दिल्ली में बढ़ते अपराधों के लिए बिहार के लोगों को उत्तरदायी ठहरा दिया था।

देश के हरेक नागरिक को देश में कहीं भी रहने और काम करने का संवैधानिक अधिकार है। इसीलिए आज बिहार और उत्तर प्रदेश के लोग पूरे देश में काम कर रहे हैं। राजस्थान का मारवाड़ी वैश्य समाज और पंजाब के सिख भी समूचे देश और दुनिया में काम कर रहे हैं। यही वे लोग हैं, जो जिस प्रांत में रह रहे हैं, उस प्रांत की अर्थव्यवस्था को भी गतिशील बनाए हुए हैं। देश में अकेला जम्मू-कश्मीर ऐसा प्रांत है, जहां अन्य राज्यों के लोग काम-धंधा नहीं कर सकते हैं। शायद इसी कारण यह राज्य पिछले तीन दशक से आतंकवाद की चपेट में है और यहां हर रोज इंसानी खून से अलगाव की नई इबारत लिखी जा रही हैं। इस जड़ता का कारण यहां की जातीय और धार्मिक विविधता खत्म हो जाना ही है।

एक समय शिवसेना से अलग होने के बाद राज ठाकरे ने महाराष्ट्र में अपनी स्वतंत्र राजनीतिक पहचान व स्थापना के लिए उत्तर भारतीयों को महाराष्ट्र से खदेडऩे की मुहिम ही चला दी थी। ऐसा उन्होंने मराठी भाषियों को लुभाने के लिए किया था। किंतु हम देख रहे हैं कि आज राज ठाकरे और उनकी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना हाशिए से भी नीचे चली गई है। कोई भी राष्ट्र या राज्य जब किसी क्षेत्र या व्यक्ति समुदाय के प्रति विषेश मोह, चिंता और केवल उसी के विकास को अहम् मानने लग जाता है तो वहां आंचलिक क्षेत्रवाद की परिणति जातिवाद, भाषावाद या सांप्रदायवाद में बदल जाती है। ऐसी राजनीतिक बयानबाजी सामाजिक समग्रता, समरसता और सांस्कृतिक-राष्ट्रीय चेतना को आघात पहुंचाने का काम करती है। चुनांचे, आजादी के 70 साल बाद भी हम ठीक से औपनिवेशिक मानसिकता से उबर नहीं पाए हैं। इसी कारण हम पर क्षेत्रीय राष्ट्रीयताएं भाषावाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद एवं संप्रदायवाद अनेक रूपों में हावी है। नतीजतन जैसे ही किसी मुद्दे को हवा देने के उपक्रम शुरू होते हैं, वैसे ही क्षेत्रीय राजनीति के फलक पर विभाजन का संकट मंडारने लगता है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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