सत्रहवें लोकसभा चुनाव की रणभेरी के साथ ही लोकतंत्र के उत्सव की शुरुआत हो गई है। इसे सियासी कुम्भ भी कह सकते हैं। लोकतंत्र के इस पर्व पर हर बार की तरह तमाम खट्टी मीठी यादें होंगी। कुछ नए मतदाता जुड़ेंगे। कुछ का नाम सियासी चैसर की चालाक चालबाजियों के चलते मतदाता सूची से बाहर जा सकता है। वैसे तो हर चुनाव एक अलग रंग लिए होता है। लेकिन इस चुनाव में कई रंग हैं। यह अब तक का सबसे बड़ा चुनाव है। इस चुनाव में ईवीएम मशीन की विश्वसनीयता कसौटी पर है। हालांकि इसके लिए चुनाव आयोग ने हर मशीन के साथ वीवीपीटी लगाने का एलान किया है। मतलब जो लोग चाहें, वह मशीन पर यकीन करें और जो चाहें, कागज पर। यद्यपि इस प्रक्रिया के चलते चुनावी नतीजे यांत्रिक तेजी से नहीं आ पाएंगे। आठ करोड़ 43 लाख नए व युवा मतदाता मतदान का पहला अनुभव यानी लुत्फ लेंगे। वैसे तो मत देने के बाद भी प्रत्याशी जीत जाता है, भारत में ऐसे भी लोकतंत्र आता है। यह क्षणिका ‘मत देने’ से जुड़ी है, पर यह मत देना वोट देने के संदर्भ में रूढ़ है।
इस चुनाव में 90 करोड़ लोग मतदान करेंगे। नतीजे 23 मई को आएंगे। सात चरण में मतदान होगा। पहला चरण 11 अप्रैल को होगा। तकरीबन दस लाख बूथ बनाए जाएंगे। सभी सियासी दलों की तैयारियां पूरी हुई दिखती हैं। भारतीय लोकतंत्र ब्रितानी वेस्टमिनिस्टर मॉडल पर आधारित है। पर वहां एक ही दिन मतदान होता है। संविधान के अनुसार लोकसभा की अधिकतम 552 सीटें हो सकती हैं। पर अभी 545 सीटें हैं। पर इनमें 543 पर चुनाव होते हैं। दो सीटों पर राष्ट्रपति एंग्लो इंडियन समुदाय के लोगों को नामित करते हैं। हमारे यहां 84 अनुसूचित जाति और 47 अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटें है। चुनाव आयोग ने एप के माध्यम से आचार संहिता उल्लंघन की शिकायत करने और टोल फ्री नंबर 1950 से वोटिंग लिस्ट की जानकारी लेने की सुविधा मुहैया कराई है। आयोग की कसौटी यह होगी कि वह सोशल मीडिया पर कैसे लगाम लगा सकता है। हालांकि फेसबुक व गूगल ने कंटेंट की निगरानी करने का आश्वासन तो दिया है, पर उनकी नीयत में खोट इसलिए दिखती है, क्योंकि चुनाव उनका आर्थिक पर्व होता है। गूगल और फेसबुक किसी ने भी यह सुविधा नहीं दी है कि कोई भी संदेश इनीशिएट करने वाले का नंबर संदेश के साथ हो।
चुनाव तो पूरे देश में होगा। पर भारतीय जनता पार्टी ने पिछले लोकसभा चुनाव में 73 सीटें हथियाई थीं। ऐसे में इस रिकार्ड को दोहराना उसके लिए कितना मुश्किल या आसान होगा, यह देखना जरूरी है। मोदी को घेरने के लिए जिस तरह सियासी दल अपनी तमाम पुरानी रंजिशों को अलविदा कह गलबहियां हो रहे हैं। उससे यह संदेश तो मिलता ही है कि मोदी के फिर आने की उम्मीद विपक्ष की आंखों में धूमिल नहीं हुई है। नरेंद्र मोदी इस चुनाव की कसौटी पर इसलिए होंगे क्योंकि उन्हें इस बार मोदी से ही लड़ना है। 2014 के सपने जगाने वाले मोदी और 2019 तक उनमें कितने सपने पूरे हो पाए इसे साबित करने वाले मोदी। मोदी को अपनी राज्य सरकारों के सत्ता विरोधी रुझान से भी लड़ना होगा। पांच साल तक उन्होंने जिस तरह अपने और अमित शाह के इर्द गिर्द ही पार्टी और सरकार का ताना बाना बुनने के लिए लोगों को मजबूर किया। उन लोगों की दबी हुई नाराजगी से भी दो चार होना होगा। जिन उम्मीदवारों का टिकट काटेंगे वे कहां जाएंगे यह भी मोदी को नफा नुकसान पहुंचाएगा। 2014 में स्पष्ट बहुमत की अकेले भाजपा की सरकार बनाने का श्रेय उत्तर प्रदेश को है। लेकिन अब अखिलेश और मायावती उत्तर प्रदेश में मोदी का रथ थामने के लिए जिस तरह एक साथ आए हैं, कांग्रेस ने प्रियंका का दांव खेला है, उससे यह तो साफ है कि चुनाव का केंद्र उत्तर प्रदेश होगा। नरेन्द्र मोदी बनारस और किसी एक अन्य सीट से भी लड़ेंगे यह गुजरात या उड़ीसा की हो सकती है।
मोदी आमने-सामने की लड़ाई लड़ने के आदी हैं। विपक्ष ने जो सियासी चैसर बिछाया है वह मोदी को सूट करता है। मोदी के विरोध में खड़े अस्सी फीसदी नेता किसी न किसी बड़े आरोप की जद में हैं। किसी का ईडी और किसी का सीबीआई पीछा कर रही है। उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार पिछली सरकारों से अलग कुछ भी ऐसा नहीं कर पायी है जो इस समर में मोदी के लिए ब्रह्मास्त्र बन सके। जो कुछ किया वो उनकी केंद्र सरकार ने किया। पर नरेंद्र मोदी को भी जीत की गणित बैठाते समय यह नहीं सोचना चाहिए कि उज्ज्वला योजना, जनधन योजना, कौशल विकास योजना, सौभाग्य योजना, आवास योजना सरीखी योजनाओं के लाभार्थी चुनाव के वोट बनते हैं। क्योंकि इसके बरअक्स कालाधन लाने, नीरव मोदी और विजय माल्या को वापस बुलाने सरीखे संकल्प भी जनता को याद हैं। बाबा रामदेव भी सरकार पर मेहरबान नहीं हैं। नरेंद्र मोदी ने बिना किसी गुणा गणित के बढ़ रही अर्थ व्यवस्था पर लगाम लगाने का जो काम किया है वह किसी न किसी प्रधानमंत्री को करना ही पड़ता। लेकिन जो भी करता उसे खामियाजा भुगतना पड़ता। मोदी को इसके लिए भी तैयार रहना होगा। अखिलेश यादव और मायावती ने भले ही आपसी रंजिश भुला दी हो पर उनके कार्यकर्ताओं और मतदाताओं ने इसे भुलाया है कि नहीं यह भी इस चुनाव में साबित होगा। मायावती जो वोट ट्रांसफर कराने के मामले में राजनीति का चमत्कार समझी जाती हैं, उनके इस चमत्कार को यह चुनाव कितना नमस्कार करता है यह भी दिखाई पड़ेगा। खांटी विरोधी एक-दूसरे के साथ चुनाव में गलबहियां हो जाएं तो जनता उसे किस नजरिये से देखती है यह भी चुनाव बताएगा। कांग्रेस के बिना विपक्ष की क्या हैसियत है इसकी थाह भी क्षेत्रीय क्षत्रपों को लग ही जाएगी। चैकीदार चोर है या ईमानदार यह भी जनता बता देगी।
चुनाव की तिथि घोषित होने के बहुत पहले से ही यह कहा जा रहा है कि देश में मजबूत नहीं मजबूर सरकार बनेगी। यह अंदेशा सत्ता पक्ष को भी है तभी तो वह मजबूर नहीं मजबूत सरकार का नारा लेकर उतरा है। देश की राजनीति यूपीए और एनडीए के बीच बंट सी गई है। यह चुनाव यह भी बताएंगे कि बाईपोलर पालिटिक्स में क्षेत्रीय क्षत्रप रहेंगे कि खत्म हो जाएंगे। क्योंकि मोदी का निशाना क्षेत्रीय क्षत्रपों पर कांग्रेस से ज्यादा होगा। यह भी पता चलेगा कि क्षेत्रीय क्षत्रप किसी एक झंडे तले इकट्ठे हो सकते हैं या नहीं। हालांकि इससे पहले क्षेत्रीय क्षत्रपों ने मिलकर राष्ट्रीय ताकतों को पराजित किया है पर इस बार इन क्षेत्रीय क्षत्रपों को एकजुट करने वाला जेपी की तरह का कोई मसीहा नहीं है। मोदी के लिए संसद का रास्ता भानुमती के कुनबे को देखते हुए आसान तो लगता है। पर वह कितना आसान होगा यह नतीजे बताएंगे। नतीजे बताने के लिए कौन लोग, क्या-क्या मुद्दा बनाएंगे यह देखने का समय है। किसकी कितनी जुबान फिसलती है, कौन कितना नीचे गिरता है, कौन कितना ऊपर उठता है। यह सब देखने का समय है। सब कुछ आपके मन का हो इसलिए जरूरी है कि आप बूथ पर जाएं और जरूर वोट दे आएं। क्योंकि आपका एक-एक वोट देश की दशा और दिशा तय करता है।
(लेखक अपना भारत/न्यूजट्रैक के संपादक हैं)