बड़ी जानकारी: किसिम-किसिम की होली, जाने कौन सी फबेगी आप को

Different Types of Holi: दक्षिण भारत में होली 'काम दहन पर्व' के रूप में मनायी जाती है। भगवान शिव द्वारा काम को भस्म करने की प्रथा पुराणों में उल्लखित है।

Written By :  Yogesh Mishra
Update: 2024-07-25 11:22 GMT

Different types of Holi  (photo: social media )

Different types of Holi:  यह सब बानगी है होली पर गाये जाने वाले लोक गीतों की। होली के लोकगीत देश के विभिन्न क्षेत्रों में खेली जाने वाली होली के तरीकों का वर्णन करते हैं। होली प्रेम व रंग का पर्व है। प्रेम और रंग के इस पर्व में नटखटपन की खासी घुसपैठ होती है। प्रेम और नटखटपन के नायक हैं कृष्ण। रास और रंग दोनों के प्रतीक भी हैं-कृष्ण। होली बसन्त में होती है। कृष्ण ने गीता में 'मैं बसंत हूं' कहकर बसंत के महत्व के बारे में बताया है। भारतीय परम्परा में होली से सम्बन्धित परम्परागत कथा भक्त प्रहलाद एवं होलिका से शुरू होती है। कथा के अनुसार होलिका हिरण्यकश्यप की बहन थी।

होली खेलत रघुवीरा अवध में।

राम के हाथ में ढोलक सोहे।।

लक्ष्मन हाथ अबीरा अवध मे।

कवीरा सरररर। जोगीरा सरररर।।

हिरण्यकश्यप के तमाम आदेशों के बाद भी जब भक्त प्रह्लाद ने विष्णु भक्ति का त्याग नहीं किया तो हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को मारने का आदेश अपनी बहन होलिका को दिया। होलिका को भगवान से वरदान मिला था कि अग्नि उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। अतः प्रह्लाद को लेकर होलिका अग्नि में प्रवेश कर गयी। परन्तु विष्णु भक्ति का ऐसा प्रभाव हुआ कि होलिका जल मरी और प्रह्लाद बच गया।

पुराण में होली मनाने के तौर तरीके

भविष्योत्तर पुराण में इस बात का उल्लेख है कि ढुंढा नामक राक्षसी के उपद्रव का शमन करने के लिए होली जलायी जाती है। इस पुराण में होली मनाने के तौर तरीकों का भी उल्लेख है जिसमें कहा गया है कि शीतकाल की समाप्ति पर फागुन शुक्ल के अवसर पर युवक-युवतियां नृत्य करें। जलयंत्र लेकर एक दूसरे को रंग से सरोबार कर दें। ब्रजक्षेत्र में यह धारणा है कि पूतना का वध करने के बाद उसकी हड्डियों को जलाने से होलिका दहन को प्रथा शुरू हुई। होली भारत का प्राचीन पर्व है। आर्यो का अग्निहोत्र इसका आदि स्रोत है। फागुन पूर्णिमा से आर्य अग्निहोत्र प्रारंभ करते थे। नयी जौ की बालियों को आग में भूनकर यज्ञ का श्रीगणेश किया जाता था। इन बालियों को 'होला' कहा जाता था। संस्कृत में अन्न की बाल को 'होला' कहते हैं। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि जिस पर्व में नयी फसल की बालों को भूना जाता है वह होली है। होली भी एक तरह से अग्नि पूजा ही कही जाएगी। वात्स्यायन के कामसूत्र से लेकर संस्कृत, प्राकृत के कई ग्रंथों में होली का उल्लेख है। रविन्द्रनाथ ठाकुर ने फागुन के सूरज की उपमा को 'प्रियालिंगन मधु- माधुर्य स्पर्श' कहा है। वात्स्यायन के कामसूत्र में होली का त्योहार 'होलका' के रूप में वर्णित है। वात्स्यायन ने इसे 'मुवसन्तक' भी कहा है। सम्राट हर्ष की 'रत्नावली' और 'नागानंद नाटक' में होली का उल्लेख है। 'मीमांसा' में भी होली का उल्लेख हुआ है। भास ने इसे 'कामदेवानुमान' कहा है।

होली को उत्तर भारतीय संस्कृति का भाषेतर शब्द भी कहा गया है। कुछ विद्वान इसका अर्थ भेड़ या बकरा बताते हैं। ऋग्वेद में एक पैर वाले बकरे का उल्लेख है। यह बकरा एक ऐसा असुर है जो सूर्य को उत्तरायण की ओर जाने से रोकने की कोशिश करता है। होली के दिन इस असुर को जलाकर लोग हर्ष उल्लास मनाते हैं। बौद्ध ग्रंथ 'धम्म पद ' में इसे मूर्खों का त्योहार बताया गया है। दंडी के 'देश कुमार चरित' में भी होलिकोत्सव का उल्लेख है। अलबरुनी ने भी होली का वर्णन किया है। 'पद्मभूषण मणि' में होली का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि प्रियतमाओं द्वारा जलयंत्र से हम पर्व पर प्रियों पर जल डाला जाता है।

काम दहन पर्व

दक्षिण भारत में होली 'काम दहन पर्व' के रूप में मनायी जाती है। भगवान शिव द्वारा काम को भस्म करने की प्रथा पुराणों में उल्लखित है। दक्षिण भारत में होली जलाने के रूप में कामदेव को जलाया जाता है। पूरे देश में होली का पर्व बहुत उल्लास और उत्साह से मनाया जाता है। परन्तु देश के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में होली खेलने के अलग-अलग तौर-तरीके हैं।ब्रज मंडल में होली का पर्व विशेष महत्व रखता है। क्योंकि होली प्रेम और रंग का पर्व है और रास और रंग दोनों के प्रतीक हैं-कृष्ण। कृष्ण का सम्बन्ध ब्रज क्षेत्र से खासा है।

ब्रज मंडल में होली की शुरुआत बसंत पंचमी से हो जाती है। बसंत पंचमी को ब्रज के मन्दिरों में गुलाल का ही प्रसाद चढ़ाया जाता है। द्वारिकाधीश मन्दिर में रसिया गान भी होता है। बसंत पंचमी के दूसरे दिन ब्रजमंडल क्षेत्र के मंदिरों में होली का 'दाढ़ा’ गाड़ दिया जाता है। यहां के मन्दिरों में रंग गुनगुने पानी में बनाया जाता है जिससे ठाकुर जी को ठंड न लगे।


लट्ठमार होली

बरसाने की लट्ठमार होली को देखने के लिए तो दर्शकों का हुजूम ही उमड़ पड़ता है। पिटकर भी कान्हां और उनके साथी ठिठोली करते रहते हैं। बरसाना यानि राधा का गांव। यहां राधा का एक विशाल मंदिर है और पास ही है कृष्णा का नंदगांव। होली के दिन नंदगांव के गोस्वामीगण बरसाने के पास स्थित पीली पोखर के आसपास इकट्ठे होते हैं। गोस्वामी पुरुष सिर पर बड़ी पगड़ी बांधकर हाथों में चमड़े के हाल लेकर गाते बजाते हुए बरसाने की ओर बढ़ते हैं। बरसाने के प्रेम गली में जब ये लोग जा पहुंचते हैं तो वहीं पर शुरू होती है लट्ठ मार होली। इसमें कान्हां अपने ग्वालबालों के साथ राधा रानी और उसकी सखियों पर रंग डालते हैं। सखियां ऐसा करने से रोकती हैं और जब कान्हा और उनके साथी नहीं मानते हैं तो राधारानी और सखियां लाठी उठा लेती हैं। लाठियों से कान्हा और साथियों पर प्रहार शुरू कर देती हैं। ग्वाल-बाल ढाल पर इस प्रहार को रोकते हैं।

कुल मिलाकर ब्रज में 50 दिन की होली होती है। होली के अवसर पर दाऊजी मंदिर प्रांगण में 'हुरंगे' होते हैं। इस 'हुरंगे' में होली खेलने आयी स्त्रियां- पुरुष 'हुरिहरों के शरीर के कपड़े फाड़ती हैं। 'हुरिहार' यह जानते हुए भी कि इन्हीं कपड़ों से बने कोडों से उन्हें पीटा जाएगा, वे कपड़े फाड़ने देते हैं। चैत्र कृष्ण द्वितीया से नवमी तक होली के बाद भी ब्रज के गांव में 'हुरंगे' होते रहते हैं। इसमें चरकुला नृत्य होता है। ब्रज बालाएं 108 दीपकों से जगमगाता चरकुला सर पर रखकर नाचती हैं। यदि चरकुला नाचते समय गिर जाता है तो ब्रज बाला को पूरे वर्ष मेहनत मशक्कत करते हुए उलाहने सहकर रहना पड़ता है और चरकुला नृत्य भी सीखना पड़ता है।ब्रज क्षेत्र के फालौन व जरवारी गांव की भी होलियां खासी आकर्षक होती हैं। यहां होलिका इतनी विशाल लगायी जाती है कि कई मील दूर तक के लोगों को भी तपन महसूस होती है। आस्था का यह आलम होता है कि तमाम लोग इन ऊंची-ऊंची लपटों को भी फलांगते हुए पार कर जाते हैं। इतना ही नहीं, किस्म किस्म की होली में भीलवाड़ा अजमेर मार्ग पर भिनाय कस्बे में बाजार के एक ओर के लोग 'कावड़िया' और दूसरी ओर रहने वाले लोग 'चौक' के खेमों में बटकर होली शुरू होने से पहले कोड़े लेकर एकदूसरे पर टूट पड़ते हैं। जो दल पीछे हटता हुआ भैरो जी स्थल तक पहुंच जाता है वह हारा हुआ माना जाता है। इसके बाद शुरू होती है 'कावड़ियों' और 'चौक' की होली। ब्यावर में भी कोड़े मार होली होती है। भाभियां देवरों को कोड़े मारती हैं और देवर भाभियों पर रंग डालते हैं। सवाई माधोपुर कस्बे के मीणा गूजर, यादव और अहीर जातियां होली के दिन सार्वजनिक स्थल पर रंग के कड़ाहे भरकर महिलाओं के साथ रंग खेलते हैं। पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं जबकि महिलाएं पुरुषों पर लाठियां बरसाती हैं। बाडमेर की पत्थर मार होली की हिंसा तो प्रशासन के लिए भी सर दर्द रही है। प्रशासन को जोर जबर्दस्ती करके इसे बंद करवाना पड़ा। शेखावटी क्षेत्र में होली से पहले एक पखवारे तक चलने वाला 'गीदड़ नृत्य' भी होली का आकर्षण है।


आदिवासी होली

बिहार में होली के अवसर पर युवक- युवतियां गांव के बाहर मशाल जलाकर रोशनी करते हैं। इसके पीछे यह आस्था है कि ये लोग अपने गांव के दुर्भाग्य को दूर भगा रहे हैं। विहार `में आदिवासी होली को 'फगुआ' कहते हैं। इस दिन सभी लोग एकत्र होकर चौराहों पर सेमर के पेड़ की शाखा लाकर गाड़ते हैं । यहीं पर ये अपने इष्ट देवता की पूजा करते हैं और मुर्गे की बली देते हैं। फिर शाख के ऊपर घास पते डालकर आग लगा देते हैं।

फगुआ के दूसरे दिन नये वर्ष के लिए हल चलाया जाता है। शिकार खेलने के लिए गांव के सारे पुरुष जंगलों में निकल जाते हैं। जंगल न जाने वाले पुरुषों को 'औरत कहकर उपहास उड़ाया जाता है' बिहार को 'उरावं' आदिवासी विशु संदेश' नामक शिकार एक माह तक खेलती है। फगुआ का महत्व 'सरना' आदिवासियों में भी बहुत है। सरना आदिवासियों में कहीं-कहीं तो यह फगुआ महीना भर चलता है। फगुआ को पैदा हुए लड़के का नाम फगुआ तथा लड़की का नाम फगुनी रखने की प्रथा है।


झाडूं को पूजने का प्रचलन

उड़ीसा में होली 'तिग्या', गुजरात में 'हुलोसनी', महाराष्ट्र में 'शिमगा' नाम से मनायी जाती है। महाराष्ट्र में इस अवसर पर स्त्रियां पुरुषों पर रंग नहीं डालतीं। पुरुष भले ही डाल दें। इस अवसर पर यहां प्रत्येक घर में झाडूं लगाने और झाडूं को पूजने का प्रचलन है। पूजा के बाद झाडू को जला दिया जाता है। पंजाब में होली पर कुश्ती और दंगल का आयोजन होता है। स्त्रियां अपने दरवाजे पर स्वास्तिक का चिह्न बनाती हैं।


जैसलमेर में खूनी होली

हिमाचल में होली में जली हुई लकड़ियों की राख में जादू की शक्ति माना जाता है। लोगों की आस्था है कि इस राख को खलिहानों में डालने से खलिहानों में कोई आपदा नहीं आती। राजस्थान के जैसलमेर में तो खूनी होली होती है। यहां रंग गुलाल की बजाये खून लगाने की प्रथा है। जयपुर में होली हाथियों पर बैठकर खेली जाती है। यह विशिष्ट होली शहर के चौगान स्टेडियम में होती है। इस होली में शरीक होने वाले हाथियों को सजाया संवारा जाता है। माथे पर सिंदूर के टीके लगाये जाते हैं। हाथियों पर पर्यटकों को बैठाया जाता है। बैड बाजों की धुनों पर हाथी थिरक उठते हैं। राजस्थान के कस्बे सलूम्बर में भील व मीणा आदिवासी जातियां रहती हैं। इन आदिवासियों में फागुन मास आते ही सांझ पहर घुंघरुओं के रुनझुन के स्वर बज उठते हैं। प्रत्येक मीणा युवक के पास एक 'गेली' होती है। 'गेली' लम्बी बांस की लकड़ी को कहते हैं। जिसके एक सिरे पर घुंघरू या रेशमी सामान बंधा होता है। युवक पैरों में भी घुँघरू बांधे रहते हैं। बीच सड़क पर युवकों की टोली 'गेर खेलती है। 'गेर’ ' नृत्य करते समय युवक एक दूसरे पर 'गेली' से प्रहार करते हैं। इस नृत्य में गाये गये गीतों की भाषा में कामाभिव्यक्ति होती है । जिसमें गालियां व अश्लील शब्दों का प्रयोग किया जाता है। युवतियां भी 'गेर' के प्रत्युत्तर में फाग गाती हैं। इस अवसर पर कोई भी पुरुष सम्बन्धी रिश्तेदार चाहे वह सगा भाई ही क्यों न हो। सभी टोली की युवतियां उसे घेर लेती हैं और 'फाग' गाते हुए गुड़ के लिए पैसे मांगती हैं। बिना पैसे दिये उस पुरुष का छुटकारा सम्भव नहीं होता। गुड़ और चीनी इन आदिवासियों की प्रिय मिठाई होती है। राजस्थान के जयपुर जिले में चौहान शासकों की राजधानी सांभर में होली के दूसरे दिन अर्थात 'धुलंडी' को जयपुर रियासत का एक दुल्हा (नन्देश्वर ) शिव की सवारी नन्दी पर सवार होकर जोधपुर जाता है। उसके सिर पर करीब दो किलो चांदी का मुकुट, जटाजूट व चेहरे पर भारी भरकम दाढ़ी होती है। दुल्हे की पोशाक पहनकर कागज की लुगदी से बने खोखले बैल पर सवार होकर नन्देश्वर नृत्य करता हुआ दिन में 12 बजे शादी के लिए रवाना होता है। रात 8 बजे यह विवाह करके लौटता है। रास्ते में नन्देश्वर की पूजा अर्चना की जाती है। यह परम्परा डेढ़ हजार वर्षों से चली आ रही है।


बंगाल में 'डोल यात्रा' 

बंगाल में होली 'डोल यात्रा' के रूप में मनायी जाती है। पहले शिव, विष्णु आदि देवी- देवताओं की मूर्तियों की यात्रा निकाली जाती थी। परन्तु चैतन्य महाप्रभु के आविर्भाव के बाद यात्रा का पूरा आधार राधा-कृष्ण की लीलाएं हो गयी हैं। बासवाड़ा जिले में होली पर 'भील' आदिवासी लोग 'गोल गधेड़ो' नामक उत्सव करते हैं। इस उत्सव में ताड़ के पेड़ पर गुड़ और नारियल की पोटली बांध दी जाती है। लड़‌कियां गोल घेरा बनाकर लड़कों को पेड़ पर आने से रोकती हैं परन्तु जो लड़का पेड़ पर से पोटली उतार लेता है उसे घेरे की लड़कियों में से किसी को भी अपनी स्त्री चुनने का अधिकार होता है।


भील आदिवासी होली 

मध्य प्रदेश के भील आदिवासी होली को 'भगौरिया' भी कहते हैं। यह होली के एक सप्ताह पहले से शुरू होता है और होली के दिन तक चलता है। 'भगौरिया' भोल युवक द्वारा अपनी प्रेमिका को चुनकर भगा ले जाने का पर्व है। भील आदिवासी युवकों के झुंड अपने पारम्परिक वेष-भूषा में मुंह में पान दबाए, हाथ में गुलाल लिये सामूहिक नृत्य करते हैं। नाचते- नाचते जब कोई युवक किसी युवति के मुंह पर गुलाल मल देता है और जवाब में युवत्ति भी अगर ऐसा ही कर देती है तो यह समझा जाता है कि विवाह के लिए दोनों की स्वीकृक्ति है। युवक स्वीकृति मिलते ही युवति को लेकर अपने किसी परिचित के यहां जाकर छिप जाता है और दोनों पक्षों में लेन-देन तय होता है। भील आदिवासियों में लड़की को दहेज मिलता है।


मदन दहन

मैसूर में होली के कुछ दिन पहले कामदेव व रति की मूर्ति बनाकर स्थापित की जाती है। कर्नाटक में मदन दहन के नाम से मनायी जाने वाली होली में होलिकाएं जत्थे में सर्वाधिक सुन्दर युवक को छांटकर मदन (कामदेव) बनाया जाता है और उसे निर्वस्त्र करके दौड़ाया जाता है। तेलगु अंचलों में मदन बने युवक को पकवान खिलाकर पहले उसकी खूब आवाभगत की जाती है फिर उसे दौड़ाकर उसके कपड़े नोचे जाते हैं।


इस तरह हम देखते और पाते हैं कि हमारे समाज में होली आदि पर्व के रूप में जहां साहित्य और पुराणों में वर्णित और स्वीकृत है । वहीं क्षेत्रवार होली खेलने के तौर तरीके अगल- अलग हैं। होली में हुड़दंग, उड़ते रंग, थिरकते कदम, गति, नृत्य में शामिल होने के लिए सभी का रंग गुहार करते हैं। रजनीगंधा, पलाश व मुगरा तथा चमेली की कलियां रूप लेने लगती हैं। आम की मंजरी मादकता से मस्त करने लगती है। टेसु के फूल रंग बनाने के लिए स्वयं को अर्पित करने के लिए खिल उठते हैं। किसिम-किसिम की होली में कई लोग विकृतियों के अवसर भी तलाशते रहते हैं। हमारे समाज में निश्चित और औपचारिक सम्बन्धों के दायरों के बाहर स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को ज्यादा छूट नहीं दी है। इसीलिए होली जैसे पर्व के विकास का भौंडा तर्क भी लोग नाजायज छूट के सम्बन्ध में देते हैं। होली, प्रकृति और पुरुष का रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करती है। तभी तो उर्दू शायरी में भी होली का रंग शुमार है। मुगल काल से लेकर 17वीं शताब्दी तक के सांस्कृतिक इतिहास पर लिखी गयी मिर्जा कतील की फारसी कृति 'हफ्त तमाशा' में इस बात का उल्लेख है कि अफगानों और कुछ विद्वेष रखने वाले लोगों के अलावा सब मुसलमान होली खेलते थे। उर्दू शायरों ने 'फाग' लिखा है। उत्तर भारत के तो लगभग सभी शायरों ने होली को अपने शेरों में बांधा है। फायज देहलवी एवं मीर ने आसिफउद्दौला के दरबार की होली का वर्णन करते हुए लिखा है-

होली खेलत आसफउद्दौला वजीर

रंग सोहबत से अजब है खुर्दोपीर

नजीर अकबराबादी ने होली पर सबसे ज्यादा रचनाएं लिखी हैं- नजीर की होली-

गुलजार खिले हो परियों के

और मजलिस की तैयारी हो

कपड़ों के रंग के छींटों से

खुशरंग अजब गुलकारी हो

मुंह लाल गुलाबी आंखें हों

और हाथों में पिचकारी हो

उस रंग भरी पिचकारी को

अंगिया पर टक्कर मारी हो।

उर्दू अदब में होली का होना भाईचारे और एकता का प्रतीक है। लखनऊ के शायर मजहूर होलियों के लिए मशहूर रहे हैं। बहादुरशाहजफर ने भी होली पर खूब लिखा है। अब आपको तय करना है किसिम किसिम की होली में आपको क्या फबेगा और क्या चुनेंगे?

( होली पर लिखा यह लेख बहुत पहले राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित हो चुका है। एक लंबे अंतराल के बाद इसे पुनः प्रकाशित किया जा रहा है।।साभार राष्ट्रीय सहारा।)

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