कोरोना काल में अर्थव्‍यवस्‍था के जुड़े सवाल

ऐसे में देश को प्रधानमंत्री मोदी का आर्थिक पैकेज एक बड़ा संरक्षण देने वाली छतरी, एक संजीवनी हो सकता है, बशर्ते कि सिस्‍टम पवित्र मनोभावना से काम करे।

Update:2020-05-14 19:03 IST

रतिभान त्रिपाठी

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ओर उनका सिस्‍टम देश की नब्‍ज को पहचानता है, इस सवाल के बहुमत पर कोई संदेह नहीं। इसका प्रमाण भी है कि वह जब भी कोई कदम उठाते हैं, प्राय: उस पर हामी के स्‍वर तेजी से उभरते हैं। कोरोना को लेकर उन्‍होंने देश में बारंबार लॉकडाउन और नागरिकों के हित में जो भी कदम उठाए, बहुमत ने उनका स्‍वागत किया।

पैकेज पर सवाल

देश की भरभराती अर्थव्‍यवस्‍था को संभालने और पटरी पर लाने के लिए हाल में ही जब उन्‍होंने 20 लाख करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा की तो चहुंओर एक उत्‍साह और विश्‍वास का वातावरण दिखा, लेकिन विपक्ष के सवाल कम मौजूं नहीं कि आखिर देश की आर्थिक हालत को सुधारने के लिए पैसा लाया कहां से जाएगा।

निर्मला सीतारमण के जवाब

इस पर वित्‍त मंत्री निर्मला सीतारमण ने जवाब भी देना शुरू कर दिया है। प्रधानमंत्री मोदी ने जब यह एलान किया यह आर्थिक पैकेज देश के उद्योगों, एमएसएमई, कुटीर उद्योगों के लिए है जो लोगों को आजीविका देता है।

यह पैकेज देश के उस श्रमिक, उसके किसान के लिए है जो हर स्‍थिति हर मौसम में देशवासियों के लिए रात दिन परिश्रम करता है। यह पैकेज उस मध्‍यम वर्ग के लिए भी है जो ईमानदारी से टैक्‍स देता है।

सवाल फिर भी

तो लोगों के बीच अनेक सवाल उभरने लगे कि सालाना छह हजार से किसानों की दशा कितनी सुधरी है, मजदूरों के हिस्‍से में आने वाले 500 या हजार रुपये की रकम से उनका कितना भला होने वाला है। जबकि इस पैकेज का अधिकांश हिस्‍सा उद्योगपतियों के खजाने में जाने वाला है।

मोदी के कान्फिडेंस से कुछ कुछ आश्वस्ति

देश के जनमानस का अब तक का यही अनुभव रहा है कि सरकार कोई भी हो, उसके किसी भी पैकेज से सर्वाधिक फायदा देश के पूंजीपतियों और उद्योगपतियों को ही होता रहा है। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने जिस आत्‍मविश्‍वास से अपनी बात रखी है, उससे हर तबका कुछ व कुछ आश्‍वस्‍त लगता है।

कोरोना के चलते दुनिया भर में उपजे आर्थिक संकट से वैश्‍विक स्‍तर की संस्थाओं की रिपोर्टें जनमानस ही नहीं, आर्थिक विशेषज्ञों को चिंता में डालने वाली हैं।

सवाल यह है कि इन हालात में जिंदगी चलेगी कैसे?

विश्‍व बैंक से लेकर इंटरनेशनल लेबर अर्गनाइजेशन (आईएलओ) की रिपोर्ट कहती है कि कोरोना के कारण गांवों से लेकर शहरों तक बढ़ी सोशल डिस्‍टेंसिंग से जगह जगह लेबर सप्‍लाई में भारी कमी आने वाली है।

भारत के संदर्भ में देखें तो लगभग दो महीने के लॉकडाउन में करीब पैंतालीस दिन बाद सरकारों ने अलग अलग हिस्‍सों में फंसे मजदूरों को उनके घर भेजना शुरू कर दिया है।

सवाल प्रवासी मजदूरों की वापसी पर

इससे सोशल डिस्‍टेंस की चेन टूटी और कोरोना के मरीजों की संख्‍या तेजी से बढ़ी है। यह बात कम प्रासंगिक नहीं है कि अगर सरकार को यह काम करना ही था तो दो चार दिन लॉकडाउन रोककर या फिर उसके शुरुआती दिनों में ही दूसरे राज्‍यों में फंसे मजदूरों को उनके घर भेजा जाता, तो यह समस्‍या शायद मुंह बाये नहीं खड़ी होती।

अब जब कारोबार शुरू करने की स्थिति बन रही है, तब मजदूरों को उनके घर भेजा जा रहा है। ऐसे में वह अपने घर से फिर वापस अपने काम धंधे वाली जगहों पर जरूरत के हिसाब से पहुंच सकेंगे क्‍या?

मजदूर ही नहीं रहेंगे तो काम कैसे होगा

अकेले उत्‍तर प्रदेश जैसा विशाल राज्‍य अपने बीस लाख मजदूरों को दूसरे राज्‍यों से वापस लाने का प्‍लान लागू कर चुका है। ऐसे में मोदी के ''जहान भी जरूरी'' फारमूले का क्‍या होगा, जब अहमदाबाद, सूरत, मुंबई में काम करने वाले प्रशिक्षित मजदूर ही नहीं बचे हैं। जो हालात पैदा हुए हैं उनमें ट्रेड कास्‍ट महंगी होने वाली है, लोग खर्च करने की स्‍थिति में ही नहीं रहेंगे।

खतरे में रोजी रोटी

आईएलओ की रिपोर्ट कहती है कि जीडीपी नीचे जाने वाली है, पर्यटन जैसा फलता फूलता क्षेत्र बिलकुल खत्‍म हो चुका है। बहुतायत में नागरिक अपनी खर्च क्षमता का 40 प्रतिशत भी खर्च करने की स्‍थिति में नहीं रहेंगे।

दुनिया भर में संगठित और असंगठित क्षेत्र में 330 करोड़ मजदूर हैं। इनमें 200 करोड़ असंगठित क्षेत्र के हैं ,जिनकी जिम्‍मेदारी सरकारें लिया ही नहीं करतीं, इन सबकी रोजी रोटी खतरे में पड़ चुकी है। दुनिया भर में 160 करोड़ नौकरियां जा चुकी हैं।

30 करोड़ की नौकरी गई

काम के घंटों में भारी गिरावट के चलते दुनिया भर के उद्योग धंधे तबाह हो चुके हैं। पक्‍की नौकरी वाले 30 करोड़ लोगों की नौकरी पूरी तरह जा चुकी है। जो माहौल है उसमें स्‍टार्टअप जैसे शब्‍द बेमानी हो चुके हैं।

हमारे देश में मार्च के आखिरी तक विदेशी पूंजी तेजी से खातों से निकाल ली गई। शेयर मार्केट मृतप्राय हो चुका है। उद्योगधंधे माइनस में जा रहे हैं।

माइनस में जाते उद्योग धंधे

आईटी, एनर्जी, ऑटो, उत्‍पादन,कंन्‍ज्‍यूमर स्‍टेपल, बैंकिंग सेक्‍टर सब माइनस में हैं। टॉप मोस्‍ट इंडस्‍ट्रियल सेक्‍टर 6 प्रतिशत की गिरावट पर है। ऑटो सेक्‍टर के इतिहास में यह पहला अवसर है जब पिछले अप्रैल में पूरे देश में मारुति से लेकर मर्सीडीज तक किसी भी कंपनी की एक भी कार बिकी ही नहीं।

यह रिपोर्ट कम डराने वाली नहीं है कि जो ऑटो सेक्‍टर भारत में 4 करोड़ लोगों को रोजगार देता है, जिसका देश की जीडीपी में एक प्रतिशत का योगदान है और जिसके मार्फत 11 प्रतिशत का टैक्‍स कलेक्‍शन होता है, वह पूरी तरह ठंडा पड़ चुका है।

रोजगार है कहां

यहां काम करने वालों के रोजगार का क्‍या होगा, सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। यही हाल फर्टिलाइजर, आईटी, औद्योगिक उत्‍पादन सेक्‍टर क्रूड ऑइल, बिजली आदि का भी है।

इन हालात में केंद्र सरकार और राज्‍यों की सरकारें योजना बनाकर काम कर रही हैं। लॉकडाउन के इस अभूतपूर्व माहौल में सरकारें कोटा से बसों और ट्रेनों से छात्रों को उनके घर पहुंचा रही हैं और मजदूरों को पूना, हैदराबाद, कोलकाता, बड़ोदरा, दिल्‍ली से उनके उनके घर। जिस योजना को खुद सरकार ने बनाया, उसे सरकार ने ही तोड़ा भी।

नारायणमूर्ति की बात

संकट काल है। लोकप्रिय सरकारों की मजबूरी होती है कि परेशान होकर जगह जगह प्रदर्शन कर रहे मजदूरों को घर पहुंचाए लेकिन देश में आईटी सेक्‍टर के जाने माने उद्यमी के नारायणमूर्ति का यह कहना कि तय करना होगा कि लोग वायरस से मरेंगे या भुखमरी से। उनकी बात अपनी जगह हो सकती है लेकिन सरकारें अपनी जनता को मरने के लिए नहीं छोड़ सकतीं, जहां तक संभव हो।

देश के उद्योगपतियों की संस्‍था इंडिया इंक लाखों करोड़ मांगकर उद्योगजगत का भला करे, हर मुख्‍यमंत्री अपना अपना पैकेज बनाकर मांग रहे हैं लेकिन गरीब के हिस्‍से में कितना आ रहा है, कहां आ रहा है, यह अब तक अस्‍पष्‍ट है।

सरकारें अपने मजदूरों के हितों की अनदेखी नहीं करना चाहती हैं। उनको लाने ले जाने के लिए ट्रेनों बसों का इंतजाम है लेकिन उनका हजारों लोगों का क्‍या जो अपने दो चार साल से दस पंद्रह साल तक के बच्‍चों और औरतों को साथ लेकर मनों सामान सिर पर लादे, कोई हवाई चप्‍पल पहने तो कोई नंगे पांव ही सैकड़ों किलोमीटर पैदल अब भी चल रहे हैं।

संवेदना रहित माहौल

सरकारें बेशक अपने खजाने का मुंह खोले बैठी हैं लेकिन सड़क पर कहां दिखती है उस सिस्‍टम की संवेदना जो वातानुकूलित कमरों में बैठकर योजनाओं का लच्‍छा उछाल रहा है।

क्‍या उस सिस्‍टम को सड़क पर पैदल चलते मजदूरों की कतारें दिखती ही नहीं हैं। यह तो तय है कि जेठ की चिलचिलाती दुपहरी में ये मजदूर शौकिया तो पसीना नहीं बहा रहे हैं। लेकिन यह कम दुर्भाग्‍यपूर्ण नहीं कि सिस्‍टम की फाइलों में "गांव का मौसम अब भी गुलाबी ही है।"

कोरोना संकट चूंकि विश्‍वव्‍यापी है इसलिए हर देश की अपनी अपनी समस्‍याएं हैं। हर जगह बेरोजगारी और आर्थिक मंदी का खतरा सिर पर है। इस वैश्‍विक कूटनीतिक वातावरण में हम जिस अमेरिका से किसी मदद की अपेक्षा कर सकते हैं, उसने हमारे देश को भी उन देशों के साथ प्रायरिटी वॉच लिस्‍ट में डाल रखा है।

हर तरफ गिरावट

अमेरिका ने भारत को चीन, रूस, अर्जेंटीना, वेनेजुएला, चिली आदि देशों के साथ रखा है। वैश्‍विक संस्‍थाओं के अनुमान के मुताबिक इस साल विश्‍व व्‍यापार में 13 से 32 प्रतिशत की गिरावट दर्ज होगी।

जैसे दुनिया में बेरोजगारी बढ़ रही है, उसके अनुपात में भारत में बेरोजगारी दर ज्‍यादा तेज है। जब 80 से 90 प्रतिशत तक कारोबार ठप पड़ा है तो बेरोजगारी का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की रिपोर्ट कहती है कि हमारे देश के अपेक्षाकृत समृद्ध राज्‍यों में बेरोजगारी दर बहुत ज्‍यादा होने का अनुमान है।

आंकड़े डराने वाले

उत्‍तर प्रदेश में बेरोजगारी दर 21.50 प्रतिशत है लेकिन दक्षिण के राज्‍यों से मिलने वाले संकेत बहुत डरावने हैं। रिपोर्ट के अनुसार पुदुच्‍चेरी में 75.80 प्रतिशत , तमिलनाडु में 49.80 प्रतिशत , कर्नाटक में 29.80 प्रतिशत, महाराष्‍ट्र में 20.90 प्रतिशत, 43.20 प्रतिशत हरियाणा में ओर बिहार में 46.60 प्रतिशत बेरोजगारी बढ़ने वाली है जबकि औसत परिवारों की आमदनी में 45 प्रतिशत गिरावट होने का अनुमान है।

ऐसे में देश को प्रधानमंत्री मोदी का आर्थिक पैकेज एक बड़ा संरक्षण देने वाली छतरी, एक संजीवनी हो सकता है, बशर्ते कि सिस्‍टम पवित्र मनोभावना से काम करे।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं)

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