शिक्षे तुम्हारा नाश हो, अब नौकरी के हित भी नहीं रही....

Update:2017-10-04 16:03 IST

योगेश मिश्र

शिक्षे, तुम्हारा नाश हो

तुम नौकरी के हित बनी।

महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने जब शिक्षा को लेकर चिंता जताई थी तब शिक्षा कम से कम नौकरी देने लायक तो थी ही, लेकिन शिक्षा का यह गुणधर्म भी आज खत्म हो गया है। हाल में शिक्षा को लेकर आई ‘वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट 2018 लर्निंग टू रिलाइज एजुकेशन्स प्रामिस’ बताती है कि अब जो जितना पढ़ा लिखा है, वह उतना ‘मिसफिट’ है।

क्योंकि रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण भारत में तीसरी कक्षा के तीन चौथाई बच्चे दो अंकों के घटाने वाले सवाल तक नहीं हल कर सकते। यही नहीं, पांचवी कक्षा के आधे छात्र भी ऐसा नहीं कर पाते हैं। विश्व बैंक की ‘ग्लोबल एजुकेशन नाम की इस रिपोर्ट में भारत की तालीम संकट की चेतावनी निहित है, जिसमें कहा गया है कि लाखों युवा छात्रों को बाद में जीवन यापन के कम अवसर मिलते हैं। क्योंकि उनके प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल उन्हें जीवन में सफल बनाने के लिए शिक्षा देने में फेल हो रहे हैं।

रिपोर्ट यह भी कहती है कि हाईस्कूल में कई साल पढ़ाई के बाद भी लाखों बच्चे गणित का आसान सा सवाल हल नहीं कर पाते, पढ़ लिख नहीं पाते। बिना ज्ञान के शिक्षा देने से गरीबी मिटाना और नए अवसर पैदा करना आसान नहीं है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत उन 12 देशों की सूची में दूसरे नंबर पर है, जहां दूसरी कक्षा के छात्र एक छोटे से पाठ का एक शब्द भी नहीं पढ़ पाते। इस लिस्ट में पहले स्थान पर मलावी नाम का देश है जिसका नाम शायद आपने नहीं ही सुना होगा।

मलावी गणराज्य दक्षिणपूर्व अफ्रीका में स्थित एक लैंडलॉक देश है। इसे पूर्व में श्न्यासालैंड कहा जाता था। यह अफ्रीका की तृतीय सबसे बड़ी झील मलावी (निऐसा) के दक्षिणी तथा पश्चिमी किनारे के साथ-साथ जैंबीजी नदी तक फैला हुआ है। इसकी संपूर्ण लंबाई 2,5 मील तथा चौड़ाई 5 से 13 मील है।

संपूर्ण राष्ट्र तीन प्रांतों में विभक्त है। इसके उत्तर-पश्चिम में तंजानिया और पूर्व, पश्चिम और दक्षिण में मोजाम्बिक देश स्थित हैं। मलावी झील इस देश की सीमा तंजानिया और मोजाम्बिक से निर्धारित करती है। देश का कुल क्षेत्रफल 118,000 वर्ग किमी है, जहां 13,900,000 से ज्यादा लोग निवास करते हैं। इसकी राजधानी लिलोंग्वा और सबसे बड़ा शहर ब्लांतायर है। इसकी कुल जीडीपी 11,412 बिलियन डालर है।

नैतिक और आर्थिक संकट

इस रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल तक ग्रामीण भारत में पांचवी कक्षा के केवल आधे बच्चे दूसरी क्लास के पाठ्यक्रम वाली कोई किताब अच्छे से पढ़ सकते थे। वह भी तब जबकि उस किताब में स्थानीय भाषा में बोले जाने वाले बेहद सरल वाक्य शामिल हों। ये हालात देश के किसी बीमारु राज्य की ही नहीं हैं। आंध्र प्रदेश में भी पांचवीं क्लास का छात्र पहली कक्षा के सवाल का जवाब नहीं दे पाता है। वह भी ऐसे बच्चे जिन्होंने परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन किया हो।

ज्ञान का यह संकट नैतिक और आर्थिक दोनों है। नैतिक इसलिए जो शिक्षा आपको समाज में खड़े होने का साहस नहीं दे सकती, वह जरूरी समस्याओं को हल करने में कितनी कारगर होगी, यह समझा जा सकता है। आर्थिक इसलिए क्योंकि सरकार मिड डे मील, फ्री ड्रेस, फ्री किताब, फ्री जूते और आकर्षक वजीफों के प्रलोभन भी देती है।

सरकार के प्राइमरी स्कूलों में टीचरों की पगार किसी भी अच्छे निजी स्कूल के टीचर के बराबर या अधिक है। फिर भी बच्चे सिर्फ नामजद्गी के लिए स्कूल जा रहे हों तो किसी भी देश की व्यवस्था के लिए चिंतित होना लाजमी है। तभी तो पढ़ाई के इस गंभीर संकट को हल करने के लिए विश्व बैंक ने विकसित देशों से मदद करने की अपील की है। जिन देशों में तालीम की यह स्थिति है उन्हें ठोस नीतिगत कदम उठाने की सिफारिश की है।

8.4 करोड़ बच्चे स्कूल ही नहीं जाते

2011 की जनगणना के हिसाब से भारत मे ऐसे बच्चों की संख्या 78 लाख है जिनको परिवार की ओर से काम करने के लिए मजबूर किया जाता है। सर्वशिक्षा अभियान और सबके लिए शिक्षा जैसे प्रयासों के बावजूद 8.4 करोड़ बच्चे स्कूल ही नहीं जाते हैं। हैरतंगेज यह है कि जहां सरकारी स्कूल दम तोड़ रहे हैं, वहीं मोटी फीस लेने वाले प्राइवेट स्कूलों का कारोबार काफी तेजी से फल फूल रहा है। एक अनुमान के मुताबिक देश के प्राइवेट स्कूल अभिभावकों से 2 लाख करोड़ रुपये सालाना फीस और डोनेशन के मद में वसूलते हैं। एसोचौम का सर्वे कहता है कि निजी स्कूलों की फीस 100 फीसदी से ज्यादा बढ़ी है।

अतीत पर ही इतरा रहे

भारत धर्मगुरु था। अपने इस अतीत पर हम हमेशा इतराते हैं। धर्मगुरु बनेगा यह उम्मीद हमारे सपनों को पंख लगाती है। पर अमरीकी संस्थान प्यू रिसर्च सेंटर का एक सर्वे हमारी इस उम्मीद को पलीता लगा रहा है। यह सर्वे धर्म के आधार पर किया गया है। जो यह बताता है कि किस धर्म के लोग औसतन कितने साल स्कूल जाते हैं। यह परेशान करने वाला सबब हो सकता है कि हिंदू धर्म के लोगों का आंकड़ा इस सर्वे में सबसे नीचे हैं।

औसतन वे 5.55 साल ही स्कूल जाते हैं। इसमें अगर महिलाओं के स्कूल जाने को अलग से देखा जाये तो वह आंकड़ा केवल 4.2 साल ही बैठता है। मुस्लिम बच्चे हिंदुओं से अधिक 5.65 साल तालीम के लिए देते हैं। यह भी कम चौंकाने वाला तथ्य नहीं है कि मुस्लिम महिलाएं हिंदू महिलाओं से 0.7 साल अधिक स्कूल जाती हैं। सबसे अधिक स्कूल जाने वालों में यहूदी हैं। ये 13.3 साल स्कूल जाते हैं इसमें पुरुष और महिलाओं दोनों का औसत बराबर है। ईसाई 9.3 वर्ष, बौद्घ 7.9 वर्ष और अ-धर्मी 8.8 साल स्कूल जाते हैं। यह आंकड़ा पूरे विश्व का है।

पिछले बजट में सर्वशिक्षा अभियान के लिए शिक्षा के बजट की आधे से अधिक राशि (52 फीसदी) आवंटित की है। लेकिन पिछले पांच वर्ष सर्वशिक्षा अभियान में छह फीसदी की गिरावट दर्ज हुई है। 2012-13 में यह आंकड़ा 4.41 बिलयन डालर था, वर्ष 2016-17 में 3.3 बिलियन डालर पहुंच गया। भारत के 66 फीसदी बच्चे सरकारी स्कूल या सरकार द्वारा सहायता प्राप्त स्कूलों में ही पढ़ते हैं।

दिलचस्प यह है कि वर्ष 2000 से शुरू हुए सर्वशिक्षा अभियान में 30 सितंबर 2015 तक 4 लाख में से 99 फीसदी स्कूल इसी कालखंड में बने हैं। पहली पंचवर्षीय योजना में शिक्षा पर 7.2 फीसदी खर्च किया गया था जो दसवीं पंचवर्षीय योजना में 2.4 फीसदी रह गया।

यह स्थिति तब है कि जब शिक्षा हर सरकार के एजेंडे में महत्वपूर्ण ढंग से होती है। हर सरकार के लंबे चौड़े दावे होते हैं। हर सरकार की कोशिश अपनी मनचाही नीति बनाने की होती है। मैकाले की शिक्षा पद्घति को सबसे पहले राजीव गांधी ने चुनौती दी थी। उन्होंने ‘शिक्षा की चुनौती’ नाम से एक परिपत्र जारी कर इस पर सार्थक बहस की शुरुआत की। उन्होंने लोगों से भी राय मांगी। जिस तरह हमारे बच्चों का ज्ञान विश्व बैंक की रिपोर्ट से उजागर हो रहा है और उसी से मिलती जुलती रिपोर्ट स्वयं सेवी संगठन ‘एसर’ भी जो जारी करता है।

इस आधार पर हम कह सकते हैं कि शिक्षा की हमारी वर्तमान अवधारणा अब तो अतर्कपूर्ण पद्घति पर आधारित है। स्कूल में छुट्टी का घंटा बजने पर जब बच्चे बाहर निकलते हैं तो उनके चेहरे पर पढ़ी जाने वाली खुशी भी इसकी तस्दीक करती है।

जो बच्चे थोड़े बहुत शिक्षित होते हैं, उन्हें हमारी शिक्षा भय सिखाती है, प्रलोभन सिखाती है। ईष्या और प्रतिस्पर्धा सिखाती है। शिक्षित व्यक्ति का पात्र अशिक्षित व्यक्ति से इतना बड़ा हो जाता है कि उसे भरना कठिन हो जाता है। शिक्षा बच्चों को एक ऐसी दौड़ में खड़ा करती है जहां अव्वल न होने का सीधा मतलब होता है- पराजय। शिक्षा का धर्म होना चाहिए व्यक्ति के अंदर छिपी हुई संभावनाओं को खोजने में मदद करना।

पर हमारी शिक्षा प्रणाली इस संदर्भ में एकदम निरर्थक है क्योंकि हमने भोर का पहाड़ा पढ़ाने की जिम्मेदारी उन लोगों को दे रखी है जो ‘बेड-टी’ की आशा में संस्कृति के बिस्तर पर लेटे हुए उगते सूरज की प्रतीक्षा करते रहते हैं। तभी तो ग्वाले के लडक़े को हाईस्कूल पास करते ही दूध दुहने में शर्म आने लगती है। कृषि स्नातक फाइलों में अपनी दस्तखत भर से फसल उगाना और काटना चाहता है। पढ़ाई पूरी होते ही गांव के लडक़े को गांव का जीवन बेकार लगने लगता है।

प्राथमिक शिक्षा के नाम पर गरीब बच्चों को किताबों में एक ऐसी अपरिचित दुनिया दे गई है जहां ‘म का मतलब ‘मां’ नहीं मकान होता है। ‘ज’ का मतलब ‘जहाज’, और ‘फ’ का मतलब ‘फसल नहीं ‘फर्नीचर’ होता है। बच्चे अपने पाठ्यक्रमों में यह पाते हैं कि किस तरह सोती सुंदरी को राजकुमार छूता है और वह परी बन जाती है। बच्चों को किन्नर नरेश की कल्पना में सुला दिया जाता है। हमारी शिक्षा के मौजूदा ढांचे ने परंपरा और आधुनीकीकरण के बीच एक चौड़ी दरार पैदा की है।

डाक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने एक बार कहा था कि शिक्षा में सुधार हेतु यदि एक लाइन में संस्तुति करनी हो तो वह है - ‘शिक्षा प्रणाली पूर्णरूपेण बदली जाये।’ इसी तरह एक लाइन में अगर हम अपने प्राथमिक स्कूलों में बच्चों को तालीम देना चाहते हैं तो जितने पैसे खर्च हो रहे हैं वह सीधे उनके अभिभावकों के खाते में ट्रांसफर कर दिए जायें तो अभिभावक अपने बच्चों को इससे अच्छी तालीम दे ले लेंगे। और हम विश्वगुरु होने की उम्मीदों को जी सकेंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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