थोड़ा प्रकृति के बारे में भी सोचिए!
खुद को खुद से ही प्रकृति की सर्वोत्तम कृति घोषित करते हैं। ये हम लोगों का घमंड है।
मानव ने आग की खोज की लेकिन ऑस्ट्रेलिया और ब्राजील आग के सामने बेबस हो गए। हम लोगों ने सुव्यवस्थित, सुनियोजित नगरीय सिन्धु सभ्यता का पता लगाया लेकिन उसके विनाश के कारणों को हम आज तक खोज रहे हैं। हमनें बांध बनाए लेकिन सुनामी को नहीं बांध पाए। हम लोग अनंत अंतरिक्ष में कुछ दूर तक सिर्फ यान भेज देने को 'अंतरिक्ष विजय' की संज्ञा देते हैं। खुद को खुद से ही प्रकृति की सर्वोत्तम कृति घोषित करते हैं। ये हम लोगों का घमंड है, प्रभुत्वपूर्ण मानसिकता या कुछ और हमें सोचना होगा। पर सोचने के लिए तो समय चाहिए ना जो हमनें खुद के कृत्यों से अपने पास नहीं छोड़ा है।
क्यों सर्वोत्तम होना चाहते हैं?
सवाल ये है कि हम लोग क्यों सर्वोत्तम होना चाहते हैं? और हमारे मस्तिष्क में 'सर्वोत्तम' की जो परिभाषा स्थापित है उसका 'हमारे आचरण' से कितना संबंध है? हम लोगों ने अपनी सुविधा के लिए प्रकृति निर्धारित पारिस्थितिक तंत्र में जबरदस्त हस्तक्षेप या यूं कहें अतिक्रमण किया। हमनें भार वहन करने, मनोरंजन करने, स्वाद और कभी-कभी तो अनायास ही कितने पशुओं का बिना उनका हित देखे उपयोग किया. यही नहीं हमने वनस्पतियों के आकार, संरचना, प्रजनन और उत्पादन तक को भी अपनी सुविधानुसार ढालने की चेष्टा की।
और तो और हमनें ये सब सिर्फ पशु, पक्षी और वनस्पति ही नहीं वरन मनुष्यों के साथ भी किया. मनुष्यों को भी वर्गीकृत कर दिया गया। पहली, दूसरी और तीसरी दुनिया का निर्माण किया। यहां पर आप कह सकते हैं कि सर्वोच्च की स्थापित परिभाषा के आधार पर अधिक उत्तम मनुष्यों ने अपनी सुविधा के लिए कमतर उत्तम मनुष्यों से भार वहन कराया, विभिन्न सेवाएं लीं, मनोरंजन किया और जैसा चाहा वैसा बर्ताव किया। यानी स्पष्ट है कि जो जितना प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर पाया वो उतना सर्वोच्च कहलाया।
विकसित सभ्यताओं की खोज
अर्थात जीवों में उत्तम मनुष्य उससे थोड़ा श्रेष्ठ साधन संपन्न मनुष्य और सर्वश्रेष्ठ सर्वाधिक प्रभुत्वपूर्ण मनुष्य। वहीं मनुष्य जो जंगल की आग नहीं बुझा पाता, जो सुनामी नहीं रोक पाता, भूकम्प की तीव्रता और नुकसान की गणना को भी उपलब्धि बताता है। विकसित सभ्यताओं की खोज करता है, लेकिन विनाश के कारण की तलाश आज भी करता है.विकसित होने का ये कतई मतलब नहीं है कि हम अपनी मर्जी के मुताबिक प्रकृति के साथ जी भर कर खिलवाड़ करें क्योंकि जब प्रकृति इसका हिसाब करती है तो बड़ी भयावह तस्वीर हमारे सामने आती है।
प्रकृति से कोई जीत या लड़ नहीं सकता अभी तक ऐसी कोई तकनीक भी ईजाद नहीं की गई जिससे तूफान,या भूकंप को रोका जा सके लेकिन पहाड़ को खोदकर कुछ बनाना तो सीधे आमंत्रण हैं 2013 में केदारनाथ आपदा के बाद भी हम सबक क्यों नहीं लेते प्रकृति के संसाधनों का उतना ही उपयोग सही है जितने की जरूरत है। पिछले दस सालों में सिर्फ दिल्ली -एनसीआर में ही कई बार धरती डोल चुकी है जो साफ -साफ संकेत है कि धरती के नीचे सबकुछ ठीक नहीं चल रहा।
औद्योगिकीकरण
औद्योगिकीकरण समय की मांग है इससे इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन उसके नाम पर नेचर का कितना उपभोग करना है इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए। मेट्रो शहर की संस्कृति ने इलेक्ट्रॉनिक संसाधनों पर हमारी निर्भरता भी बढ़ा दी है पर उसकी तुलना में प्रकृति के संरक्षण का उपाय कितना हो रहा है और व्यवहारिक धरातल में ये उपाय कितने क्रियान्वित हो रहे इसका मूल्यांकन भी समय की मांग है। वक्त रहते ही प्रकृति के साथ एक सामंजस्य स्थापित हो जाएगा तो आने वाली पीढ़ी के लिए हर नज़रिए से बेहतर होगा।
प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग किस सीमा तक करना है इसको निर्धारित करना जरूरी है. यूरोपीय देश हमसे कहीं ज्यादा आधुनिक संसाधनों से संपन्न हैं लेकिन वहां भी अब नेचर को बचाने का प्रयास तेजी से होने लगा है वहां साइकलिंग को बढ़ावा दिया जा रहा ताकि हरियाली को बचाया जा सके हमारे देश में तो स्थिति अभी काफी नियंत्रित है तो क्यों न थोड़ी सी जागरूकता दिखाते हुए प्रकृति के साथ एक अच्छा संबंध स्थापित किया जाए।