भीड़ को संभालने के लिए चाहिए गांधी, जो आंदोलनकारियों के पास नहीं

केंद्र की सरकार अब आंदोलनकारी किसानों के साथ अगर सख्त रुख दिखाए तो शायद ही कुछ लोग किसानों के साथ खड़े दिखाई देंगे। गणतंत्र दिवस के मौके पर हुए इस पूरे हंगामे के दौरान देशवासियों को राष्ट्रपिता मोहनदास कर्मचंद गांधी यानी महात्मा गांधी सबसे ज्यादा याद आए।

Update: 2021-01-27 09:01 GMT
भीड़ को संभालने के लिए चाहिए गांधी, जो आंदोलनकारियों के पास नहीं

अखिलेश तिवारी

गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिल्ली में किसान परेड के नाम पर जो नंगा नाच हुआ उसने पूरी दुनिया में भारत को शर्मसार कर दिया। किसान आंदोलनकारियों ने दो महीने तक जाड़े की सर्द रातों और बारिश में भीगकर आंदोलन की तपस्या का जो पुण्य अर्जित किया था उसे भी पाप की कमाई में तब्दील कर दिया। पूरे दिन के हंगामे ने उन किसानों की शहादत को भी बट्टा लगा दिया जो किसानों के आंदोलन को सफल बनाने की तमन्ना लिए हुए विदा हो गए। किसान आंदोलन का भविष्य क्या होगा। जो लोग पहले से आंदोलनकारियों को खालिस्तानी समर्थक बताते नहीं थक रहे थे उन्हें अपने पक्ष में निर्णायक सुबूत मिल चुका है।

अहिंसा के हथियार के सामने सशस्त्र अंग्रेज हार गए

केंद्र की सरकार अब आंदोलनकारी किसानों के साथ अगर सख्त रुख दिखाए तो शायद ही कुछ लोग किसानों के साथ खड़े दिखाई देंगे लेकिन गणतंत्र दिवस के मौके पर हुए इस पूरे हंगामे के दौरान देशवासियों को राष्ट्रपिता मोहनदास कर्मचंद गांधी यानी महात्मा गांधी सबसे ज्यादा याद आए।

लोगों को याद आया कि बापू ने कैसे करोड़ों-करोड़ हिन्दुस्तानियों को अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसा के अस्त्र से लैसकर सामने खड़ा कर दिया था। अहिंसा के हथियार के सामने सशस्त्र अंग्रेज हार गए और बापू ने हिंदुस्तान के माथे पर आजादी का सेहरा बांध दिया। आंदोलनकारी किसान केवल तीन कानूनों को वापस लेने की मांग कर रहे हैं और बापू ने अंग्रेजों को राज-पाट छोडक़र वापस जाने पर मजबूर कर दिया।

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मोदी सरकार ने एक साल में दो बड़े आंदोलनों का सामना किया

भाजपा की मोदी सरकार को साल भर के अंदर दो बड़े आंदोलनों का सामना करना पड़ा। इन दोनों आंदोलनों का केंद्र दिल्ली ही बना और दोनों की परिणति भी एक जैसी ही दिखाई दे रही है। पहला आंदोलन नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में तो दूसरा कृषि सुधार कानूनों से संबंधित है। दोनों ही आंदोलन में भीड़ जुटी लेकिन निर्णायक बिंदु पर पहुंचने से पहले हिंसा के आगोश में समा गया।

पिछले साल इन्हीं दिनों में पूरे देश के साथ दुनिया ने भी देखा कि किस तरह आंदोलन का आक्रोश दिल्ली दंगों में बदला और सैकड़ों परिवार तबाह हो गए। अब वैसा ही हश्र किसान आंदोलन का भी होता दिखाई दे रहा है। इस आंदोलन में भी ऐसे तत्व प्रवेश कर गए हैं जो लोकतांत्रिक तरीकों के बजाय खूनी क्रांति में ज्यादा भरोसा करते हैं।

शासन तंत्र को उग्र विरोध सबसे ज्यादा आकर्षित करता है

ऐसे तत्वों को प्रतीत होता है कि लोकतंत्र में भय व असुरक्षा के माहौल को उत्पन्न कर वह अपनी बात आसानी से मनवा लेंगे। ऐसे लोगों को शायद इस बात की जानकारी नहीं है कि शासन तंत्र को उग्र विरोध सबसे ज्यादा आकर्षित करता है। दुनिया के सभी शासक यह चाहते हैं कि लोकतांत्रिक तरीकों से आंदोलन न किए जाएं।

इससे उन्हें आंदोलनकारियों पर बल प्रयोग करने की छूट मिल जाती है। वह आंदोलनकारियों से देश व समाज को बचाए रखने, शांति स्थापित करने की दुहाई देकर उस शक्ति प्रयोग की छूट प्राप्त कर लेते हैं जो उन्हें देश के दुश्मनों के खिलाफ प्रयोग करने के लिए ही प्राप्त है। सरकारों को अपने ऐसे कृत्य के लिए जनसमर्थन भी प्राप्त हो जाता है। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि गणतंत्र दिवस के दिन जब किसानों का उग्र प्रदर्शन लालकिले पर हो रहा था तो सोशल मीडिया पर शूट, खालिस्तानी सरीखे शब्द ट्रेंड कर रहे थे।

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देश में नक्सल आंदोलन इसी नियति का शिकार

पिछले लगभग पचास साल से देश में नक्सल आंदोलन इसी नियति का शिकार होकर रह गया है। उनकी मांगें क्या हैं, क्यों नक्सल आंदोलन है। अब यह सब बहुत पीछे छूट चुका है। अब तो देश के ज्यादातर नागरिक यही समझते हैं कि नक्सल भी उग्रवादी हैं जिनसे उसी तरह से निपटने की जरूरत है जिस तरह पाकिस्तान से आने वाले आतंकियों से सेना निपटती है।

इसलिए सभी आंदोलनकारियों को यह समझने की आवश्यकता है कि भारत में लोकतांत्रिक तरीके से ही आंदोलन संभव है। जनसमर्थन और बदलाव भी गांधी के तरीके से ही लाया जा सकता है।

बंदूक की नाल के दम पर परिवर्तन नहीं विनाश की पटकथा ही लिखी जा सकती है। इसीलिए आज गांधी सबसे ज्यादा याद आ रहे हैं। मैं सोचता हूं कि आखिर गांधी के व्यक्तित्व में ऐसा क्या था जो करोड़ों हिन्दू-मुसलमान उनके साथ चल पड़ते थे। अंग्रेजों की लाठी-गोली का मुकाबला अहिंसा के सिद्धांत पर चलकर करते थे।

गांधी के आंदोलनकारियों को अंग्रेज पीटकर घायल कर देते थे तो वह उनकी लाठी नहीं पकड़ते थे। अपने घायल साथी की मरहम -पट्टी करते और अंग्रेजों की लाठी के सामने नया जत्था सीना तानकर खड़ा हो जाता। दरअसल यही गांधी की सबसे बड़ी शक्ति थी जो उन्हें दुनिया के अन्य सभी नेताओं में सर्वश्रेष्ठ बनाती है।

त्याग व तपोबल गांधी के बाद किसी नेता में नहीं

सीएए-एनआरसी आंदोलन हो या किसान आंदोलन अथवा अयोध्या का श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन। नेताओं ने जनआकांक्षाओं को भडक़ाकर भीड़ तो जुटा ली लेकिन आंदोलनकारियों को नियंत्रित करने के लिए जिस त्याग व तपोबल की आवश्यकता एक नेता में होती है वह गांधी के बाद किसी में नहीं दिखी।

इसलिए अयोध्या पहुंची भीड़ जब ढांचा ध्वंस करने लगती है तो भाजपा और विहिप के नेताओं को दुम दबाकर भागना पड़ता है। एनआरसी आंदोलन में जब दिल्ली जलती है तो उसे आग को भडक़ाने वाले तो साफ दिखते हैं लेकिन हिंसा को नियंत्रित करने का बूता किसी में नहीं दिखाई देता। ऐसा ही किसान आंदोलन में भी हुआ जब उन्मादी तत्व लालकिले की ओर गए तो उन्हें रोकने में सक्षम नेतृत्व परिदृश्य से गायब दिखा।

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जब महात्मा गांधी ने अपना आंदोलन ही वापस ले लिया

देश के आजादी आंदोलन के दौरान जब कुछ आक्रोशित भारतीयों ने चौरी-चौरा कांड को अंजाम दिया तो महात्मा गांधी ने अपना आंदोलन ही वापस ले लिया। उन्होंने तब कहा भी कि देश के लोग अभी आंदोलन के लायक तैयार नहीं हो सके हैं। इसलिए पहले उन्हें आंदोलन के लिए तैयार करना होगा।

चौरी-चौरा कांड वाली भूल आज किसान आंदोलन के नेताओं से हो रही है। वह आंदोलनकारियों को लोकतांत्रिक आंदोलन के लिए तैयार नहीं कर पाए हैं। वह जल्द से जल्द परिणाम चाहते हैं। साधन की शुचिता को लेकर चिंतन करने को तैयार नहीं हैं। अपने पक्ष में जनसमर्थन बढ़ाने की युक्ति करने के लिए तैयार नहीं है और सबसे बड़ी बात है कि किसान आंदोलन के नेता गांधी बनने को तैयार नहीं है।

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