गंदगी और बीमारी के खिलाफ भारत के निर्णायक युद्ध को ‘स्वच्छता ही सेवा’ अभियान से जोरदार बढ़ावा मिला है जो स्वच्छता की साझा जिम्मेदारी के बारे में हमारा ध्यान खींचता है। इस मुहिम में जनता का आह्वान किया गया है कि वे साफ-सफाई को उन ‘दूसरे’ लोगों की जिम्मेदारी न समझें जो ‘हमारे’ इस दायित्व को ऐतिहासिक रूप से खुद निभाते आए हैं।
महात्मा गांधी के घुमंतु जीवन में ऐसे अनगिनत अवसर आए जिनसे स्वच्छता और सेवा का संबंध स्पष्ट रूप से सामने आ जाता है और तब गांधीजी अपने आप को ‘हरएक को खुद का सफाईकर्मी होना चाहिए’ के आदर्श के जीते-जागते उदाहरण के रूप में पेश करते हैं।
इस बात के बारे में आश्वस्त हो जाने पर कि वह ‘किसी को भी गंदे पांव अपने मस्तिष्क से होकर गुजरने नहीं देंगे’, गांधी जी ने झाड़ू को जीवन भर मजबूती से अपने हाथों में थामे रखा और ‘सफाईकर्मी की तरह’ अपनी सेवाएं उपलब्ध कराने का कोई अवसर नहीं गंवाया।
राष्ट्रपिता के लिए स्वच्छता का कार्य एक ऐसा सामाजिक हथियार था जिसका उपयोग वह साफ-सफाई में बाधा डालने वाली जाति और वर्ग की बाधाओं को दूर करने में करते थे और यह आज तक प्रासंगिक बना हुआ है। महात्मा गांधी ने आजादी हासिल करने के अपने अहिंसक आंदोलन की समूची अवधि के दौरान स्वच्छता के अपने संदेश को जीवंत बनाए रखा।
नोआखाली नरसंहार के बाद भी गांधीजी ने अपने स्वच्छता के संदेश को जन-जन तक पहुंचाने का कोई अवसर नहीं गंवाया। एक दिन नोआखाली के गड़बड़ी वाले इलाकों में उन्होंने पाया कि कच्ची सडक़ पर कूड़ा और गंदगी इसलिए फैला दी गयी है ताकि वह लोगों तक शांति का संदेश न पहुंचा पाएं। गांधी जी ने इसे उस कार्य करने का एक सुनहरा अवसर माना जो सिर्फ वही कर सकते थे। झाडिय़ों की टहनियों से झाड़ू बनाकर अपने विरोधियों की गली की सफाई की और हिंसा को और भडक़ने से रोक दिया।
उनके लिए ‘स्वस्थ्य तन, स्वस्थ मन’ की कहावत में एक गहरा दार्शनिक संदेश छिपा हुआ था। वह स्वच्छता को स्वतंत्रता आंदोलन का अभिन्न अंग मानते थे और स्वच्छता की कमी को हिंसक कृत्य के समान मानते थे। इसलिए वह सामाजिक-राजनीतिक, दोनों ही तरह की स्वतंत्रता के मार्ग में स्वच्छता और अहिंसा सहयात्री की तरह मानते थे। गांधीजी पश्चिम में स्वच्छता के सुचिंतित नियमों को देख चुके थे। हालांकि इसके लिए उन्होंने जो कार्य शुरू किया उसमें से ज्यादातर अब भी अधूरे ही हैं।
‘‘वर्षों पहले मैंने जाना कि शौचालय भी उतना ही साफ-सुथरा होना चाहिए जितना कि ड्राइंग रूम’’। अपनी जानकारी को ऊंचे स्तर पर ले जाते हुए गांधीजी ने अपने शौचालय को (वर्धा में सेवाग्राम के अपने आश्रम में) शब्दश: पूजास्थल की तरह बनाया। शौचालय को इतना महत्व देकर ही जनता को इसके महत्व के बारे में समझाया जा सकता है।
देश को 2 अक्तूबर 2019 तक खुले में शौच से मुक्ति दिलाने का लक्ष्य उसी दिशा में उठाया गया पहला कदम है। लेकिन ‘शौचालय आंदोलन’ को ऐसे ‘सामाजिक आंदोलन’ में बदलना, जिसमें शौचालयों का उपयोग आम बात बन जाए, तभी संभव है जब हम गांधी जी के जीवन से सबक लें। हमें शौचालयों की सफाई करने और सीवेज के गड्ढों को खाली करने के बारे में गांव के लोगों की अनिच्छा जैसी सामाजिक-सांस्कृतिक वर्जना को दूर करना होगा।
(लेखक, अनुसंधानकर्ता और शिक्षाविद हैं)