Gangaur Ka Mahatva: सामूहिकता को सहेजती गणगौर
Gangaur Ka Mahatva: गणगौर का यह त्योहार राजाओं के समय में जितना प्रासंगिक था, उसकी प्रासंगिकता आधुनिक समय में उससे कहीं अधिक है अगर हमें अपने समाज अपने परिवार को बचाना है तो।
Gangaur Ka Mahatva: 'गणगौर' यह शब्द सुनते ही मारवाड़ की हर लड़की और विवाहिता के हृदय में उल्लास खुद ब खुद दस्तक देने लगता है। एक पर्व जो कि राजस्थान तथा हरियाणा और मध्य प्रदेश के कुछ क्षेत्रों का न केवल प्रमुखतम त्यौहार है बल्कि देशी- विदेशी पर्यटकों और उपभोक्तावादी बाजार की दृष्टि में भी एक बहुत महत्वपूर्ण अवसर है। यह वह लोक पर्व है जो कि एक सांस्कृतिक उत्सव भी है तो धार्मिक मान्यताओं वाला भी, यह सामाजिकता और सामूहिकता का पर्व है तो मानवीय संवेदनाओं से गहरा रिश्ता रखने वाला भी। ऐसे में अगर हम पीछे मुड़कर देखने की जगह वर्तमान को देखते हैं और भविष्य की ओर दृष्टि डालते हैं तो हम एक यक्ष प्रश्न अपने सामने खड़ा पाते हैं कि आज के समय में गणगौर को मनाने की प्रासंगिकता क्या है? क्यों हमें आज भी इस पर्व को मनाना चाहिए? आज जब महिलाएं पहले से अधिक स्वतंत्र, स्वावलंबी, एकाकी और आत्मनिर्भर होती जा रही हैं, ऐसे में इस त्यौहार को मनाने की आवश्यकता क्यों है?
इस खुली अर्थव्यवस्था के दौर में हम उपभोक्तावादी संस्कृति में रस-बस गए हैं और इस दुनिया में लोक पर्व और लोकगीत गंवारपन, फुहड़पन और अतीतजीविता के प्रतीक बनते जा रहे हैं। और जैसे हर पुरानी चीज उपेक्षित हो जाती है, वैसे ही हमारे लोक पर्व और लोकगीत भी उपेक्षित होते जा रहे हैं। कुछ क्षेत्रों और शहरों को छोड़ दें तो आने वाली पीढ़ी इन लोक पर्वों के प्रति उदासीन और उत्साहहीन होती जा रही है। वाचिक परंपरा का स्थान तकनीकी संसाधनों ने ले लिया है। संयुक्त परिवार प्रणाली बिखरकर एकल परिवार में और इससे भी टूट कर व्यक्ति- व्यक्ति के एकाकी रूप में सामने आने लगी है। समाज में वैवाहिक संबंध या तो संबंध विच्छेद की परिणिति पर पहुंच रहे हैं या फिर देरी से होते शादी-ब्याह और कुंवारे लड़के -लड़कियों की बढ़ती संख्या में बदलते जा रहे हैं। समाज के लोक पर्वों और लोक संस्कृति के अस्तित्व पर निश्चित रूप से यह एक काले बादल की तरह आच्छादित हो चुका है। जब रिश्ते, परिवार, संबंध और विवाह ही नहीं रहेंगे तो लोक पर्वों, लोकगीतों और लोक संस्कृति का नामलेवा कौन होगा? यहीं उसकी आवश्यकता और प्रासंगिकता पर प्रश्न चिन्ह लगने लगा है।
लोक पर्वों की परंपरा को मजबूती से थामे रहने की जरुरत
हमें समझना होगा कि लोक संस्कृति और लोक पर्व सिर्फ विचार, आस्थाएं या कर्मकांड नहीं होते बल्कि विश्वास, चेतना और आचरण की अनुभूति का विकास भी होते हैं। हमें अपने पर्वों की वैज्ञानिकता और सामाजिकता सिद्ध करनी होगी क्योंकि जब तक हमारी दैनिकचर्या और हमारे अनुभव एक जैसे नहीं होंगे तब तक संस्कृति का अंतर्विरोध जारी रहेगा और उसको मनाने की प्रक्रिया सिर्फ औपचारिक ही रह जाएगी। हमें यह समझना होगा कि आज हमारे समाज में जो भी समस्याएं हैं, परिवारों का विघटन, संबंध विच्छेद आदि उसकी जड़ में पृथकता का भाव प्रमुख है। किसी भी सभ्यता के विकास में उसकी लोक संस्कृति और लोक पर्वों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है और बगैर लोकगीतों के हम मानव जाति की संवेदनाओं के अनुगूंज की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। सामूहिकता और वाचन परंपरा ही गणगौर जैसे लोक पर्वों को मनाने का प्रमुख आधार होते हैं और आज के इस तकनीकी युग ने इस सामूहिकता को सबसे गैर जरूरी और अप्रसांगिक बना दिया गया है। फलत: इसका परिणाम तनाव, आत्महत्या, एकाकीपन, रिश्तों में बिखराव और भटकाव के रूप में हमारे सामने आ रहा है।
हम अपने तीज़ -त्योहारों को अपनी इच्छा के अनुसार उल्लास और आनंद की योग्य नहीं बन पा रहे हैं और न ही सामूहिकता में साथ बैठकर दुनिया की आपाधापी का मुकाबला कर पा रहे हैं। इसलिए यह जरूरी हो गया है कि हम अपने लोक पर्वों की परंपरा को मजबूती से थामे रहे ताकि हम अपनी नई पीढ़ी को उनके आगे के जीवन का मजबूत आधार दे सकें। इन लोक पर्वों की लोक कथाएं किसी भी तरीके का दबाव डालने या डराने के लिए नहीं बनी होती है बल्कि यह सामुहिकता के निर्भाव के लिए, साथ बैठकर रतजगा कर आनंद और उल्लास लेने के लिए बनी थीं। यह एक तरह का विलक्षण प्रयोग हमारे पुरखों द्वारा किया गया था जो कि वर्तमान समय में अप्रासंगिक बताकर भुलाया जा रहा है और यह स्थिति इस समाज को ईर्ष्यालु, झगड़ालू और स्वार्थी बना रही है। सामाजिकता का लोप हो रहा है और संबंध खत्म होते जा रहे हैं। हमारे लोकपर्वों में उम्र का लिहाजा था और वरिष्ठता को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था लेकिन अब स्थितियां बदल चुकी हैं। अब इस आभासी संसार में आत्मकेंद्रित दुनिया और अहं ब्रहास्मि का भाव ही प्राथमिक हो गया है
ईश्वरीय उल्लास का आधार हैं लोक पर्व
किसी भी समाज की संवेदनात्मक अनुभूतियों का विकास उसकी लोक संस्कृति के बिना संभव नहीं। हमारे अनेकों गीत और हमारी लोक कथाएं लुप्त होती जा रहीं हैं, तो क्या भविष्य में इन लोक पर्वों को मनाने वाले लोग नहीं बचेंगे? हमारे यहां लोक पर्व का अर्थ 'फेस्टिवल' नहीं है। हमारे पर्व दमित भावनाओं या वासनाओं का उभरा हुआ स्वरूप भी नहीं है बल्कि यह ईश्वरीय उल्लास का आधार हैं, ये पवित्र हैं। आज वैश्वीकरण के जमाने में जहां धन लोलुपता सामाजिकता समरसता और भाईचारे के लिए खतरा बन चुकी है तो सामूहिकता को सहेजना, मिल -बैठकर एक साथ लोक गीतों को गाना, मनोरंजन करना, लोक संस्कृति को सम्मान देना बहुत जरूरी हो गया है और इसे किया जाना चाहिए। यह हमारा स्व दायित्व है कि लोक संस्कृति और लोक पर्वों को संरक्षित कर अपने समाज और परिवार को संस्कारित करने का अवश्य ही प्रयास करें। यह परंपरिकता ही हमारे लोक जीवन के मूल में स्थित है और इन लोकगीतों में ही प्रकृति से सहचार्य की सहजता है और आक्रामक आधुनिकता से बचाव भी जो कि हमारे लोक जीवन को विच्छेदित कर रही है, उसे हमें सहेजना अति आवश्यक है।
गणगौर का महत्व
गणगौर बिखरते दांपत्य जीवन की मजबूती के लिए एक प्रेरणा भी है। एक लड़की को उसके मायके में आदर -सत्कार और प्यार देना क्या होता है तो यह कोई गणगौर से सीखे। वे हरे जवारे समृद्धि का प्रतीक हैं और हमारे देश की कृषि व्यवस्था का भी। उसको जतन से सींचना भी कोई गणगौर से सीखे। एक लड़की जो कि दूसरी मां से उत्पन्न संतान होती है और किसी दूसरे घर में एक पत्नी के रूप में जाती है, उसे पराई जाई के साथ लड़कों को कैसे निभाना चाहिए, कैसे ढाबना आना चाहिए, यह भी कोई गणगौर से सीखे। बुआ, बहनें, नंदोई, भाई, सास,ससुर, जेठ, जेठानी आदि सब रिश्तों का जीवन में क्या महत्व होता है, यह यह कोई गणगौर से सीखें। गणगौर सुख बांटने का संदेश भी है तो राजस्थान की सांस्कृतिक विरासत का गौरवपूर्ण प्रतीक भी, यह पारिवारिक चेतना की दृष्टि भी है तो संबंधों और विचारों को संकल्पना और विचारों को अपनाने की प्रेरणा भी। गणगौर का यह त्योहार राजाओं के समय में जितना प्रासंगिक था, उसकी प्रासंगिकता आधुनिक समय में उससे कहीं अधिक है अगर हमें अपने समाज अपने परिवार को बचाना है तो।