सुनो सरकार ! उम्मीद मत टूटने देना
सरकार की जनता के प्रति जिम्मेदारी एक मां की तरह ही है। उस मां की तरह, जो न तो उम्मीद टूटने दे और न ही उसे महज सपना बनाए रखे बल्कि उम्मीद को हकीकत में तब्दील करे। इसलिए, सुनो सरकार ! खबरदार ! यह जो कोरोना महामारी और इससे उपजा माहौल है, इसमें उम्मीद मत टूटने देना।
रतिभान त्रिपाठी
ग़रीबी में उम्मीद और नाउम्मीदी के फासले को लेकर मेरी मां ने बचपन में एक दंतकथा सुनाई थी। मां की सहज बुद्धि से अपनी बोली में उपजी यह दंत कथा कुछ ऐसी है-
माघ कै मघुलिया पूस कै पुसुलिया
फागुन मा ख्यालौ फाग चइत मा अनाजै अनाज।
कथा विस्तार कुछ इस तरह से कि एक गरीब मां के कई बच्चे थे। घर में जो अनाज था, वो अगहन में ही खत्म हो गया। अब संकट यह कि मां करे क्या? मां को उम्मीद बंधाने का उपाय सूझा। मां ने भूख से बिलख रहे बच्चों को यह कहते हुए पूस माघ फागुन और चैत तक ढाढ़स बंधाए रखा मानो तीन महीनों के नब्बे दिन कोई हंसी खेल हों। मां ने बच्चों से कहा--
माघ कै मघुलिया, पूस कै पुसुलिया।
फागुन मा ख्यालौ फाग, चइत मा अनाजै अनाज।।
..और उम्मीद की ताकत यह कि बच्चे तीन महीने तक भूखे होते हुए भी जीवित रह गए। चैत का महीना आया। खेत से अनाज घर आ गया। बच्चे खुशी से झूम उठे। मां की बंधाई वह उम्मीद उनके सामने साकार थी अनाज के ढेर के रूप में।
लेकिन दुर्भाग्य देखिए। जब अनाज घर पर था तो मासूम बच्चों ने फिर सवाल किया। जल्दी करो मां, रोटी कब मिलेगी ? अनाज तो घर आ गया। इस पर मां ने कहा--
पहिले कांड़ौं, फेर पिसान पीसौं, फेर रोटी पोऊं, फेर सेंकौं, तवै खाव...।
दो तीन घंटे की इस सामान्य सी प्रक्रिया को मां ने अपनी ही बातों से इतना लंबा बना डाला यानी नाउम्मीदी में बदल डाला, मानो यह रोटी उन्हें दो तीन बरस में मिल पाएगी,.....और निराशा में वो बच्चे मर गए।
यह दंतकथा उम्मीद और नाउम्मीदी के बीच के फासले यानी आशा और निराशा के अंतर की व्याख्या करती है। सरकार की जनता के प्रति जिम्मेदारी एक मां की तरह ही है। उस मां की तरह, जो न तो उम्मीद टूटने दे और न ही उसे महज सपना बनाए रखे बल्कि उम्मीद को हकीकत में तब्दील करे।
इसलिए, सुनो सरकार ! खबरदार ! यह जो कोरोना महामारी और इससे उपजा माहौल है, इसमें उम्मीद मत टूटने देना।