Hindi Journalism Day 2022: यहाँ तीर भी चलाने हैं, और परिंदे भी बचाने हैं
Hindi Journalism Day 2022: भारत में हिंदी पत्रकारिता को आज 196 साल पूरे हो गए हैं। भारत में हिंदी पत्रकारिता का जन्म गैर हिंदी भाषी प्रांत बंगाल (Bengal) में हुआ।
Hindi Journalism Day 2022: हम लोग हिंदी पत्रकारिता दिवस (Hindi Journalism Day) की पूर्व संध्या पर यहाँ एकत्रित हुए हैं। हिंदी पत्रकारिता को हमारे तमाम साहित्यकारों ने समृद्ध किया है। हम यह भी कह सकते हैं कि पहले साहित्यकार ही पत्रकार हुआ करते थे। इस लिहाज़ से इस साल का हिंदी पत्रकारिता का दिवस मनाना हमारे लिए बेहद गौरव की बात होनी चाहिए । किताबों की बिक्री के लिहाज़ से दिया जाने वाला प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार इस साल मूल रूप से हिंदी में लिखी गयी किताब 'रेत समाधि' को मिला है। जिसकी लेखिका गीतांजलि श्री (Writer Geetanjali Shree) हैं। इसका अंग्रेज़ी अनुवाद भी हुआ है।
हमारे कई पत्रकार साथियों ने कई गरमा गरम बातें करके विचार विमर्श को इतना गर्म कर दिया है कि मेरे लिए एक वक्ता व अध्यक्ष के तौर पर बहुत विभ्रम की स्थिति हो गयी है। हो सकता है इस विभ्रम में कुछ या कोई गलती हो जाये।
हिंदी पत्रकारिता को आज 196 साल पूरे
भारत में हिंदी पत्रकारिता को आज 196 साल पूरे हो गए हैं। भारत में हिंदी पत्रकारिता का जन्म गैर हिंदी भाषी प्रांत बंगाल (Bengal) में हुआ। हिंदी पत्रकारिता के जनक पंडित जुगल किशोर शुक्ल का जन्म कानपुर में हुआ था। वे जीविकोपार्जन की तलाश में कलकत्ता चले गए। उन्होंने 16 फरवरी,1826 को अखबार निकालने के लिए सरकार से लाइसेंस प्राप्त किया। 30 मई,1826 को कलकत्ता से हिन्दी साप्ताहिक 'उदन्त मार्तण्ड' का प्रकाशन शुरू हुआ। 'उदन्त मार्तण्ड' के मुद्रक और मैनेजर मन्नु ठाकुर थे। 'उदन्त मार्तण्ड' के कुल 79 अंक प्रकाशित हुए। आर्थिक संकट के चलते दिसंबर,1827 में अखबार को बंद करना पड़ा। जुगल किशोर शुक्ल जी ने 'उदन्त मार्तण्ड'के अंतिम अंक में लिखा:-
आज दिवस लौउग चुक्यो मार्तण्ड उदन्त।
अस्तांचल को जात है दिन कर दिन अब अंत।।
अगर विश्व पत्रकारिता के इतिहास की बात करें तो ईसा से 59 वर्ष पूर्व जूलियस सीज़र ने रोम से 'एक्टाडियोनी रोमानी' नामक समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया था। 263 ईसवीं में चीन के पेइचिंग से 'चीनी गजट' प्रकाशित हुआ।जबकि 1620 में हॉलैंड से अंग्रेजी का नियमित अख़बार निकलने लगा था।
भारत में पत्रकारिता के जनक जेम्स ऑगस्टन हिकी थे
भारत में 1550 में पुर्तगाली मिशनरियों ने गोवा में पहला छापाखाना लगाया। भारत में पत्रकारिता के जनक जेम्स ऑगस्टन हिकी थे। उन्होंने 29 जनवरी,1780 में कलकत्ता से 'बंगाल गजट एंड कलकत्ता जनरल एडवाइजर' नाम का समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया। 'बंगाल गजट' (Bengal Gazette) भारत का पहला आधुनिक समाचार पत्र था,जो कि 'हिकी गजट' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जेम्स ऑगस्टन हिकी ने 'बंगाल गजट' के जरिए प्रकारांतर में भारत की भावी पत्रकारिता का न्यूनतम आदर्श तय कर दिया था। हिकी ने निर्भीक पत्रकारिता की मिसाल पेश की। वह सरकार की आलोचनाओं और यहाँ तक कि तत्कालीन गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स की निंदा करने से भी नहीं चूके। हालाँकि उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ी। 'बंगाल गजट' पर सरकारी छापे पड़े। जुर्माने हुए। सरकार ने 'बंगाल गजट' को बंद करा जेम्स ऑगस्टन हिकी को जेल भेज दिया। अंततः उन्हें भारत छोड़ने का आदेश दे दिया गया। यात्रा के दौरान जहाज़ में ही उनकी दुःखद मृत्यु हो गई थी।
इन्होनें की थी ब्रेक भारत के आज़ादी की खबर
सबसे पहले कहूँ तो हमें आप जैसे ज़िले के पत्रकारों से बड़ी ईर्ष्या होती है। रश्क होता है। क्योंकि भारत की तीन सबसे महत्वपूर्ण खबरों को ब्रेक करने का श्रेय आपको जाता है। भारत के आज़ादी की खबर आपने ब्रेक की थी। हुआ यह था कि आज़ादी के आंदोलन का केंद्र गांधी जी का वर्धा आश्रम था। यहाँ नेताओं की बैठक चल रही थी। इसी बीच नागपुर कलेक्टर का लाल पट्टे वाला चपरासी साइकिल से पहुँचा । चपरासी ने एक आप सरीखे पत्रकार से पूछा जवाहर लाल नेहरू कहाँ मिलेगें? पत्रकार की जिज्ञासा जागी , "उसने उल्टा सवाल पूछा क्या बात है?" चपरासी बोला,"कलेक्टर नागपुर ने वायसराय की चिट्ठी भेजी है।" पत्रकार साइकिल से टेलीग्राम ऑफिस जा पहुँचा । उसने एक खबर चलाई- "वायसराय ने नेहरू को सरकार बनाने का निमंत्रण भेजा।" रिपोर्टर ने अपने विवेक का इस्तेमाल किया।
देवरिया ज़िले में एक नारायणपुर गाँव है। घटना 14 जनवरी,1980 की है। उस गाँव के सामने बस से एक बुढ़िया कुचल गयी।ग्रामीणों ने बवाल किया। गाँव वालों का मनोबल तोड़ने के लिए पुलिस ने तांडव किया। सामूहिक दुराचार हुआ। बस से एक सीपीआई का कार्यकर्ता आ रहा था। उसने एक पत्रकार को बताया कि नारायणपुर को पुलिस ने घेर लिया है। उस ग्रामीण पत्रकार की दो पैरे की रिपोर्ट राजधानी लखनऊ में छपी। आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी की वापसी हुई थी। उन्हें प्रधानमंत्री बने पंद्रह दिन ही हुए थे। इंदिरा गांधी ने पहला दौरा नारायणपुर का ही लगाया। बनारसी दास की सरकार उत्तर प्रदेश से चली गयी। इस सरकार को जाने का श्रेय ग्रामीण पत्रकार को जाता है।
बड़ोदरा के उपनगर में विधानसभा का चुनाव हो रहा था। कांग्रेस उम्मीदवार ठाकुर भाई पटेल थे। इन्हें भावी मुख्यमंत्री बताया जा रहा था। इनके ख़िलाफ़ मज़दूर नेता जी पराड़कर लड़ रहे थे। एक ग्रामीण पत्रकार ने शैतानी में पटेल से पूछा कि पराड़कर ने आपको हरा दिया तो? पटेल का जवाब था," मेरी तो छोड़, मेरा एलसेसियन कुत्ता भी पराड़कर को हरा सकता है। यह खबर गुजरात समाचार में छपी। खबर पढ़कर जार्ज फ़र्नाडिस, मृणाल गोरे और मधुलिमये तमाम नेताओं के साथ बड़ोदरा जा धमके । पराड़कर का जम कर प्रचार किया। कहा," तय कीजिये कि आप कुत्ते को वोट देंगे या आदमी को।" ग्रामीण पत्रकार की शैतानी से पटेल हार गये।
आप बतायें इन तीनों खबरों के समकक्ष आपने किसी शहरी पत्रकार की कोई रिपोर्ट पढ़ी है। अब मैं अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण खबर की बात आप से शेयर करता हूँ। यह खबर 26.12.2011 की है। मैं इन दिनों दिल्ली के एक अख़बार में काम करता था। हमारे संपादक आलोक मेहता जी थे। देश में अन्ना आंदोलन चरम पर था। सरकार मनमोहन सिंह की थी। कहा जा रहा था कि अन्ना आंदोलन संघ की देन है। पर अन्ना हज़ारे इससे अलग खड़े दिखना चाहते थे। उन्होंने इसका खंडन कर दिया। आलोक जी ने हमसे कहा कि कोई ऐसी खबर दे सकते हो जिससे यह स्टैबलिश हो जाये कि अन्ना हज़ारे व संघ का कोई रिश्ता है। मैंने कहा,'कोशिश करता हूं।'हमने अपने गोंडा व चित्रकूट के ज़िले के साथियों से बात की। हमें एक फ़ोटो मिली जिसमें एक कार्यक्रम में अन्ना हज़ारे व नाना जी देशमुख एक साथ मंच पर बैठे थे। एक दस्तावेज ऐसा मिला मिला जिसमें एक संगठन में महासचिव व अध्यक्ष अन्ना व नानाजी थे। खबर के छपते ही भूचाल आ गया। सभी मीडिया में मेरी खबर मेरे नाम से चलने लगी। अन्ना हज़ारे के आंदोलन की हवा निकल गयी। पर यह आप सरीखे ज़िला संवाददाता के सहयोग से संभव हो सका।
पत्रकारिता के समक्ष की चुनौतियों व आपकी तैयारी की हम बात करते हैं। यह तो आम धारणा है कि अच्छा लिखने के लिए ज़्यादा पढ़ना पड़ता है।आप में से कितने लोगों ने पिछले एक साल में कोई एक किताब पढ़ी है।केवल एक साथी ने हाथ उठाया। वह भी मंच पर बैठे हैं।ऐसे में मेरे सामने आपसे यह कहने के सिवाय कोई विकल्प नहीं बचता है कि आप पत्रकारिता छोड़ दें और सब लोग अख़बार पढ़ना छोड़ दें। मैं दो तीन साल से अख़बार नहीं पढ़ता। इसकी कई वजहें हैं। पर एक दो वजहें आप के साथ साझा करता हूँ। एक बार मैं पान की दुकान पर खड़ा था। एक सज्जन सिगरेट लेने आये। उन्होंने सिगरेट सुलगाया। दुकानदार उनकी ओर मुख़ातिब हुआ। कहा साहब," कप्तान साहब का ट्रांसफ़र हो गया है।नये कप्तान का नाम भी उसने बताया।" उस समय मैं देश के एक बड़े दैनिक अख़बार में काम करता था। रात को हमारे क्राइम रिपोर्टर कप्तान साहब के तबादले की खबर लेकर आये। हमने माथा पकड़ लिया। पर हमारे संपादकों ने उस खबर को प्रकाशित करना ज़रूरी समझा। सरकार का शपथ ग्रहण होता है। हम दूसरे दिन उस खबर को बड़े सम्मान से पढ़ाते हैं। हादसे इतने मेरे वतन में है कि अख़बार निचोड़ो तो खून निकलता हैं। अख़बार की क़ीमत बढ़ती है तो लड़ाई पत्रकार नहीं लड़ता। लड़ाई हॉकर लड़ता है। आदि इत्यादि। जंगली जानवरों के बारे में शायद आप यह बात जानते हों कि यदि आदमी किसी जंगली जानवर को छू देता है, और वह जानवर वापस अपने झुण्ड में पंहुचता है तब झुण्ड के दूसरे जानवर उस जानवर को मिलकर मार डालते हैं। आपके झुण्ड में लगातार लोग साहिल हो रहे हैं, पर आप हैं कि उसमे शामिल होने का रास्ता बना रहे हैं कर बाद में स्यापा पीट रहे हैं।
अच्छे पत्रकार की विशेषता
अच्छी भाषा अच्छे पत्रकार की सबसे बड़ी विशेषता हैं। यह बात जितनी महावीर प्रसाद द्विवेदी के युग में सच और प्रासंगिक थी, उतनी ही आज भी। हिंदी व्याकरण के मनमाने प्रयोग भी देखे जा सकते हैं । कुछ तो संस्कृत से आए हुए शब्दों की बनावट को न समझने से होते हैं। इन्हें क्षम्य माना जा सकता है किंतु कुछ रिपोर्ट या टिप्पणी लिखने वालों की अपनी नासमझी से भी। कभी अच्छे शब्द भी चल पड़ते हैं तो उन्हें शुद्धता की चासनी में लपेटने के लालच में भ्रष्ट कर दिया जाता है-जैसे डिमॉनेटाइजेशन के लिए नोटबंदी अच्छा शब्द बना था। शुद्धतावादियों ने इसे विमौद्रीकरण, विमुद्रीकरण, विमुद्रिकीकरण आदि बना दिया। अब मॉनेटाइजेशन के लिए भी मौद्रिककरण, मुद्रिकीकरण, मौद्रिकिकरण, मुद्रीकरण आदि चल रहे हैं।
इसी प्रकार समाजीकरण- सामाजिकीकरण, सशक्तिकरण- सशक्तीकरण आदि का भ्रम भी देखा जाता है। ये उदाहरण तो केवल एक प्रत्यय '-ईकरण' के प्रयोग को न समझने के हैं। प्रत्यय और भी अनेक हैं और उनसे बनने वाले शब्द भी। आप पलीता लगाना लिखते हैं। पर होता है पलीता चढ़ाना। आप फ़तवा को लेकर लिखते हैं। पर हक़ीक़त यह है कि इलेक्शन के बारे में फ़तवा नहीं दे सकते। फ़तवा केवल धर्म पर स्पष्टीकरण देता है। प्रश्न धर्म से जुड़ा होना चाहिए ।कोरम शब्द औपचारिकता के लिए नहीं प्रयोग होना चाहिए । वह संख्या से जुड़ा शब्द है। क़वायद उर्दू शब्द है। उर्दू के हिसाब से इसका अर्थ व्याकरण है। बानगी शब्द उर्दू का नहीं है। हिंदी का है। इसका प्रयोग निरर्थक किया जा रहा है। इसका मतलब नमूना व सैंपल है। जज़्बा का बहुवचन जज़्बात है। जज़्बातों शब्द ग़लत है। ना नहीं इस्तेमाल होना चाहिए । न इस्तेमाल होना चाहिए । वो उर्दू में प्रयोग होना चाहिए,हिंदी में वे प्रयोग होना चाहिए । मुल्क से ज़्यादा अच्छा शब्द देश व स्वदेश है। लायक़ से लियाक़त शब्द बना है।
महारत शब्द नहीं है। शब्द महारथ है। गद्य में पूरा शब्द इस्तेमाल करना चाहिए । अनुस्वार प्रयोग नहीं करना चाहिए । बहुवचन में सुविधा होती है। गद्य में पूरा प्रयोग करें- बया नहीं बयान। खुलासा नहीं। खुला सा। मुख़ालफत को ख़िलाफ़त नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि ख़िलाफ़त का अर्थ विरोध नहीं है। ख़िलाफ़त- प्रतिनिधित्व, नुमाइंदगी, स्थानापन्ता। यह कहना ग़लत है कि दिलेर मेंहदी बेहद लोकप्रिय गायक हैं। यहां बेहद शब्द का ग़ैर ज़िम्मेदाराना इस्तेमाल है।
आज हिन्दुस्तानी समाज और परिवारों में हिन्दी भाषा में पढ़ना, व्यापार-व्यवसाय करना, दैनिक जीवन में हिन्दी का प्रयोग कम होता जा रहा है। आज से पचास साल बाद बच्चे अंग्रेजी भाषा को अपनी प्रथम भाषा के रूप में उपयोग करेंगे, यह विचारणीय प्रश्न है। तब हिंदी पत्रकारिता या वर्नाकुलर प्रेस क्या स्वरूप ग्रहण करेगा, इस पर हम सभी को अभी से सोचना जरूरी है।समाचार पत्रों की भाषा विशुद्ध साहित्यिक नहीं, सामान्य जन की आम-फ़हम भाषा होती है, किंतु वह गली- चौराहे की आमफ़हम भाषा भी नहीं होती। इन दोनों के बीच में ही कहीं मीडिया की भाषा की स्थिति होनी चाहिए।
नई सोच की जरुरत
• सोशल साइट्स, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और इंटरनेट के जमाने में प्रिंट मीडिया को नए ढंग से सोचना होगा।
• व्हाट्सएप्प, ट्विटर और फेसबुक पर हर समाचार बहुत ही तेज़ी से फ़ैल जाता है। सभी समाचार पत्रों के ऑनलाइन एडिशन भी आ गए हैं।
• आज हमें तेजी में व्हाट्सएप यूनीवर्सिटी की फेक खबरों को मात देनी है पर हमारी ताकत क्रेडिबिलिटी की है।यही हो सकती है।
• हम भले ही तेजी में पीछे रह जाएं पर हमें अपनी ताकत पर खेलना है।
आज सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव के चलते खबरों को प्रस्तुत करने का तरीका बदल गया है। अब न्यूज नहीं, व्यूज होते हैं। सवाल यह भी कि न्यूज होना चाहिए या व्यूज। सोशल मीडिया से आज हर व्यक्ति पत्रकार बन गया है। लेकिन खबरों की विश्वसनीयता भी एक बड़ा प्रश्न है। सोशल मीडिया सबसे बड़ा समाचार प्रसारक प्लेटफॉर्म तो है मगर यहां खबरों की गेटकीपिंग नहीं है।यह खतरनाक है।
सोशल मीडिया से डरने की ज़रूरत नहीं है। इसमें से किसान, श्रमिक, आदिवासी, महिलाओं आदि से जुड़े मुद्दे गायब हैं। इसमें केवल सेक्स व मंनोरंजन हैं। हल्के फुल्के संदेश व ज्ञान है। ऐसे में साफ़ हो उठता है कि सोशल मीडिया हाशिये के लोगों की आवाज क्यों नहीं बन पायेगा?
मिर्च मसाले की जगह तथ्य
• मैं किसी भी संचार माध्यम के खिलाफ नहीं हूं । पर मैं उसके सही और जिम्मेदार इस्तेमाल की बात कर रहा हूं।
• आजकल लोगों को व्हाट्सऐप इसलिए भी पसंद आ रहा है । क्योंकि उन्हें मिर्च मसाला लगाने में भी आसानी हो जाती है।
• वायरल होने और वायरल करने का फैशन चल पड़ा है। व्हाट्सऐप और फेसबुक का सहारा लेकर घंटो के हीरो और हिरोइन बनते हैं।
• उनकी लोकप्रियता का पूरा सम्मान है, ऐसा नहीं कि सोशल मडिया पर सब गडबड़ है। पर जो गड़बड़ है वो ही ज्यादा दिखता है।
• हमें मिर्च मसाले की जगह तथ्यों को लाना होगा। उतनी ही तेजी से उतने ही कलेवर के साथ।
अच्छा काम हमेशा चलता है
• लोग कहते है कि आज सच्ची और खोजी पत्रकारिता में गिरावट आ गयी है। मैं इससे सहमत नहीं हूं।
• आज भी अच्छी खबरें दिखती हैं, चलती हैं, लोगों को अपील करती हैं।
• अच्छी खबरें कोयले की खदान में पड़े हीरे की तरह होती हैं।
• दोस्तों, हीरे को ढूंढने और उसको तराशने के लिए मेहनत तो करनी ही पड़ती है।
• हमें यह इल्जाम लगाने से पहले खुद के अंदर भी झांकना होगा कि हमने कितने दिनों से हीरा ढूंढने की मेहनत नहीं की।
विश्वसनीयता का संकट
• आज पत्रकारिता और पत्रकार की विश्वसनीयता पर ही सवाल उठने लगा है।
• यह सच है कि जिसके खिलाफ खबर होती वही हमें बिका हुआ करार देता है।
• लेकिन इसमें सिर्फ दूसरे को दोष देने से हम बच नहीं सकते हैं।
• आज का मीडिया जिसे चाहे चोर बना दे, जिसे चाहे हिटलर। किसी का महिमामंडन करने से थकता नहीं तो किसी को गिराने से पीछे हटता नहीं।
• कोर्ट का फैसला आता भी नहीं पर मीडिया पहले ही अपना फैसला सुना देता है।
• कई ऐसे पत्रकार हैं जिनका नाम तो नहीं लूंगा पर वो पार्टियों के पे रोल पर हैं।
• हम जब अपनी कीमत लगाने देंगे तो बिकाऊ तो कहे ही जाएंगे।
एक तबका धीरे-धीरे ऐसा भी उभर रहा है जो मीडिया के सभी स्वरूपों से ऊब गया है। वह अब किसी भी विषय पर कोई भी प्रतिक्रिया नहीं करता। वह खबरों के खेल को समझ चुका है।आपकी तटस्थता और निष्पक्षता की पोल पट्टी जानता है। एक बड़ा पाठकवर्ग यदि इसी तरह कटता गया तो मीडिया का भविष्य कैसा होगा।
खबर का मतलब बुरी खबर ही नहीं है
• हमारे दिमाग में बैठा दिया गया है कि खबर का मतलब किसी का खिलाफत ही होती है।
• बिलकुल होती है पर ये किसने कहा कि यही सिर्फ खबर होती है।
• किसी के अच्छे काम की खबर भी लोग उतने ही चाव से पढ़ते हैं।
• डिजिटल प्लेटफार्म में आजकल ऐसी बहुत सी खबरों को लाखों हिट्स मिलते हैं जिसमें किसी पुलिसकर्मी ने किसी की मदद की हो। किसी अफसर ने गाड़ी रोककर गरीब को कंबल दिया हो।
• हमें गलतियां निकालनी है पर अच्छाइयों से मुंह नहीं मोडना है।
राजनेता /रसूखदार लोग अब विरोध के स्वर सुनना नहीं चाहते, उन्हें सिर्फ प्रशंसा और समर्थन की आदत हो गई है। वह अब हर वक्त मीडिया के इस्तेमाल के जरिये मनुष्यों को नियन्त्रित करने लगे हैं। जब मीडिया मनुष्य को नियंत्रित करने लगे तो समाज में इसके खतरे दिखाई देने लगते हैं। दासता किसी की भी हो, मनुष्य की या टेक्नोलॉजी की, विकास के मार्ग में बाधा ही उत्पन्न करती है।
इस सहस्राब्दि जनसंख्या का अस्सी फीसद हिस्सा संदेश लिख कर या ऑनलाइन संवाद करना ज्यादा पसंद करता है। यह खुलासा ऑफकॉम के एक अध्ययन में हुआ है। इसके अनुसार सोलह से चौबीस वर्ष की आयु के पंद्रह फीसद युवा अपने फोन का इस्तेमाल लोगों से बातचीत के लिए नहीं करना चाहते, बल्कि मौखिक बातचीत के स्थान पर वे संदेश भेजना अधिक पसंद करते हैं।
आज की किशोर पीढ़ी एक ही कमरे में अपने आसपास बैठे लोगों से बात करने के बजाय संदेश ही भेजती है। दरअसल, हम एक शोर रहित और आवाज रहित विश्व का हिस्सा बन चुके हैं। सार्वजनिक स्थानों पर होते हुए भी एक निजी विश्व निर्मित हो जाता है, जैसे भीड़ में, ट्रेन में, सड़क पर कहीं भी चलते हुए या बैठ कर हम ईअरफोन के जरिए अपना प्रिय संगीत सुन सकते हैं। जबकि एक-दो दशक पहले तक ट्रेन या बस में यात्रा करते समय लोग एक-दूसरे से बातचीत करके परिचय बढ़ाने में रुचि रखते थे, राजनीतिक व गैर-राजनीतिक विषयों पर चर्चा करते थे, खाना-पीना साझा करते थे। लेकिन अब यात्रा के दौरान ऐसा कोई शोर नहीं सुनाई देता, कोई अनुभव नहीं होता। अधिकांश लोगों के कानों में ईअरफोन या हेडफोन नजर आता है या फिर मोबाइल, लैपटॉप पर वीडियो देखने में व्यस्त होते हैं। संभवत: इसलिए इस पीढ़ी को 'खामोश पीढ़ी' की संज्ञा दी जाती है। यह खामोशी मीडिया के लिए बुरी है।
संवादहीनताआज पत्रकारिता जगत के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। पहले पत्रकारों और नेताओं के बीच संवाद होता था और अब आलोचनात्मक स्टोरी करने वालों को दुश्मन समझा जाता है। यही कारण है कि आज चैनलों के स्टूडियो वॉर रूम बन गए हैं। मीडिया भी दो धड़ों में बंटा हुआ है। पक्ष या विपक्ष। निष्पक्ष कुछ भी नहीं रह गया है। चैनलों में सिर्फ सनसनीखेज खबरों और मुद्दों को तरजीह दी जा रही है। सोशल मीडिया ने आज हर आदमी को सिटीजन रिपोर्टर बना दिया है। मीडिया का स्वरूप बदलता जा रहा है।
एक बड़ी चुनौती इन दिनों पत्रकारों पर हमलों और उत्पीड़न की भी है। बलिया में बेवजह पत्रकार जेल में रहे। मध्यप्रदेश में उन्हें थाने में नँगा किया गया। पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कठोर कानून बनाए जाने की जरूरत है। यही नहीं क्रिमिनल डेफामेशन कानून को भी खत्म करने की जरूरत है। इस समय पत्रकारों को भी नेशनलिस्ट और एंटी नेशनलिस्ट के नजरिए से देखा जा रहा है। किसी के खिलाफ स्टोरी करने का यह तात्पर्य नहीं कि हम उसके दुश्मन है।
सोशल मीडिया के जोर पकड़ने के कारण पत्रकारों के सामने चुनौती यह है कि वह फेक न्यूज को पहचानें। सोशल मीडिया को कंट्रोल केवल ऐसे सिस्टम से हो सकता है जोकि कंटेंट को रेगुलेट करें। पत्रकार कोई परफार्मर नहीं है, जोकि परफार्म करें। पत्रकारों का काम सिर्फ घटनाओं को देखकर उन्हें रिपोर्ट करना है न कि पार्टी बनना।
मैं डिजिटल और प्रिंट दोनों का ही प्रतिनिधि
• मैंने पहले ही कहा था कि मैं किसी संचार माध्यम, सोशल मीडिया के खिलाफ नहीं हूं। मैं हो भी नहीं सकता हूं।
• प्रदेश की सबसे बड़ी हिंदी बेबसाइट्स 'न्यूजट्रैक डॉट कॉम'और अखबार 'अपना भारत' दोनों ही मेरे ग्रुप का हिस्सा हैं।
• बतौर ग्रुप एडीटर मुझे डिजिटल की स्पीड और प्रिंट की क्रेडिबिलिटी दोनों का ध्यान रखना होता है।
• हमारी कोशिश होती है कि तेज के चक्कर में तथ्य ना मरे। Breaking के चक्कर में Bias (बायस) ना दिखाई दे। Compettition के चक्कर में compromise ना हो जाय।
• हमें संचार माध्यमों की लड़ाई में नहीं पड़ना है, हमें ताकत को बांटना नहीं एकजुट होना है।
• हमें मिलकर प्रेस को सप्रेस (दबाने) वाली ताकतों का जवाब देना है।
हमें लगता है पत्रकारिता अब केवल यह रह गयी है-
मुख़्तर सी ज़िंदगी के अजीब से अफ़साने हैं
यहाँ तीर भी चलाने हैं, और परिंदे भी बचाने हैं।
इस आयोजन के लिए संयुक्त प्रेस क्लब के साथी सुनील मिश्रा जी, प्रमोद लोधी जी, संदीप शर्मा बधाई के पात्र हैं। बधाई उन साथियों को जिन्होंने इस विक्टोरिया पार्क को भगत सिंह पार्क बनाने और शहीद भगत सिंह की मूर्ति लगाने में अनथक परिश्रम किया । मंच पर बैठे अपने सहगोयी अनिल गुप्ता जी, मनीष गुप्ता जी, राकेश गांधी जी , नेत्र पाल सिंह चौहान, कृष्ण प्रभाकर उपाध्याय जी, अपर पुलिस अधीक्षक धनंजय कुशवाहा जी, अनिल मिश्रा जी के प्रति आभार।
(संयुक्त प्रेस क्लब, एटा में हिंदी पत्रकारिता दिवस, 2022 की पूर्व संध्या पर आयोजित कार्यक्रम में किया गया संबोधन ।)
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