प्रसिद्ध हो जाने की यह जल्दबाजी क्यों
हिंदी की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार कौन' इस बात पर एक बड़ा सा भाषण हर हिंदी विशेषज्ञ के पास हमेशा तैयार मिलेगा
हिंदी के लेखक और अ-लेखक सभी प्रसिद्ध हो जाने की जल्दी में क्यों हो गये हैं? क्या उनके अंदर किसी तरह की कोई बेचैनी है, कोई असुरक्षा है या कोई और कारण है? मैं पहले भी कई बार लिख चुकी हूं कि यह अजीब से संक्रमण का दौर चल रहा है, हम हिंदी की बात करते हैं, हिंदी को बढ़ाने की बात करते हैं और उस हिंदी की बखिया भी उधेड़ देते हैं। अब 'हिंदी की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार कौन' इस बात पर एक बड़ा सा भाषण हर हिंदी विशेषज्ञ के पास हमेशा तैयार मिलेगा। पर उसके साथ-साथ कई नए कारण भी अब खड़े हो गए हैं जो कि हिंदी की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार हैं। आज हिंदी जानने वालों की संख्या भले ही बढ़ रही है। पर उसके पाठक लगातार कम होते जा रहे हैं। हिंदी की किताबों के छपने की संख्या भले ही हर साल बढ़ रही है। पर उसके विषयों और विचारों में गहराई होने की जगह सतहीपन अधिक हो गया है। और यह सिर्फ उसकी ही क्यों प्रत्येक क्षेत्रीय भाषा के साथ भी कमोबेश यही स्थिति होती जा रही है। फिलहाल बात हिंदी की.... यूं लगता है कि अब हिंदी के पाठकों की संख्या कम और लेखकों की संख्या अधि हो गई है। हर आदमी हिंदी का लेखक बना बैठा है। आश्चर्य तो तब होता है जब इन स्व घोषित लेखकों को हिंदी के शब्दकोश के सुंदर शब्दों का प्रयोग करना है यह तो आता है पर कहां, किस अर्थ में वे शब्द जंचते हैं यह पता ही नहीं होता, बस प्रयोग किया जाना चाहिए और ऐसे कठिन शब्द सुनकर लोगों की आह और वाह तो जरूर ही निकलनी चाहिए।
यहां तक की हिंदी के अखबारों और चैनलों के कई पत्रकारों और रचनाकारों को भी किन शब्दों का प्रयोग कहां करना है यह नहीं पता होता है। उदाहरण के लिए मात्रा और संख्या शब्दों के प्रयोग का अपना अर्थ होता है। गत, आगत, विगत या वास्तविकता, यथार्थ, हकीकत ऐसे कई शब्द हैं जो इस समय याद आ रहे हैं, जिनके प्रयोग में गलतियां की जाती हैं। समानार्थक शब्दों का एक साथ प्रयोग या अलग-अलग स्थानों पर प्रयोग किए जाने वाले शब्दों का विपरीत प्रयोग करना उन शब्दों के प्रयोग को हास्यास्पद तो नहीं बनाता पर एक खीज जरूर पैदा कर देता है। कभी-कभी ऐसे स्वघोषित लेखकों (यहां लेखक में सभी तरह की विधाओं में लिखने वालों को शामिल किया गया है) द्वारा अपनी रचनाओं की गिनती सुनना भी उनके प्रति वह लेखकीय आकर्षण नहीं पैदा कर पता कि इनको सुनना या पढ़ना क्यों चाहिए। अब जबकि घोषित, स्व घोषित और अ-घोषित कुछ भी कहें लेखकों का एक वर्ग इतनी तेजी से उभर कर आ रहा है कि जिनकी रचनात्मकता में न तो पठन-पाठन की गहराई है और न ही कोई वैचारिक दृष्टिकोण। ऐसे में पाठकों से या दर्शकों से जुड़ाव के लिए उन्हें उसे दिखाने पर अधिक निर्भर हो जाना होता है। दिखाने का अर्थ प्रस्तुतीकरण नहीं बल्कि उसके शो-ऑफ से लगाया जा सकता है। बेहतरीन प्रस्तुतीकरण को किसी भी प्रकार की फूहड़ता का, अस्तरीयता का सहारा नहीं लेना पड़ता है। दर्शकों या पाठकों से सीधे जुड़ने के लिए सामग्री को रुचिकर होना आवश्यक है न कि हल्का होना
पाठक या दर्शक गंभीर रुचि वाले किस्म के हों या सामान्य रुचि वाले किस्म के अगर आपकी सामग्री रुचिकर है तो वह अवश्य ही सामने वाले को अपने साथ जोड़ लेगी। एक नुक्कड़ नाटक का उदाहरण देना यहां ठीक रहेगा। कई नुक्कड़ नाटकों का विषय एक ही हो सकता है। अब अभिनय करने वाले की क्षमता और उसमें वह कितनी जान फूंक कर उसे देखने वाले वालों के सामने अपनी संवेदनाओं के साथ, उसके सार्थक संदेश को भी पहुंचा पा रहा होता है या नहीं यह उस पर निर्भर करता है। उसके लिए उसे न तो हल्की या स्तरहीन जुमलेबाजी या संवादों की आवश्यकता होती है और न ही बाह्य साज़ -सज्जा़ के तरीके से खुद को सुंदर दिखाने की अधिक कोशिशों की। उसके संदेश का वैचारिक पक्ष संतुलित और मजबूत होना चाहिए, तब वह दर्शकों को बांधे रख सकेगा। किसी भी रचना में सतहीपन, तुका- बेतुका लिख देना, लिखना नहीं कहलाता। रचना खुद पाठकों को आकर्षित करने वाली होनी चाहिए अपने को पढ़ने के लिए। कोई भी रचनाकार ही सिर्फ रचना को नहीं लिखता है बल्कि वह उस रचना के माध्यम से खुद को भी लिखता है इसलिए कोई भी रचना लिखने वालों वाले की भी पोल खोलती है, उसके लिए भी आईना होती है।
और अंत में यह अधिकार चूँकि सबके पास है कि वह लेखक या पत्रकार बन जाएं । अगर उसके पास धन-बल है तो किताबें छपवाकर, लोकार्पण कराकर उसकी प्रतियां बांटकर अपने लिए तारीफ भी पक्की कर ली जाए और यह भी एक तरीका है अपने अंदर लेखक होने के अहं को जीवित रखने का। खैर सही भी है लेखक अगर अपना प्रमोशन नहीं करेगा तो कोई और तो करेगा नहीं उसके लिए यह। पर अतिरेक से बचना चाहिए क्योंकि इसमें आत्म प्रवंचना अधिक जान पड़ती है, जिससे सब कुछ नाटकीय और फेक लगने लगता है। हिंदी हम सबकी अपनी भाषा है, इसको संवारने और बढ़ाने का अधिकार भी हम सबका है पर इसे स्तरहीन बना देना या सतही बना देना कभी भी सही नहीं।
( लेखिका प्रख्यात स्तंभकार हैं।)