Hindu Funeral: आदमी का धुंआ बन जाना, कहानी जन्म से श्मशान तक की

Hindu Funeral: बहुत साल पहले गंगा के किनारे आधी रात को मैंने अपनी मां को धुंआ बनते और फिर मिट्टी में समाहित होते देखा था।

Newstrack :  Network
Update: 2023-01-20 05:32 GMT

Funeral (photo: social media )

Hindu Funeral: कल श्मशान घाट गया था। जबलपुर में हाथीताल श्मशान घाट। आदमी को धुंआ बनते देखने। आदमी एक दिन धुंआ बन जाता है। बन ही जाना होता है। जिस मिट्टी को वो पूरी जिंदगी रौंदता है उसी मिट्टी में समाहित हो जाता है। ये है श्मशान वैराग्य। बहुत साल पहले गंगा के किनारे आधी रात को मैंने अपनी मां को धुंआ बनते और फिर मिट्टी में समाहित होते देखा था।

मुझे बहुत दिनों तक लगता था कि आदमी मर कर फिर चला आता है। मुझे लगता था कि मरना कोई बहुत बड़ी बात नहीं। जैसे जीवन में बहुत-सी घटनाएं घटती हैं, वैसे ही आदमी मर भी जाता है। लेकिन मेरी मां मरने के बाद जब बहुत दिनों तक घर नहीं लौटी तो मुझे मां की बहुत चिंता होने लगी थी। मुझे लगने लगा था कि क्या मां सचमुच हमेशा के लिए चली गई है। अगर आदमी को हमेशा के लिए चले जाना होता है तो आदमी आता ही क्यों है? क्या फायदा आने का? जो चीज़ रहनी ही नहीं है, वो तो टाइम पास है। तो क्या आदमी का जीवन भी टाइम पास है?

मैं दार्शनिक नहीं था। छोटा बच्चा था। पर मां के जाने और इस रहस्य को समझने के बाद मेरे लिए जीवन का कोई अर्थ ही नहीं रह गया था कि आदमी को एक दिन चले जाना होता है। मेरे लिए ईश्वर का ये खेल शोक से अधिक चिंता का विषय था कि ऐसी रचना का लाभ ही क्या, जो कुछ वर्ष के लिए ही हो। मुझे कुछ भी ऐसा नहीं पसंद, जिसका वास्तव में कोई अर्थ ही न हो। मेरे लिए एक बच्चे का जन्म लेना, उसका लालन-पालन करना, बच्चे का बड़ा होना, फिर उसका अपना संसार बसाना और फिर चले जाना एक छल-सा लगने लगा था। ये कौन-सा खेल हुआ?

आदमी आता है, चला जाता है

मेरी मां भी चली गई थी। पर मेरी पीड़ा ये रही कि मां मेरे जेहन से कभी नहीं गई। काश! चली जाती। यादों का मिटना भी जीने के लिए ज़रूरी होता है। पर मुझे लगता है मां का जाना कम से कम बच्चों के जेहन से कभी नहीं जाता। मां कैसी भी हो, कितनी भी उम्र की हो, मां का धुंआ बन जाना उसके बच्चों को सालता है, जीवन पर्यंत।

कल हमारे भाई समान दोस्त और नगर के मेयर जगत बहादुर सिंह अन्नू की मां का निधन हो गया। मैं अन्नू से चार-पांच दिन पहले ही मिला था। पता चला था कि मां बीमार हैं। मैंने उनसे मां की तबियत के बारे में पूछा था। उनकी उदासी बहुत कुछ कह रही थी। मैंने सुना था कि मां जब तक अस्पताल में रही अन्नू मां के पास रहे। फिर मां चली गई। कल मैं जबलपुर के हाथीताल श्मशान घाट में उसी मां को धुंआ होते देख रहा था।

अन्नू जी से मेरा पुराना परिचय है। वो जब भी मिलते, हंस कर। खुश होकर। जब पहले मिलते थे तो वो नगर के मेयर नहीं थे। जब मेयर बन गए तो भी उनकी हंसी और खुशी वैसी ही रही, उतनी ही संजीदगी भरी। जब भी मिलते, गले लगाते। संजय भाई आप कैसे हैं? उनकी सादगी का और उनकी ऊर्जा का मैं हमेशा कायल रहा।

चुनाव के दिनों में जब मैं जबलपुर में था तो अचानक उन्होंने फोन किया, "संजय भैया, आपके घर आ रहा हूं।" वो आए, एक घंटा बैठे रहे। शहर के विकास के बारे में बात करते रहे। तब नहीं पता था कि वो मेयर बन ही जाएंगे। पर उनके भीतर का आत्मविश्वास ये बता रहा था कि वो अपने शहर को लेकर कितना सोच रहे हैं। जबलपुर से मेरा प्रेम आठ-नौ साल पुराना है। उनका तो इस शहर के साथ शायद जन्म का रिश्ता है।

हमने तय किया था कि हम फिर मिलेंगे। लंबी बातचीत करेंगे शहर के विकास को लेकर। हम दुबारा भी कई बार मिले। लेकिन हमेशा भागते हुए। अति व्यस्तता के बीच। ऐसा एक भी मौका नहीं आया जब भीड़ में उनकी नज़रें मुझसे मिलीं हो और वो भीड़ में भी मुझसे मिलने खुद आगे न बढ़े हों। कल भी अन्नू जी मिले। श्मशान घाट में। मैंने पल को ही सही, उनकी आंखों में देखा। एक बेटे की आंखों में। वहां गहरी टीस थी। वो बुदबुदाए, "मां चली गई संजय भैया।" चले जाना ही नियती है। कोई संजय सिन्हा से पूछे चले जाने का दंश क्या होता है? आदमी जीता रहता है। पर क्या वो सचमुच जीता रहता है?

मां को गए 42 साल 

मेरी मां को गए 42 साल हो गए। मुझे आज भी याद है वो धड़धड़ाती हुई ट्रेन जिसमें मैं, पिताजी और मां तीनों लोग कानपुर जा रहे थे बड़े डॉक्टर के पास। हमारे लिए तब बड़ा शहर सिर्फ कानपुर था। बड़ा अस्पताल सिर्फ कानपुर में था। बड़े डॉक्टर वहीं थे क्योंकि हमारे बड़े पिताजी कानपुर में रहते थे। ऐसा लगता था कि बड़े पिताजी के पास पहुंच कर सब ठीक हो जाएगा।

पर मां ठीक नहीं हुई थी। डॉक्टर ने मां को एक बार कैंसर क्या कह दिया, मां ठीक ही नहीं हुई। मां जिंदा रही, बीमार होने के एक साल तक। पर ठीक नहीं हुई। मैं छोटा था। पर उस एक साल ने मुझे बहुत बड़ा कर दिया था। मैं स्कूल जाना छोड़ कर मां के पास बैठा रहता था। वैसे ही, जैसे मैंने सुना था कि अन्नू मां के पास अस्पताल में बैठे रहते हैं। बेटों की आत्मा मां में बसती है। बेटे मां के अंश होते हैं। मैं मानता हूं कि संसार में सबसे अभागे वो बेटे होते हैं, जिनकी मां चली जाती है, हमेशा के लिए।

मैं भी अभागा था। मैं सच जान गया था कि मां कभी नहीं आएगी। पर कहते हैं न उम्मीद पर दुनिया कायम है। मुझे हर रात लगता था कि मां आ गई है। मैं आज भी न जाने रात में कितनी बार जाग कर मां से बातें करता हूं। मां मेरी हर समस्या को सुन लेती है। मैं आपको बिल्कुल विश्वास नहीं दिला पाऊंगा कि मां कैसे मेरी हर मुश्किल में मेरे पास आज भी आकर खड़ी हो जाती है। मैं जानता हूं कि मां चली गई है। पर मैं अपनी मां को महसूस करता हूं अपने आसपास।

मैं ये भी जानता हूं कि अन्नू की मां चली गई हैं। पर मैं यकीन से कह सकता हूं कि वो भी मां को महसूस करेंगे अपने आसपास। मांएं असल में कहीं जाती नहीं, अपने बच्चों में समाहित हो जाती हैं। बस उन्हें महसूस करने वाला दिल चाहिए होता है। मैंने अन्नू में वही दिल देखा है। मां की बीमारी में भी, और कल मां के धुआं हो जाने के बाद भी।

आदमी अमर नहीं होता है। पर वो अपने बच्चों में समाहित होकर अमर ही हो जाता है। बाकी शरीर का क्या है। "बुनी हैं जिस्म की रगें कुछ इस तरह कि एक नस, टस से मस और बस…। जीवन इतना ही है। कुछ रील की फिल्म। कुछ फिल्में जेहन में ताउम्र रह जाती हैं। मां के जाने की पीड़ा मैं महसूस कर सकता हूं। फर्क नहीं पड़ता कि वो संजू की मां थी या अन्नू की। मां तो मां है।

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