इंसानियत का प्रैक्टिकल कब?

जब हम लोग इतनी परीक्षाओं में प्रैक्टिकल करते हैं तो इंसानियत का प्रैक्टिकल क्यों नहीं होता कि व्यक्ति के अंदर कितनी इंसानियत है उल्टा ये सिखाया जा रहा कि ज्यादा भावुक होने की जरूरत नहीं है समाज को भावुक होना सीखाना होगा।

Update:2021-03-16 18:36 IST
इंसानियत का प्रैक्टिकल कब?

दक्षम द्विवेदी

हाल के दिनों में आयशा नाम की लड़की का वीडियो काफी चर्चा में है। जिसने दहेज प्रताड़ना तथा अपनी पति की बेवफाई के चलते खुदकुशी कर ली। कई न्यूज चैनल, पत्र-पत्रिका-वेब पोर्टल ने इस पर खबर भी बनाई। अब बात करते हैं कि कोई भी इंसान अगर अपना जीवन समाप्त करने के बारे में सोच रहा है तो उसके पीछे कोई बहुत बड़ा कारण होता होगा वो कारण अचानक से तो पनपता नहीं होगा। उसके अगल-बगल ऐसा कुछ घटता होगा जिसके बाद व्यक्ति इतना बड़ा आत्मघाती कदम उठाता है।

2019 में 90 हजार लोगों ने की आत्महत्या

आपको बता दें एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2019 में 90 हजार लोगों ने आत्महत्या की। नब्बे हजार, ध्यान दीजिए इस संख्या पर। ज्यादातर मामलों में जो खुदकुशी करने वाला व्यक्ति है वो काफी संवेदनशील और भावुक होता है। ऐसा उसके करीबियों से पता चलता है।आइये इस शब्द पर गौर करते हैं संवेदनशील अर्थात जिसके अंदर संवेदना होती जो किसी के दुख को देखकर स्वयं दुखी हो जाता है। बदलते दौर में या यूं कहे कि आधुनिकता की अंधी दौड़ में इस शब्द को लोग इस रूप में लेने लगे हैं कि ये तो मूर्ख है ये कैसे आगे बढ़ेगा।

आप सबने सुना होगा 'यार इतना इमोशनल होने की जरूरत नहीं है' ये हर दोस्त अपने दोस्त को समझाता है अब ऐसे में ये बात वो दोनों एक दूसरे पर लागू कर दें तो मनमुटाव की स्थिति आ जाएगी। जिसका अंजाम बुरा होगा। जहां तक मेरी समझ है संवेदनशील होना इस बात का प्रमाण कि इंसान के अंदर इंसानियत है। अब कहां तक संवेदनशील होना है इसका कोई पैमाना नहीं है उदाहरण के तौर पर एक मां से कोई यह पूछे कि आप अपनी संतान को कितना प्यार करती हैं तो मां उसकी मात्रा नहीं बता सकती न।

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(सांकेतिक फोटो- सोशल मीडिया)

आखिर क्यों बढ़ रहे खुदकुशी के मामले?

खैर अब आते हैं पुनः उस गंभीर सामाजिक समस्या यानी आत्महत्या पर। ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है आज से 20 वर्ष पहले की तुलना में खुदकुशी के मामले क्यों बढ़ रहे। पूरा मामला मनोविज्ञान से संबंधित है। जिस शिक्षा प्रणाली को लेकर हम आगे बढ़ रहे वो विज्ञान, गणित, अंग्रेजी, इतिहास आदि विषय पढ़ाती है पर एक इंसान के साथ कैसा व्यवहार करना है ये नहीं सीखा पा रही। व्यक्तित्व निर्माण (Personality Development) जैसे कोर्स में उसको झूठी मुस्कान, झूठा उठने बैठने का तरीका ही सिखाया जाता है। जो असली में उसके व्यक्तित्व से बिल्कुल विपरीत होता है।

इंसानियत का प्रैक्टिकल क्यों नहीं

जब हम लोग इतनी परीक्षाओं में प्रैक्टिकल करते हैं तो इंसानियत का प्रैक्टिकल क्यों नहीं होता कि व्यक्ति के अंदर कितनी इंसानियत है उल्टा ये सिखाया जा रहा कि ज्यादा भावुक होने की जरूरत नहीं है समाज को भावुक होना सीखाना होगा। ऐसी शिक्षा प्रणाली विकसित करनी होगी कि एक इंसान अपनी पूरी ज़िंदगी जी ले क्योंकि अगर कोई व्यक्ति खुद की जान ले रहा है तो इसी समाज का हिस्सा था तो जिम्मेदार ये समाज हुआ। फ्रेंच समाजशास्त्री ईमाइल दुर्खीम ने आत्महत्या के सामाजिक सिद्धांत की विशद् विवेचना अपनी पुस्तक "आत्महत्या" (The Suicide) में की है, जो सन् 1897 मे प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक में उन्होंने आत्महत्या का समाजशास्त्रीय विश्लेषण किया है।

(सांकेतिक फोटो- सोशल मीडिया)

दबाव के चलते उत्पन्न होती हैं आत्महत्या के अनुकूल भावनाऐं

दुर्खीम ने आत्महत्या से सम्बंधित अपने पूर्ववर्ती सभी सिद्धांतों को नकारते हुए हुए कहा है कि," इन सिद्धांतों मे मानसिक कारण, निर्धनता, निराशा, प्रेम में असफलता आदि जो कारण आत्महत्या के लिये बताये गये हैं वे सब वैयक्तिक कारण है। इनके आधार पर आत्महत्या की वास्तविक व्याख्या संभव नहीं है समाज या समूह व्यक्ति पर अस्वस्थ दबाव डालता है जिसके कारण व्यक्ति के मन में आत्महत्या के अनुकूल भावनाऐं उत्पन्न होती है।

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अंदर से टूट चुकी थी आयशा

आयशा ने ये लाइन क्यों बोली कि अल्लाह से ये दुआ करती हूं कि दुबारा इंसान की शक्ल न दिखाए। मतलब किस कदर उसका भरोसा टूटा होगा? यहां ये बोलना कि कायरता वाला कदम था, ऐसा नहीं करना चाहिए था। जब एक इंसान का भरोसा टूटता है तो अंदर से खुद भी टूट जाता है। उस वक्त उसकी क्या मनःस्थिति थी ये कोई नहीं जानता उसके परिचित ही इस विषय पर बोले तो सही रहेगा। पहले संयुक्त परिवार का चलन था इंसान के पास लोग होते थे वो अपनी बात किसी न किसी से साझा कर लेता।

जिससे उसका मानसिक विकास भी होता था उसमें सुरक्षा की भावना भी होती थी किंतु समय के साथ एकल परिवार का चलन बढ़ता चला गया जिसमें पैसे कमाने की चाह में माता-पिता इतना व्यस्त हो जा रहे कि संतान के लिए वक़्त ही नहीं मिल रहा ऐसे में उनकी संतान का ये अकेलापन कब अवसाद में तब्दील हो जाता है पता ही नहीं चलता। हमें ऐसी शिक्षा व्यवस्था को निर्मित करना होगा जो इस बात जोर दे कि इंसान संवेदनशील होते हुए खुद को मानसिक रूप से कैसे मजबूत बनाए।

सफलता के पैमाने भी निर्धारित कर दिए गए हैं क्यों न असफलता को एक सामान्य प्रक्रिया के तहत देखने का नजरिया विकसित किया जाए।आत्महत्या अंतिम विकल्प नहीं है ठीक है लेकिन हम अपने समाज की जड़ों को कब ठीक करेंगे जिसमें ये भाव डाले जाएं कि एक इंसान से एक इंसान कैसे बर्ताव करे?

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