देश को चाहिए राष्ट्रवादी मुसलमान
पिछले लगभग 70 वर्ष से सांप्रदायिक दंगे प्रायोजित कराकर स्वयंभू सेक्युलरवादी नेता गरीब मुसलमानों को संघ का डर दिखाते है। जरा जन्हें सोचना चाहिए कि मोदी शासन के 6 वर्षों में जो अमन-चैन का माहौल बना है, क्या ऐसा कभी किसी दूसरे प्रधानमंत्री के कार्यकाल में था
आर.के. सिन्हा
कभी-कभी मुझे इस बात की हैरानी होती है कि क्यों हमारे ही देश के मुसलमानों का एक बड़ा तबका नकारात्मक सोच का शिकार हो चुका है? इन्हें फ्रांस में गला काटने वाले के हक में तो बढ़-चढ़कर बोलना होता है, पर ये मोजम्बिक में इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा दर्जनों मासूम लोगों का जब कत्लेआम होता है तब ये चुप रहते हैं। ये हर मसले पर केन्द्र की मोदी सरकार का आदतन भले ही रस्म अदायगी के लिये ही क्यों न हो विरोध तो जरूर ही करते हैं। इससे इन्हें क्या लाभ है, यह समझ से परे की बात है। इनका पूरी तरह से ब्रेन वाश कर दिया गया है स्वयंभू सेक्युलरवादियों और कठमुल्लों ने।
सबसे ज्यादा खतरा मुसलमानों को
पाकिस्तान में जन्मे और अब कनाडा में निर्वासित जीवन बिता रहे प्रसिद्ध लेखक और पत्रकार ठीक ही कहते हैं कि कठमुल्लों और जिहादी आतंकवादियों के निहित स्वार्थ के कारण “अल्ला का इस्लाम” अब तेजी से “मुल्ला का इस्लाम” बनता जा रहा है जिससे विश्व की अमन चैन खतरे में पड़ गई है I सबसे ज्यादा खतरा तो इस वजह से मुसलमानों को ही है, क्योंकि, सबसे ज्यादा तो निर्दोष मुस्लमान ही मारे जा रहे हैं I
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देश को चाहिए प्रेमजी, सानिया, बख्त अबुल कलाम जैसे मुसलमान
दरअसल, देश को चाहिए डॉ ए.पी.जे. अबुल कलाम, अब्दुल हमीद, अजीम प्रेमजी, सानिया मिर्जा, मौलाना वहीदुद्दीन खान, उर्दू अदब के चोटी के लेखक डा. शमीम हनफी जैसी मुस्लिम शख्सियतें। इस तरह के अनगिनत मुसलमान चुपचाप अपने ढंग से राष्ट्र निर्माण में लगे हुए हैं। मौलाना वहीदुद्दीन खान का हमारे बीच होना सुकून देता है।
गांधीवादी मौलाना को अमेरिका की जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी ने दुनिया के 500 सबसे असरदार इस्लाम के आध्यात्मिक नेताओं की श्रेणी में रखा है। जामिया मिलिया इस्लामिया में लंबे समय तक पढ़ाते रहे हनफी साहब जैसे राष्ट्रवादी मुसलमानों पर भारत गर्व करता है। वे आज के दिन उर्दू अदब का सबसे सम्मानित नाम हैं। वे जब गालिब या इकबाल पर बोलते हैं, तो उसे बड़े ध्यान और अदब से सुना जाता है।
परोपकारी प्रेमजी बने देश के आदर्श
आईटी कंपनी विप्रो के संस्थापक अजीम प्रेमजी शुरू से ही परमार्थ कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते रहे हैं। वे देश के एक महान नायक हैं। उन्होंने पिछले वित्त वर्ष 2019-20 में परोपकार से जुड़े सामाजिक कार्यों के लिये हर दिन 22 करोड़ रुपये यानी कुल मिलाकर 7,904 करोड़ रुपये का दान दिया है।
सेक्युलरवादी नेता गरीब मुसलमानों को संघ का डर दिखाते हैं
दूसरी ओर पिछले लगभग 70 वर्ष से सांप्रदायिक दंगे प्रायोजित कराकर स्वयंभू सेक्युलरवादी नेता गरीब मुसलमानों को संघ का डर दिखाते है। जरा जन्हें सोचना चाहिए कि मोदी शासन के 6 वर्षों में जो अमन-चैन का माहौल बना है, क्या ऐसा कभी किसी दूसरे प्रधानमंत्री के कार्यकाल में था I नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह तक के शासन काल में आये दिन दंगे ही होते रहते थे I
अब मौलाना आजाद के पौत्र फ़िरोज़ बख्त अहमद को ही लें। वे दशकों दिल्ली के मॉडर्न स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाते रहे। लेकिन, उनसे मुसलमानों का एक कट्टरपंथी तबका इसलिए नाराज हो गया कि उन्हें केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने हैदराबाद के मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी का चांसलर बनाया।
क्या आप यकीन करेंगे किसी विश्व विद्यालय के उपकुलपति ने कुलपति के लिए दरवाजे इसलिए बंद कर दिए हों कि कुलपति वहां पर कुछ सुधार लाना चाह रहा हो, छात्रों को पढ़ाना चाह रहा हो, विश्वविद्यालय में मौलाना आजाद “सेंटर फार प्रोग्रेसिव स्टडीज और सेंटर फार इम्पावरमेंट टू मुस्लिम वूमेन” की स्थापना करना चाह रहा हो तथा जो उर्दू बाल साहित्य पर कार्यक्रम करना चाह रहा हो? फिरोज बख्त के साथ यह सब कुछ इसलिए हुआ क्योंकि, वे संघ से जुड़े रहे हैं। वे संघ की शाखाओं में भी जाते थे। बख्त साहब एक बार बता रहे थे कि वे जब संघ के लोगों के साथ वक्त गुजारने लगे तो उन्हें एक अलग तरह का अहसास हुआ। तब पता चला कि संघ तो कतई मुस्लिम विरोधी नहीं है।
एहसान फरामोश अंसारी- शाह
माफ करें देश को दो बार उपराष्ट्रपति रहे हामिद अंसारी जैसे मुसलमान तो इस देश को नहीं चाहिए। वे जब तक कुर्सी पर रहे तो सरकार के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोले और जब उन्हें तीसरी बार उपराष्ट्रपति नहीं बनाया गया (वैसे वह राष्ट्रपति बनने का अरमान पाले हुए थे) तो वह मुस्लिम नेता बन गए। इसका सबसे बड़ा खामियाजा राष्ट्रवादी मुसलमानों को उठाना पड़ता है।
...खामियाजा सामान्य मुसलमानों को उठाना पड़ता है
ऐसे लोगों के उटपतांग कारनामों का खामियाजा सामान्य मुसलमानों को उठाना पड़ता है जिन्हें इस राजनीति से कोई मतलब है ही नहीं I वे तो बस दिन रात म्हणत करके कमाने-खाने की फ़िक्र में ही लगे हुये हैं I उनकी स्थिति बहुत खराब हो जाती है। वे हर जगह पिसते ही हैं। अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के पूर्व कुलपति लेफ्टिनेंट जनरल ज़मीरुद्दीन शाह जब रिटायर हुए तो उन्हें किसी देश का राजदूत, राज्यसभा सांसद अथवा राज्यपाल नहीं नियुक्त किया गया। तो फिर वे भी मुस्लिम नेता बन गए।
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उन्होंने मोदीजी के विरुद्ध पुस्तक, “द सरकारी मुसलमान: लाइफ एंड ट्रावेल्स ऑफ़ ए सोल्जर” लिख डाली और उन पर गुजरात दंगों का आरोप ठोक दिया। यदि जनरल साहब इतने ही बहादुर थे और मुस्लिम कौम के वफादार थे तो वे तुरंत सेना के उच्च जेनरल के पद से या बाद में कुलपति पद से इस्तीफ़ा देकर मुसलमानों की नेतागीरी करते। कुलपति पद पर बैठ कर मलाई डकारने की क्या आवश्यकता थी? ऐसे लचर और दोगले चरित्र के लोगों को केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान से सीख लेने की आवश्यकता है जो अपने व्याख्यानों में क़ुरान और गीता के कथनों पर सद्भाव बनाने का यत्न करते हैं।
कौन था एयरफोर्स का मुस्लिम चीफ
देश को चाहिए एयर चीफ मार्शल इदरीस हसन लतीफ जैसे महान मुसलमान। वे 31 अगस्त 1978 को एयर चीफ मार्शल एच मूलगांवकर के रिटायर होने के बाद भारतीय एयर फोर्स के प्रमुख नियुक्त किये गये थे। सन 1947 में देश के बंटवारे के वक्त सशस्त्र सेनाओं के विभाजन की बात आई तो एक मुस्लिम अफसर होने के नाते इदरीस लतीफ के सामने भारत या पाकिस्तान दोनों में से किसी की भी एक वायुसेना में शामिल होने का विकल्प मौजूद था I परंतु उन्होंने भारत को ही चुना। उन्होंने 1950 में गणतंत्र दिवस के अवसर पर पहली सलामी उड़ान का नेतृत्व किया था। वे 1981 में सेवानिवृत्त हुए। इसके बाद इन्होंने महाराष्ट्र के राज्यपाल और फिर फ्रांस में भारत के राजदूत का पदभार संभाला। अपना कार्यकाल पूरा करके ये 1988 में फ्रांस से वापस आए और अपने गृह स्थान हैदराबाद में रहने लगे। ।
अब बात करते हैं, 1965 की जंग के नायक शहीद अब्दुल हमीद (परमवीर चक्र) की बहादुरी की। देश निश्चित रूप से 1965 की जंग में अब्दुल हमीद के शौर्य को सदैव याद रखेगा। इसी तरह से करगिल जंग की बात होगी तो याद आते रहेंगे कैप्ट्न हनीफु्द्दीन। वे राजपूताना राइफल्स् के अफसर थे। कैप्टन हनीफु्द्दीन ने करगिल की जंग के समय तुरतुक में शहादत हासिल की थी।
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हनीफु्द्दीन की बहादुरी की कहानी आज भी देशवासियों की जुबान पर
करगिल के तुरतुक की ऊंची बर्फ से ढंकी ऊँची पहाड़यों पर बैठे दुश्मन को मार गिराने के लिए हनीफु्द्दीन पाकिस्तानियों के भीषण गोलाबारी के बावजूद आगे बढ़ते रहे थे। उनकी बहादुरी की कहानी आज भी देशवासियों की जुबान पर है। पाकिस्तानी सैनिक मई 1999 में करगिल सेक्टर में घुसपैठियों की शक्ल में घुसे और नियंत्रण रेखा पार कर हमारी कई चोटियों पर कब्जा कर लिया। दुश्मन की इस नापाक हरकत का जवाब देने के लिए आर्मी ने'ऑपरेशन विजय' शुरू किया, जिसमें तीस हजार सैनिक शामिल थे। उन्हीं में थे बहादुर मोहम्मद हनीफउद्दीन।
हाल के दौर में देश ने देख और पहचान लिया है राष्ट्रवादी और कठमुल्ला मुसलमानों को। “कठमुल्ला मुसलमान का कौम” देश का हितैषी नहीं हैं। अब देश चाहता है सिर्फ राष्ट्रवादी मुसलमानों को जो भारत की मिटटी से प्यार करे और सभी देशवासियों के साथ मिलजुल कर रहे । यह क्यों भूल रहे हो की सभी भारतवासियों के पूर्वज तब से एक ही हैं जब न तो ईसाइयत का जन्म हुआ था न ही इस्लाम I फिर क्यों पैदा करते हो भेदभाव और कटुतापूर्ण माहौल I
( लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं)