बढ़ती महंगाई के बीच बेहाल अर्थव्यवस्था!
Rising Inflation Condition: भारत खुदरा मुद्रास्फीति मई महीने में बढ़कर 6.3 प्रतिशत हो चुकी है।
Rising Inflation Condition: मिल्टन फ्रीडमैन (Milton Friedman) कहते थे कि महंगाई बगैर किसी कानूनी प्रावधान (legal provision) के लगाया गया एक टैक्स है। यह सच भी है। बल्कि पूरा सच तो यह भी है कि महंगाई (Inflation) एक ऐसा टैक्स है जो आय की सीमा नहीं देखता, यह हर व्यक्ति से वसूला जाता है। इसके दायरे में गरीब और अमीर का वर्गीकरण नहीं आता है। इसलिए महंगाई को अर्थव्यवस्था का वैश्विक अभिशाप भी कहा जा सकता है।
सामान्यतः जब भी अर्थव्यवस्था (Economy) में वस्तुओं एवं सेवाओं की कीमतों में वृद्धि होती है तो उसे महंगाई कहते हैं। इसकी तकनीकी परिभाषा में एक निश्चित समयावधि को भी जोड़ लिया जाता है और इसे मुद्रास्फीति कहते हैं। लेकिन यह जरूरी नहीं कि वस्तु एवं सेवाओं के निर्माण में लगने वाले खर्च में आयी बढ़ोतरी से ही महंगाई आती है, इसके ढेरों कारण हैं। उदाहरण के लिए अर्थव्यवस्था में मुद्रा संचालन का अधिक प्रभाव, सरकारों की अधिक खर्चे वाली राजकोषीय नीति, किसी विशेष परिस्थिति में मांग वृद्धि आदि भी महंगाई का बड़ा कारण होते हैं।
हाल ही में सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय ने महंगाई से संबंधित जरूरी आंकड़ों को जारी किया है। बीते सोमवार को जारी इन आंकड़ों के अनुसार भारत की खुदरा मुद्रास्फीति मई के महीने में बढ़कर 6.3 प्रतिशत हो चुकी है जो कि भारतीय रिज़र्व बैंक (Reserve Bank of India) के निर्धारित 6 प्रतिशत की सीमा से अधिक है। खुदरा मुद्रास्फीति की गणना उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) के आधार पर की जाती है।
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक घरेलू उपभोक्ताओं द्वारा खरीदे गए वस्तुओं एवं सेवाओं के औसत मूल्य को बताने वाला सूचकांक है। विगत अप्रैल महीने में यह 4.23 प्रतिशत रही थी। लगभग 6 महीने के बाद ऐसा पहली बार हुआ है कि सीपीआई डाटा केंद्रीय बैंक (cpi data central bank) के जरिए तय किए गए 6 फीसदी मानक से ऊपर है।
रिजर्व बैंक के गवर्नर के रूप में रघुराम राजन ने यह सुनिश्चित किया था कि भारतीय अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति की अधिकतम दर 6 फीसदी और न्यूनतम दर 2 फीसदी हो सकती है। जारी आकडों से पता चलता है कि उपभोक्ता खाद्य मूल्य सूचकांक भी मई में अप्रैल की तुलना में 1.96 प्रतिशत से बढ़कर 5.01 प्रतिशत हो गई है। आरबीआई (RBI) ने चालू वित्त वर्ष 2021-22 में सीपीआई मुद्रास्फीति के 5.1 फीसदी रहने का अनुमान जताया है। केंद्र सरकार के दिशा-निर्देशों के अनुसार आरबीआई को मार्च 2026 में समाप्त होने वाले पांच साल की अवधि के लिए खुदरा मुद्रास्फीति दर को 2 प्रतिशत के मार्जिन के साथ 4 प्रतिशत पर बनाए रखना है।
वर्तमान महंगाई के कारण
इस तेज महंगाई वृद्धि के पीछे सबसे प्रमुख कारण खाद्य तेल की कीमतों में आई बड़ी उछाल है। बीते मई में सालाना आधार पर खाद्य तेल कीमतों में 30.84 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसके अलावा अंडे की कीमतों में 15.16 फीसद, मांस और मछली में 9.03 फीसदी, फल 11.98 फीसदी और दलहन उत्पादों में 9.39 फीसदी की तेजी देखी गई है। लेकिन वर्तमान स्थिति में महंगाई की सबसे अधिक चर्चा दो वजहों से है। पहला एलपीजी गैस सिलेंडर के दामों में आ रही वृद्धि और दूसरा पेट्रोल एवं डीजल के दामों में हो रही वृद्धि। एलपीजी गैस के आकडों को देखे तो हमें पता चलता है कि पिछले 7 सालों में इसके दाम दोगुने हुए हैं।
1 मार्च 2014 को एक एलपीजी सिलेंडर का दाम 410.5 था, जो अभी वर्तमान में 819 प्रति सिलिंडर है। आज मार्च 2014 की तुलना में 'केरोसिन आयल' 14.96 प्रति लीटर से बढ़कर 35.35 प्रति लीटर हो चुका है। मई 2014 में कच्चे तेलों की बेस प्राइस बिना किसी अतिरिक्त कर के 45.12 रुपए थी और कर को सम्मिलित करते हुए, पेट्रोल 71-72 प्रति लीटर पर बिक्री होती थी। वहीं आज वर्तमान में इसकी बेस प्राइस 26.7 रुपए हैं और विभिन्न करों को शामिल करके पेट्रोल 90 से 100 के बीच में बिक रहा है। कहीं-कहीं तो यह आंकड़ा 100 प्रति लीटर भी पार हो चुका है। वर्तमान में केंद्र सरकार 32.90 प्रति लीटर की एक्साइज ड्यूटी पेट्रोल पर और 31.80 प्रति लीटर की एक्साइज ड्यूटी डीजल पर वसूल रही है। पिछले 1 वर्ष में इंधन तेल के दामों में 45 से अधिक बार बढ़ोतरी की गई है. वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय द्वारा जारी अलग आर्थिक आंकड़ों में, तेल की बढ़ती कीमतों और विनिर्मित वस्तुओं की लागत के कारण मई महीने में थोक मूल्य-आधारित मुद्रास्फीति 12.94 प्रतिशत के रिकॉर्ड उच्च स्तर पर पहुंच गई है।
अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
पहली बात तो यह स्पष्ट है कि वर्तमान महंगाई मांग के बढ़ने या अधिक मुद्रा के संचलन से नहीं आई है। इसलिए चिंता का प्रश्न है क्योंकि मांग की वजह से आ रही महंगाई अपने साथ रोजगार और आय के अवसर भी लेकर आती है। ध्यान रखिए कि रोजगार, आय और मांग की वृद्धि के बीच बढ़ रही महंगाई का एक तर्कसंगत बचाव किया जा सकता है लेकिन इन तीनों के अभाव के बीच महंगाई का बचाव करना तो छोड़िए, इसके प्रभाव को कम करना ही बड़ा कठिन कार्य होता है। वर्तमान परिदृश्य में भारत की आर्थिक वृद्धि दर भी कमजोर हुई है, इसलिए महंगाई का भारतीय जनमानस पर बड़ा नकारात्मक प्रभाव पड़ने जा रहा है।
प्रतिष्ठित एजेंसी क्रिसिल की एक रिपोर्ट के अनुसार खाद्य सामान की कीमत में एक प्रतिशत की वृद्धि की वजह से खाने पर होने वाला खर्च करीब 0.33 लाख करोड़ रुप बढ़ जाता है। ऊपर से सरकार द्वारा लगातार इंधन तेलों पर बढ़ाया जा रहा टैक्स उपभोक्ताओं के जख्मों को और हरा कर रहा है। कोविड-19 की वजह से बेकारी झेल रही जनता लगातार बढ़ रहे कीमतों से गरीब होती जा रही है। यह भी एक आश्चर्य का ही विषय है कि कोविड-19 की भयंकर मंदी और बेकारी के बीच भी वर्ष 2020-21 में केंद्र सरकार ने रिकॉर्ड 2.94 लाख करोड़ रुपए का टैक्स इंधन तेलों के जरिए वसूला है।
सामान्यतः बढ़ती महंगाई को संतुलन में रखने की पूरी जिम्मेदारी भारत के केंद्रीय बैंक 'रिजर्व बैंक आफ इंडिया' की होती है। एक लंबे समय तक चली बहस के बाद यह तय हुआ कि महंगाई को एक निश्चित दायरे में रखा जाएगा। इसके लिए मौद्रिक नीति समिति का निर्माण किया गया। वर्तमान चुनौतियों को देखते हुए आरबीआई मौद्रिक नीति समिति के जरिए यह कर सकती है कि अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ाने के लिए नीतिगत दरों में कटौती की जाए लेकिन सबसे बड़ी राहत सरकार ही दे सकती है। वर्तमान समय में सरकार को चाहिए कि जरूरी वस्तुओं एवं सेवाओं पर लगने वाले कर में कटौती करते हुए जनता को राहत दी जाए। सबसे जरूरी राहत पेट्रोल और डीजल के बढ़ते दामों में दी जानी चाहिए। इसका प्रभाव प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। वर्तमान में खरीफ फसल की तैयारी कर रहे किसानों को भी महंगे डीजल से सिंचाई करनी पड़ेगी जो कि कहीं से भी हितकारी कदम नहीं है।