अभी 30 दिसंबर 2019 को महाराष्ट्र मंत्रिमंडल के विस्तार में जिस प्रकार से परिवारवाद और भाई भतीजेवाद का खुला खेल दिखाया गया है, उससे राष्ट्र के लोकतांत्रिक तत्व के प्रति कुछ निराशा का भाव, भारतीय जनमानस में होना अवश्यंभावी है। वैसे तो किसी मुख्यमंत्री द्वारा अपने पुत्र या पुत्री को मंत्री पद देना भारतीय राजनीति में पहली बार नहीं हुआ है। तमिलनाडु में करुणानिधि ने अपने पुत्र एम. के. स्टालिन को, हरियाणा में चौधरी देवीलाल ने रणजीत चौटाला को एवं पंजाब में प्रकाश सिंह बादल ने सुखबीर सिंह के लिए यह किया है। महाराष्ट्र में जिस प्रकार से सत्ता प्राप्ति के लिए सिद्धांतहीन गठबंधन किया गया, उसका अभीष्ट पुत्र प्रेम ही था, यह मंत्रिपरिषद के विस्तार से स्पष्ट होता है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कुछ वर्षों तक, जो लोग राजनीति में आते थे, वह समाज व राष्ट्र को कुछ देने की मंशा से राजनीति में आते थे। अब पिछले तीन-चार दशकों के पहले से ही जो लोग राजनीति में आते गए, उनमें से बहुतायत उन लोगों की है जो कुछ पाने की लालसा से ही राजनीति में आए। परिवार व्यवस्था के कारण समाज का ताना-बाना खड़ा है, परंतु परिवारवाद व भाई भतीजावाद, जिस तरह से भारतीय राजनीति में घुन की तरह घुस गया है उससे राजनीति का लक्ष्य सत्ता व पद के प्रति लोलुपता हो गया है। पद व सत्ता की प्राप्ति के बाद, परम लक्ष्य येन केन प्रकारेण भ्रष्टाचार के विविध तरीकों से अकूत संपत्ति का अंबार अपने परिवार के लिए इकट्ठा करना है। साथ ही साथ सिद्धांतहीन राजनीति करते हुए, वंशानुगत परंपरा के लिए, सभी प्रकार के अनैतिक सिद्धांतों से राजनीतिक दलों का प्रबंधन करने का कुप्रयास भी हो रहा है।
परिवारवाद भाई भतीजावाद का प्रथम महत्वपूर्ण उदाहरण जवाहरलाल नेहरू द्वारा अपने प्रधानमंत्री के रूप में कार्य करते हुए अपनी पुत्री इंदिरा गांधी को केंद्रीय मंत्रिमंडल में नियुक्त करना था। उसके बाद जिस तरह से कांग्रेसी धीरे-धीरे पूरी तरह से एक परिवार का दल बन कर रह गयी, यह सबके सामने है। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने जिस तरह से पूरे कुनबे को पदों हेतु उचित समझा, बिहार में लालू प्रसाद यादव ने अपनी पत्नी, पुत्र, पुत्री आदि को आगे किया, तमिलनाडु में करुणानिधि ने, महाराष्ट्र में शरद पवार और इस संस्कृति के सबसे ताजा संस्करण ठाकरे परिवार की पद लोलुपता राजनीति को कितने निचले स्तर पर ले जाएगी इसकी परिकल्पना भी भयावह है।
भारतीय संस्कृति में हमारी चिंतन धारा को कठोपनिषद में नचिकेता का यम से कथन में स्पष्ट किया गया है
न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो लप्स्यामहे वित्तमुद्राक्ष्म चेत्वा।
जीवेष्यामो यावदी शिस्यसि त्व वरस्तु मे वरणीय: से स्व।।
(कठोपनिषद श्लोक 27)
अर्थात धन से मनुष्य कभी तृप्त नहीं हो सकता, आग में घी डालने से जैसे आग जोरों से भडक़ती है, उसी प्रकार धन और भोगों की प्राप्ति से भोग कामना का और भी विस्तार होता है वहां तृप्ति कैसी? वहां तो दिन-रात अपूर्णता अभाव में ही जलना पड़ता है। ऐसे दुख में धन और भोगों की मांग कोई भी बुद्धिमान पुरुष नहीं कर सकता। भारत राष्ट्र में ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा’ और ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ की वैचारिक आधार भूमि रही है। किंतु स्वतंत्र भारत में आज की राजनीति में परिवार व भाई भतीजे के अलावा बहुतेरे नेताओं को कुछ दिखता ही नहीं। कहां तो पंडित मदन मोहन मालवीय, वीर सावरकर, महात्मा गांधी, भीमराव अंबेडकर जैसे विद्वानों, समाजसेवियों, विचारकों की सरणि थी। सुभाष चंद्र बोस ने आईसीएस की नौकरी को लात मार दिया था और कहां पद व धन संपदा की असीमित लालसा में आज के बहुत से राजनेता राजनीति को कलंकित कर रहे हैं।
दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख, दत्तोपंत ठेंगड़ी सरीखे समाजसेवियों का निस्पृह निष्कलंक जीवन आज भी युवा पीढ़ी को प्रेरित करता है, लेकिन परिवारवादी व भाई भतीजावादी राजनीतिक दलों का एक सूत्री कार्यक्रम सत्ता की प्राप्ति है। फिर उस सत्ता के सहारे पूरे कुनबे के लिए ही केवल योजनाबद्ध तरीके से काम करते हैं। कहीं जाति, कहीं क्षेत्र, कहीं भाषा तो कहीं अन्य तरीकों से सत्ता प्राप्ति का जुगाड़ करने में लगे रहते हैं।
इन परिवार वादी राजनेताओं से नैतिकता का प्रश्न उठाना बेमानी है, ऐसा लगता है कि संकीर्ण राजनीतिक सोच के कारण अपराधियों, धन पशुओं, बड़े ठेकेदारों, राजनैतिक दलालों, भ्रष्ट अधिकारी गण कुछ निहित स्वार्थों वाले पत्रकार, जाति, भाषा, क्षेत्र की राजनीति करने वाले लोगों को राजनीतिक प्रश्रय मिलता है, जब एक मात्र साध्य सत्ता व संपत्ति की प्राप्ति ही है तो मर्यादाओं नैतिकताआों की बात करना इन परिवारवादी नेताओं को असुविधाजनक ही लगेगा।
ऐसे परिवार वादी नेताओं के दलों के हाईकमान वे स्वयं होते हैं। राजतंत्र की तरह इनका पुत्र-पुत्री, भतीजा-भतीजी-भांजा, दामाद या निकट रिश्तेदारी वंशानुक्रम की तर्ज पर युवा चेहरा बनता है। दल के लोग जानते हैं कि आगे यही हमारे हाईकमान होंगे हैं। कुछ लोग भविष्य की अनिश्चितता की चिंता के कारण युवा नेतृत्व के नाम पर अपने पुत्र, पुत्री या वंशज को अपने सक्रिय राजनीतिक जीवन काल में ही हाईकमान बना देते हैं। संजय गांधी, अखिलेश यादव, एमके स्टालिन, तेजस्वी यादव और सबसे ताजा उदाहरण आदित्य ठाकरे हैं। दल में जो राजनीतिक कार्यकर्ता पूरा जीवन दल के लिए समर्पित करते हैं, अपने नेता के लिए कार्य करते हैं, युवा नेतृत्व के नाम पर उसी नेता के पुत्र, पुत्री को हाईकमान मानकर कार्य करते हैं, जो उनसे आयु, वरिष्ठता आदि में काफी छोटे होते हैं। सरकारी सेवाओं में ऐसे नियम हैं कि कोई अधिकारी ऐसी चयन समिति का सदस्य नहीं रह सकता जिसमें इन कर्मचारियों में उस अधिकारी का कोई निकट संबंधी शामिल हो। आखिर कोई प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री अपने पुत्र को मंत्रिपरिषद में कैसे नियुक्त कर सकता है क्या यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों की हत्या नहीं है ।
प्राकृतिक न्याय नेचुरल जस्टिस के सिद्धांत में स्पष्ट उल्लेख है कि कोई भी व्यक्ति अपने ही मामले में न्यायाधीश या निर्णायक नहीं रहेगा। यदि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत एवं सरकारी अधिकारियों पर लागू नियम का तार्किक विस्तार (लाजिकल एक्सटेंशन) किया जाए तो कोई भी मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री जो कि जनसेवक पब्लिक सर्वेंट ही होते हैं कैसे अपने पुत्र या पुत्री को अपने मंत्रिमंडल में रख सकते हैं? यह न्यायिक या नैतिक रूप से पूर्णत: गर्हित है। इस प्रश्न पर संविधान विशेषज्ञों को गहन विचार विमर्श, चिंतन मनन करना चाहिए। यदि इस पर मतैक्य न हो पाए तो राष्ट्र के लोकतांत्रिक भविष्य की रक्षा के लिए कानून भी बनाना पड़े तो कोई अनिश्चितता की स्थिति नहीं रहेगी। परिवारवादी नेता अपने कुत्सित स्वार्थ के लिए लोकमत के नाम पर, नैसर्गिक न्याय की हत्या नहीं कर पाएंगे। समाज के प्रबुद्ध वर्ग को इन परिवार वादी कुनबेवादी नेताओं पर नियंत्रण हेतु आगे आना ही चाहिए।
परिवारवाद का यह रोग केवल राज्य सरकारों जैसे उच्च प्रशासनिक संस्थानों में ही नहीं, यह रोग अब ग्राम सभाओं, नगर पालिका, जिला परिषदों आदि लगभग सभी स्तरों पर छुआछूत के रोग की तरह बढ़ रहा है। महिला के लिए आरक्षित सीट पर निर्वाचित महिला के स्थान पर उसके पति या पुत्र ही वस्तुत: कार्य करते हैं। उचित यह होगा कि परिवादी राजनीति का अंत करने के लिए नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत के आधार पर, समाज में चिंतन मनन से वातावरण का निर्माण करके, ऐसा कानून बनाने की महती आवश्यकता है, जिससे इस राष्ट्र की मूलभूत लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा की जा सके।
(लेखक पूर्व रेल अधिकारी एवं इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व प्रवक्ता हैं)