जिन्हें अंग्रेज नहीं डोला सके, उन्हें कांग्रेसियों ने मार दिया!

K Vikram Rao: इन्कलाबी बटुकेश्वर दत्त जिन्होंने भगत सिंह के साथ (8 अप्रैल 1929) केंद्रीय विधान सभा (संसद भवन) में दर्शक दीर्घा से बम फेंका था, की आज (20 जुलाई 2022) 57वीं पुण्यतिथि है।

Written By :  K Vikram Rao
Update:2022-07-20 18:47 IST

जिन्हें अंग्रेज नहीं डोला सके, उन्हें कांग्रेसियों ने मार दिया!

K Vikram Rao: इन्कलाबी बटुकेश्वर दत्त (Inquilabi Batukeshwar Dutt) जिन्होंने भगत सिंह (Bhagat Singh) के साथ (8 अप्रैल 1929) केंद्रीय विधान सभा (संसद भवन) में दर्शक दीर्घा से बम फेंका था, की आज (20 जुलाई 2022) 57वीं पुण्यतिथि है। उनके अंतिम पलों में दिल्ली के अस्पताल में देखभाल करती वृद्धा विद्यावतीजी से 54—वर्षीय बटुकेश्वर दत्त ने इच्छा जताई : "आपके पुत्र (भगत सिंह ) के साथ फांसी पर तो नहीं चढ़ पाया। मैं चाहता हूँ कि मेरा दाह संस्कार हुसैनीवाला स्मारक के पास हो। जीते जी ना सही, कम से कम मरकर तो हम फिर साथ आ सके।"

बटुकेश्वर दत्त (Inquilabi Batukeshwar Dutt) की यह इच्छा उनके प्रशंसक रहे ''कामरेड'' रामकिशन ने पूरी की। वे तब पंजाब राज्य के कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे। रामकिशन जब भी दिल्ली आते तो बटुकेश्वर दत्त से मिलने अस्पताल अवश्य जाते। बिहार में बसे इस बांग्लाभाषी क्रांतिकारी और पंजाब के कांग्रेसी मुख्यमंत्री की दोस्ती का मूलभूत कारण था। कामरेड रामकिशन 1931 से कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (नवजवान भारत सभा) के सदस्य रहे। बटुकेश्वर दत्त (Inquilabi Batukeshwar Dutt) हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (Hindustan Socialist Republican Association) में भगत सिंह, सुखदेव थापर, शिवरामहरी राजगुरु, चंद्रशेखर आज़ाद, अशफाकउल्ला खान, रामप्रसाद बिस्मिल आदि के साथी रहे।

रामकिशन का पंजाब का मुख्यमंत्री बनना एक यादगार दास्तां

बटुकेश्वर दत्त (Inquilabi Batukeshwar Dutt) के मित्र कामरेड रामकिशन का पंजाब का मुख्यमंत्री बनना भी एक यादगार दास्तां है। गोपीचंद भार्गव तब केवल 15 दिन तक मुख्यमंत्री रहे। तभी लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने थे। पंजाब में नए मुख्यमंत्री की बात चर्चित थी। शास्त्री जी ने कॉमरेड रामकिशन को नामित किया। शपथ ग्रहण के लिये उनकी तलाश हुई। तभी कनॉट प्लेस ( नई दिल्ली) के रेस्तरा ''काके दा होटल'' में वे लंच कर रहे थे। इतनी सादगी थी। हालांकि तब पंजाब में राज्य सरकार के वे मुखिया बने।

उसी दौर का एक और वाकया है। पटना के एक अंग्रेजी दैनिक में मेरे साथी नर्मदेश्वर प्रसाद कार्यरत थे। बाद में टाइम्स आफ इंडिया (दिल्ली) में आये। वे अपने हमारे इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नालिस्ट्स के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष थे। मैं उपाध्यक्ष था। एक बार वे पटना कार्यालय में संपादकीय कक्ष में बैठे थे। वहां एक वृद्ध आये। पुरानी अखबारी फाइल देखना चाहते थे। उन्हें पहले वाचमैन ने फाटक पर ही रोका, फिर पूछकर आने दिया। अन्दर वे प्रसाद से मिले। जैसा आम तौर पर होता है। पहनावा देखकर व्यवहार तय किया जाता है। लेकिन जब प्रसाद को उन्होंने अपना नाम बताया तो वे तुरंत खड़े हुये। कुर्सी दी, चाय पिलायी। मगर नाम जानने के बाद ! क्या सादगी दिखी? मशहूर साहित्यकार तथा सोशलिस्ट नेता स्व. रामकृष्ण बेनीपुरी जी (Socialist leader Ramkrishna Benipuri) के दो लेखांश प्रस्तुत हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि कांग्रेसियों ने इस क्रांतिकारी के लिये लेशमात्र भी प्रयास नहीं किया।

पढ़िये बेनीपुरी जी के संस्मरण के दो अंश :

पहला अंश ''बिहार के सभी राजबंदी रिहा किये गये। सोशलिस्ट पार्टी की ''जनता'' पत्रिका का आफिस उनके लिये उन दिनों तीर्थस्थान बन गया था। सभी जेल से छूटते ही वहां पहुंचते। बिहार के श्री कमलनाथ तिवारी लाहौर षड़यंत्र केस में गिरफ्तार किये गये थे। वह पंजाब जेल में थे। उनके लिये भी हमने आन्दोलन किया। बिहार सरकार ने पंजाब सरकार से उनकी बदली कराकर उन्हें भी छोड़ा। उन्हीं से पता चला, बटुकेश्वर के भाई बिहार में कहीं काम करते हैं। इसी आधार पर बटुकेश्वरजी की रिहाई के लिये भी आन्दोलन किया और अन्तत: उन्हें रिहा भी किया गया। एक दिन भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के नाम भारत के घर—घर में व्याप्त थे। उसी बटुकेश्वर दत्त को छुड़वा कर मैंने कितने आनन्द का अनुभव किया था ! बटुकेश्वरजी से जब—जब भेंट होती है, उनकी आंखों में कृतज्ञता की झलक पाकर प्राया: सोचता हूं, जीवन में एक कैसा बड़ा सुकर्म कर सका हूं।''

अब दूसरा अंश : ''बटुकेश्वर दत्त (Inquilabi Batukeshwar Dutt) की चर्चा होते ही उन तमाम कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को घृणा की दृष्टि से देखने का मन करता है जिन्होंने इनके जीवन में ही बिहार का राजपाट संभाला था ।इन लोगों ने एक ऐसे व्यक्ति को कष्ट से मार डाला जिसे अंग्रेजी हुकूमत भी नहीं डिगा सकी थी। धन्य है देश और प्रदेश की उस समय की कांग्रेसी हुकूमत जिन्होंने इन तमाम क्रांतिकारियों को एक छोटी सी खुशी और सुख भरी जिंदगी भी नहीं जीने दी। क्या सिर्फ इस लिये कि वह कांग्रेसी नहीं थे ? बटुकेश्वर दत्त जी, चंद्रशेखर आज़ाद की माता जी और शुक्ल जी की पत्नी की कहानियां तो सामने ही हैं। ऐसे अनेक सेनानी या सेनानियों के परिवार उदाहरण हैं। इन सेनानियों के स्मारक तक भी नहीं?''

बटुकेश्वर दत्त को अण्डमान जेल में कैद रखा

आखिर बिहार के गांधीवादी कांग्रेसियों ने बटुकेश्वर दत्त को वृद्धावास्था में भी क्यों नजरन्दाज किया? सिर्फ इसीलिये कि वे नेहरुवादी पार्टी के नहीं थे? बटुकेश्वर दत्त को अण्डमान जेल में कैद रखा गया। तड़पाया गया। उन्हें वहीं टीबी हो गयी। उनके जीवन सरिता का स्रोत सूखने लगा था। जब आजादी मिली तो वे अपने निवास स्थान पटना आये। कांग्रेसी श्रीकृष्ण सिन्हा मुख्यमंत्री थे। ध्यान नहीं दिया। मदद नहीं की। दस हजार रुपये अनुग्रह नारायण सिंह ने दिये। एक मित्र ने राय दी कि बस परमिट लेकर पटना से आरा तक चलवाईये। यात्री किराये से गुजर हो सकती है। बटुकेश्वर दत्त परमिट लेने पटना कमिश्नर के कार्यालय गयें। उस गर्बीले अधिकारी ने पूछा : ''स्वतंत्रता सेनानी वाला जेल—गमन का सर्टिफिकेट दिखाइये।'' बटुकेश्वर दत्त का जवाब था : ''ऐसे प्रमाणपत्र के लिये संसद भवन में बम मैंने नहीं फेका था। न बस परमिट पाने के लिये अण्डमान जेल गया था।'' खबर पाकर तब प्रथम राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्र प्रसाद ने कमिश्नर को डांटा। पर बटुकेश्वर दत्त ने फिर कभी मांग नहीं की। पटना के बंगाली—बहुल मोहल्ले मीठापुर में एक छोटा सा कोठरीनुमा मकान लिया। वहीं जीवन गुजारा। वहीं जक्कनपुर में एक गली उनके नाम रखी गयी है।

बटुकेश्वर दत्त के प्रकरण में उठते हैं दो सवाल

बटुकेश्वर दत्त के प्रकरण (Inquilabi Batukeshwar Dutt) से दो सवाल उठते है। जो गैर—कांग्रेसी रहे या गैरगांधीवादी तरीके से स्वाधीनता संघर्ष में थे उन्हें आजाद भारत में महत्व कब मिलेगा? मतलब कि मान लीजिये यदि आज कोई नेहरु का वंशज सत्ता पर होता तो इस वर्ग के देशभक्तों की लगातार उपेक्षा होती ही रहती। और चलती भी रहती। संयोग है कि आजादी के अमृतोत्सव के इस वर्ष में नेहरु परिवार से अलग रहने वालों की सरकार है। अंतत: आजादी के हर सैनिक को मान मिल रहा हैं आकाशवाणी में उन सबको पर्याप्त वक्त और ध्यान दिया जा रहा है। वर्ना कोशिश, बल्कि साजिश, 1947 से यही रही कि सुभाष बोस तथा अन्य क्रांतिकारियों को दरकिनार रखा जाये। ब्रिटिश जेलों में विलासितापूर्ण कैद की तुलना में, अण्डमान की कालकोठरी भयावह है। बताने की जरुरत नहीं है। तब मौत आसन्न रहती थी।यातनायें अथाह होतीं थीं। बटुकेश्वर दत्त बच निकले। उसके बाद 1942 अगस्त में बापू के ''भारत छोड़ो'' आन्दोलन में वे सत्याग्रही बनकर तीन साल जेल में थे। उस पर भी ध्यान नहीं दिया गया? व्लादीमीर लेनिन ने लियोन ट्राटस्की के रुसी क्रांति में योगदान को मान दिया था। मगर जोसेफ स्टालिन ने ट्राटस्की की हत्या करा दीं। भारत में तो गांधीजी के बाद कांग्रेसी नेता लोग भावभीनी स्टालिन जैसा क्रूर बर्ताव करने लगे थे। बटुकेश्वर दत्त उसी के भुक्तभोगी रहे थे।

भला हो सर्वहारा वर्ग से शीर्ष तक उभरे नरेन्द्र दामोदरदास मोदी (Narendra Damodardas Modi) का जिन्होंने आजादी के सच्चे लड़ाकुओं की उपेक्षा खत्म की। एक गांधीवादी स्वतंत्रता—सेनानी (संपादक स्व. के. रामा राव) का आत्मज होने के कारण मेरी बात तर्क—सम्मत तथा निखालिस मानी जानी चाहिये। इस 18—वर्षीय (जब बम फेंका था) शौर्य की प्रतिमूर्ति युवा बटुकेश्वर दत्त को मेरी श्रद्धांजलि।

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