व्याकरण, वर्तनी के साथ अर्थ भी जानें पत्रकार!

भाषायी पत्रकारिता में तेजी से आ रही है वर्तनी की ​गिरवाट चिंता का विषय

Written By :  K Vikram Rao
Published By :  Raghvendra Prasad Mishra
Update: 2021-10-02 14:14 GMT

भाषायी पत्रकारिता से संबंधित सांकेति तस्वीर (फोटो साभार-सोशल मीडिया)

अपने भाषायी पत्रकारों को खुद की समझ और सूझ के प्रति लापरवाह होता देख कर रंज होता है। मन खिन्न हो जाता है। अंग्रेजी पत्रिकायें तो आजादी के पचहत्तर-वर्ष बाद भी समझते हैं कि राज अभी दिल्ली नहीं लंदन से ही चल रहा है। मगर भाषायी समाचारपत्र (bhashayi samachar patra) तो देश की बात समझ ही सकते हैं। अखबारी दुनिया (akhbari duniya) में अनिवार्य तौर पर अभिज्ञता होनी चाहिये। नहीं हो तो कई अन्य उद्योग और कारोबार हैं उदर-पोषण हेतु। पत्रकारिता (journalism) बुद्धिकर्म है, इसकी ओर चलताऊ दृष्टि होना नागवार है। मेरी नाराजगी और दर्द का कारण एक ताजा खबर है। संवाद समि​ति पीटीआई-भाषा का बिरादराना झुकाव और लगाव ब्रिटिश संवाद समिति राइटर्स की तरफ है। बहुधा अनुवाद कार्य ही होता है। शब्दों के भाव या अभिप्राय से वास्ता कम ही रहता है। पिछले दिनों कराची से एक राइटर्स की खबर आयी थी। इसमें लिखा था कि सुरक्षित क्षेत्र माने जाने वाले गवादार मरीन ड्राइव पर मोहम्मद अली जिन्ना की निर्मित की गयी प्रतिमा के नीचे विस्फोटक रखकर उड़ा दिया गया। खबर के अनुसार विस्फोट में प्रतिमा पूरी तरह से नष्ट हो गयी। बीबीसी उर्दू की खबर के अनुसार ''प्रतिबंधित'' आतंकवादी संगठन बलोच रिपब्लिकन आर्मी के प्रवक्ता बबगर बलोच ने ट्विटर पर विस्फोट की जिम्मेदारी ली है।

मेरा सख्त रोष इस शब्द टेररिस्ट (आतंकवादी) के उपयोग से हैं। सोपोर या कुपवाड़ा में भारतीयों की हत्या की जाये अथवा पुल उड़ा दिया जाये तो यही दैनिक ऐसे भला छापेंगे कि : ''स्वतंत्रताप्रेमी कश्मीरियों'' ने आतंकी भारतीय शासन की संपत्ति नष्ट कर दी?'' स्पष्ट है कि हमारे भाषायी पत्रकारों ने जरुरत नहीं समझी जानने की कि ''बलोच आतंकवादी'' कौन है?, न उन्हें कभी समझाया गया, न बताया गया, न मीडिया स्कूलों के कोर्स में पढ़ाया गया।

अनभिज्ञ पाठकों को 1947 का एक सच पहले बता दूं। कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने जिन्ना के कबाइली आतताइयों से रक्षा के लिये स्वेच्छा से भारतीय संघ में शामिल होने की संधि पर हस्ताक्षर किया था। जवाहरलाल नेहरु ने अपनी जिद में जनमत संग्रह का वायदा कर दिया। तब तक ये चन्द कश्मीरी मुसलमान इस्लामी पाकिस्तान के मजहबी दबाव में तालिबानी नहीं बने थे। सभी भारत के मित्र थे। बदले बाद में। दारुल इस्लाम की लालच में। कश्मीर से बलोचिस्तान बिलकुल अलग है। यह शिया-बहुल प्रदेश भारत में जुड़ना चाहता था। यहां की जनता बलूच गांधी खान अब्दुस समद खां के नेतृत्व में विभाजन की विरोधी थी। भारत संघ में रहना चाहती थी। पर सत्ता की लिप्सा में, कुर्सी को हथियाने की होड़ में लगे कांग्रेसियों ने सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान के पश्तून पठानों की तरह बलूचिस्तान का भी साथ छोड़ दिया। ''भेड़ियों के सामने फेंक दिया।'' तब नवनियुक्त गवर्नर जनरल जिन्ना ने पाकिस्तानी वायु सेना द्वारा बम वर्षा करके बलूचिस्तान का इस्लामी राष्ट्र में जबरन विलय करा दिया। यहीं आक्रोशित विप्लवकारी, स्वतंत्रताप्रेमी बलूच जनता आज भी संघर्षरत हैं।

अपनी मुक्ति हेतु वे पाकिस्तानी-पंजाबी सैनिकों के विरुद्ध यदा-कदा विस्फोट करते हैं। परिणाम में हजारों लोग फौजी ​गोलीबारी में शहीद होते हैं। जेलों में सड़ाये जाते है। कभी-कभी सीमावर्ती शिया-बहुल ईरान से शस्त्र मिल जाते है तो युद्ध करते रहते हैं। पर सामना असमान है। अपने प्रधानमंत्री काल में सरदार मनमाहेन सिंह एक अंतरर्राष्ट्रीय सम्मेलन में पाकिस्तान को खुलेआम वचन दे आये थे कि बलोच स्वाधीनता संग्राम में भारत कभी भी मदद नहीं देगा। कभी दिया भी नहीं। भले ही तीन आक्रमणों में पराजय के बाद भी कश्मीर और पंजाब को भारत से काटने के लिये इस्लामी पाकिस्तान लगातार जद्दोजहद में जुटा है।

अब मेरे पत्रकारी व्यवसाय में चन्द आचरण वाले नियमों का संदर्भ पेश कर दूं। विश्व की सारी पत्र-पत्रिकायें, सभी संवाद समितियां अपने राष्ट्रीय दृष्टि को स्पष्ट तौर पर अपनाकर ही ​वैश्विक खबरें लिखते है। जब अफ्रीका और अमेरिका के नीग्रो (अश्वेत) लोग गोरो के अत्याचार के शिकार हो रहे थे तब भी। भारतीय दैनिक इन स्वाधीनता सेनानियों के पक्ष में ''शोषक'' साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी, शब्द खुलकर लिखते रहे। भारत खुद गुलाम था। पराधीन भारत में ब्रिटिश समाचारपत्र के भारतीय पत्रकार भी ऐसे साम्राज्यवादी समर्थक अभिव्यक्तियों का प्रयोग नहीं करते थे। परिभाषित कर देते थे जैसा आज कर रहे हैं।

अत: अपेक्षा भारतीय पत्रकारों से यही है कि वैश्विक समाचार पर सब विशेष ध्यान सतर्कता से दें, उसका भाव समझे। आजादी के प्रारम्भिक वर्षों में विदेशी संवाद समितियों पर निर्भर रहने के कारण भारतीय अखबार कई देशों के समाचार को साम्राज्यवादी दृष्टि से ही देखते रहे, प्रकाशित करते रह। जब निर्गुट समाचार संकलन एजेंसी शुरु की गयी तो कई प्र​चिलित विकृतियां स्वयं समाप्त हो गयीं। बस इसी कारणवश बलूचिस्तान की जंगे आजादी पर भ्रमित नजरिया अपनाकर हमारे राष्ट्रवादी मित्रों की मदद करने के बजाये कुछ नासमझ पत्रकार हानी पहुंचा रहे हैं। यह अक्षम्य है। कमअक्ली है। उन्हें सीखना, सुधरना चाहिये।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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