Kargil Vijay Diwas 2024: याद रखना, भूल ना जाना वतन पर मरने वालों को

Kargil Vijay Diwas 2024: अंततः 26 जुलाई 1999 को भारत ने कारगिल युद्ध में विजय हासिल की थी। इसलिए 26 जुलाई हर वर्ष “कारगिल विजय दिवस” के रूप में मनाया जाता है।

Written By :  R.K. Singh
Update: 2024-07-19 14:57 GMT

Kargil Vijay Diwas Story 

Kargil Vijay Diwas Story: अब कुछ दिनों के बाद ही 26 जुलाई को सारा देश “कारगिल विजय दिवस” के रूप में मनाएगा। उस युद्ध में भारतीय सेना ने सभी बाधाओं को पार करते हुए भारी बलिदान देते हुये भी कारगिल क्षेत्र के बर्फीले पहाड़ों से पाकिस्तानी घुसपैठियों को खदेड़ दिया था। यह भारत का पहला टेलीविज़न युद्ध भी था जिसके दौरान टोलोलिंग और टाइगर हिल जैसे अज्ञात निर्जन शिखर सारे देश की जुबान पर आ गए थे।

कारगिल युद्ध भारत और पाकिस्तान के बीच मई और जुलाई 1999 के बीच हुआ था। परवेज मुशर्रफ की सरपरस्ती में पाकिस्तान की सेना और कश्मीरी उग्रवादियों ने भारत और पाकिस्तान के बीच की नियंत्रण रेखा पार करके भारत की ज़मीन पर कब्ज़ा करने की कोशिश की। पाकिस्तान ने दावा किया कि लड़ने वाले सभी कश्मीरी उग्रवादी हैं, लेकिन युद्ध में बरामद हुए दस्तावेज़ों और पाकिस्तानी नेताओं के बयानों से साबित हो गया था कि पाकिस्तान की सेना प्रत्यक्ष रूप में इस युद्ध में शामिल थी।


भारतीय सेना और वायुसेना ने पाकिस्तान के कब्ज़े वाली जगहों पर हमला किया और धीरे-धीरे अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से पाकिस्तान को सीमा पार घुसपैठ को छोड़, अपने वतन में वापिस जाने को मजबूर किया। कारगिल युद्ध ऊँचाई वाले इलाके पर हुआ था और भारतीय सेनाओं को पहाड़ियों के नीचे से लड़ने में काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। परमाणु बम बनाने के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच हुआ यह पहला सशस्त्र संघर्ष था।

अंततः 26 जुलाई 1999 को भारत ने कारगिल युद्ध में विजय हासिल की थी। इसलिए 26 जुलाई हर वर्ष “कारगिल विजय दिवस” के रूप में मनाया जाता है। उस करीब दो महीने तक चले युद्ध में भारतीय सेना ने लगभग 527 से अधिक वीर योद्धाओं को खोया था वहीं 1300 से ज्यादा घायल हुए थे। युद्ध में 2700 पाकिस्तानी सैनिक मारे गए थे।


उन शहीदों के नाम कोई भी राजधानी के राष्ट्रीय युद्ध स्मारक में जाकर देख सकता हैं। उस जंग में दुश्मन के दांत खट्टे करने वाले शहीद कैप्टन अनुज नैयर की शौर्यगाथा को किसने नहीं सुना? राजधानी के दिल्ली पब्लिक स्कूल, धौला कुआं के छात्र रहे कैप्टन अनुज नैयर जाट रेजिमेंट में थे। कैप्टन अनुज नायर ने कारगिल जंग में टाइगर हिल्स सेक्टर में अपने साथियों के घायल होने के बाद भी मोर्चा सम्भाले रखा था।

उन्होंने दुश्मनों को धूल में मिलाकर इस सामरिक चोटी “टाइगर हिल्स” को शत्रु के कब्जे से मुक्त करवाया था। अब बात करें कैप्टन हनीफु्द्दीन की। कैप्टन हनीफु्द्दीन राजपूताना राइफल्स के अफसर थे। कैप्टन हनीफु्द्दीन ने कारगिल की जंग के समय तुरतुक में शहादत हासिल की थी। कारगिल के तुरतुक की ऊंची बर्फ से ढंकी पहाड़यों पर बैठे दुश्मन को मार गिराने के लिए हनीफु्द्दीन ऊपर से हो रहे गोलाबारी के बावजूद आगे बढ़ते रहे थे।

उत्तर प्रदेश के नोएडा के सेक्टर 18 में कैप्टन विजयंत थापर मार्ग है। कैप्टन थापर कारगिल युद्ध में देश के लिए कुर्बानी देने वाले सबसे कम उम्र के जांबाज थे। जून 1999 में कैप्टन विजयंत थापर ने तोलोनिंग पहाड़ी पर विजय हासिल की और भारत का तिरंगा लहराया। ये तो छोटी सी शौर्य गाथाएं हैं हमारे कुछ वीरों की। ये और बाकी तमाम वीरों को इसलिए रणभूमि में अपने प्राणों का बलिदान देना पड़ा, क्योंकि परवेज मुशर्रफ पर एक तरह से पागलपन सवार था। अंतत: उसका उसे नुकसान ही हुआ।


आजादी के बाद देश की सेनाओं ने चीन के खिलाफ 1962 में और पाकिस्तान के खिलाफ 1948, 1965, 1975 और 1999 में जंग लड़ी। ये सारी लड़ाईयां हम पर थोपी गईं। हमने तो कभी आक्रमण किया ही नहीं। 1987 से 19990 तक श्रीलंका में ऑपरेशन पवन के दौरान भारतीय शांति सेना के शौर्य को भी नहीं भुलाया जा सकता है। 1948 में 1,110 जवान, 1962 में सबसे ज्यादा 3,250 जवान, 1995 में 3,64 जवान, श्रीलंका में 1,157 जवान और 1999 में 522 जवान शहीद हुए। हमारी सेना में ऐसे जवानों की भी कमी नहीं है जो अलगाववादियों को पस्त करते हुए शहीद हुए।

इस बीच, पिछले सप्ताह जम्मू कश्मीर में आतंकियों से लड़ते हुए शहीद पांचों जवानों के शव विगत मंगलवार को देहरादून के जौलीग्रांट एयरपोर्ट लाए गए। उत्तराखण्ड की समृद्ध सैन्य परंपरा को अपने अदम्य साहस और पराक्रम से गौरवान्वित करने वाले अमर शहीदों की शहादत को कोटिशः नमन औरअश्रुपूरित श्रद्धांजलि। इन शहीदों में जूनियर कमीशन अधिकारी (जेसीओ) समेत पांच जवान शहीद और पांच अन्य घायल हो गए थे। शहीद होने वाले जवानों में सूबेदार आनंद सिंह, हवलदार कमल सिंह, राइफलमैन अनुज नेगी, राइफलमैन आदर्श नेगी, नायक विनोद सिंह शामिल हैं।

गुस्ताखी माफ, कभी-कभी तो लगता है कि रणबांकुरों को लेकर समूचे भारतीय समाज का रुख ठंडा ही रहा है। इससे अधिक निराशाजनक बात क्या हो सकती है कि पाठ्यपुस्तकों में उन युद्धों पर अलग से अध्याय तक नहीं हैं, जिनमें हमारे जवानों ने जान की बाजी लगा दी। हमारे बच्चे आज भी मुगलों और अंग्रेजों के इतिहास ही पढ़ रहे हैं। हां, हम गणतंत्र दिवस और स्वाधीनता दिवस के मौके पर जवानों को याद करने की रस्म अदायगी जरूर कर लेते हैं। कुछ समय पहले खबर आई थी कि पंजाब के लुधियाना शहर के मुख्य चौराहे पर 1971 की जंग के नायक शहीद फलाइंग ऑफिसर निर्मलजीत सिंह सेंखो की आदमकद मूर्ति के नीचे लगी पट्टिका को ही उखाड़ दिया गया। लुधियाना सेखों का गृहनगर था।

उन्हें अदम्य साहस और शौर्य के लिए मरणोप्रांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था। यह सिलसिला यहीं नहीं थम जाता। मोदीनगर (उत्तर प्रदेश) में 1965 युद्ध के नायक शहीद मेजर आशा राम त्यागी की मूर्ति देखकर तो किसी भी सच्चे भारतीय का कलेजा फटने लगेगा। इस तरह से दिल्ली सरकार ने भी शायद ही कभी कोशिश की हो कि 1971 की जंग के नायक अरुण खेत्रपाल के नाम पर किसी सडक़ या अन्य स्थान का नामकरण किया जाए। मुग़ल और अंग्रेज शासकों के नाम पर सड़कों की भरमार है। कौन कहता है कि दिल्ली बेदिल है। ये अपने शूरवीरों को याद रखती है। अब बातें-याद करें मेजर (डॉ.) अश्वनी कान्वा की। वे भारतीय शांति रक्षा सेना (आईपीकेएफ) के साथ 1987 में जाफना, श्रीलंका गए थे।

यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ मेडिकल साइंसेज के स्टुडेंट रहे थे मेजर अश्वनी कान्वा। हमेशा टॉपर रहे। मेजर कान्वा 3 नवंबर,1987 को अपने कैंप में घायल भारतीय सैनिकों के इलाज में जुटे हुए थे। उस मनहूस दिन शाम के वक्त उन्हें पता चला कि हमारे कुछ जवानों पर कैंप के बाहर ही हमला हो गया है। वे फौरन वहां पहुंचे। वे जब उन्हें फर्स्ट एड दे रहे थे तब छिपकर बैठे लिट्टे के आतंकियों ने उन पर गोलियां बरसा दीं। अफसोस कि दूसरों का इलाज करने वाले डॉ. मेजर कान्वा को फर्स्ट एड देना वाला कोई नहीं था। बेहद हैंडसम मेजर अश्वनी की शादी के लिए लड़की ढूंढी जा रही थी जब वे शहीद हुए। वे तब 28 साल के थे। आपको इस तरह के न जाने कितने ही उदाहरण मिल जाएँगे। ज़रूरत है कि वतन के लिए अपनी जान का नजराना देने वालों को सदा याद रखे भाऱत।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)

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