Kashi Vishwanath: मुगल कैद से बाबा कब मुक्त होंगे ? काशी कब तक कराहेगी ?

Kashi Vishwanath: सांप्रदायिक विभीषिका का ही अंजाम था कि इस्लामी पाकिस्तान का सृजन और भारत का विभाजन हुआ। समय रहते मथुरा और काशी में न्याय नहीं हुआ तो वहां भी अयोध्या जैसा नजारा पेश आ सकता है।

Written By :  K Vikram Rao
Update: 2024-01-21 17:31 GMT

Gyanvapi Case: इन दिनों काशी में बाबा विश्वनाथ का दर्शन करने के लिए जन सैलाब उमड़ पड़ा है। लाखों लोग बाबा विश्वनाथ का आशीर्वाद ग्रहण करने पहुँच रहे हैं। बाबा विश्वनाथ को स्पर्श कर रहे हैं। और रोमांचित हो रहे हैं। बाबा की पूजा अर्चना और स्पर्श करने का पुण्य कमा रहे हैं। पहले काशी जाकर बाबा विश्वनाथ का दर्शन एक बहुत मुश्किल काम होता था। कारण था जनरव। अपार भीड़। संकरे प्रवेश-मार्ग। गंदगी अलग। अब ऐसा कुछ नहीं है। सब कुछ साफ सुथरा है। तिरुपति-तिरुमला से भी ज़्यादा रमणीय ज़्यादा साफ़ सुथरा, ज़्यादा सुरम्य और ज़्यादा सुविधाजनक भी ।स्थानीय सांसद देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी के सौजन्य से।आप के पुण्य फल के मोदी भी भागी ज़रूर होंगे।

जब जब कृष्ण जन्मभूमि (मथुरा), राम जन्मभूमि (अयोध्या) और काशी विश्वनाथ देवालय जाइये तो हर आस्थावान हिन्दू होने के नाते मन में विचार आता है कि अतिक्रमण सेक्युलर भारत में असहय हैं। हिन्दू जन कितने क्लीव, कापुरूष, मुखन्नस रहे कि इन अतिक्रमणियों को सदियों से बर्दाश्त करते रहे ? ऐसे में याद आया केसरिया शूरवीर महाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया। जिसे हल्दीघाटी में हराने जयपुर का युवराज मानसिंह राठौर मुगलों का सेनापति बनकर गया था। तेलुगुमणि विजयनगर सम्राट आलिया रामाराया को तालिकोटा में 23 जनवरी, 1565 को रणभूमि में दक्कन बहमनी सुल्तानों ने धोखे से हराया था। सम्राट की सेना के इस्लामी सैनिक युद्धभूमि में दुश्मनों यानी सुल्तानों की फौज में शामिल हो गए थे। विजयनगर साम्राज्य का अंत हो गया। यानी हिंदू शासक धोखा खाते रहे। आस्थास्थल खोते रहे। ज्ञानवापी मस्जिद इसी क्रम की एक त्रासदपूर्ण उपज है।



काशी विश्वनाथ देवालय पर डॉ. लोहिया की कार्य-योजना का उल्लेख ज़रूरी है। पुणे की मुस्लिम सत्यशोधक मंडल के संस्थापक स्व. हामिद उमर दलवाई और लोहिया का प्रस्ताव था कि मुस्लिम युवजनों को सत्याग्रहियों के रूप में प्रशिक्षित किया जाए। वे सब काशी, अयोध्या और मथुरा में आंदोलन चलायें। लक्ष्य था कि हिंदुओं के आस्था के इन तीनों केन्द्रों को जिस तरह पाशविक बल से मुगलो ने ज़बरदस्ती नष्ट किया। उस पर क़ब्ज़ा किया। उस चैरिटी को ख़त्म किया जाये। और यह हिंदुओं को बहुमत से बातचीत से सौंप दिया जाये। जब देश आज़ाद हुआ तब भी यह उम्मीद की गई थी कि

आजाद भारत की सरकार इतिहास के इस अन्याय का खत्म करेंगी। बहुसंख्यक प्रजा क़ानूनी रुप से को उनके आस्था के के देर लौटा देगी। उनके पूजास्थल वापस कर दिए जायेंगे।… लेकिन हुआ बिल्कुल उल्टा। जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने यथास्थिति बरकरार रखी। भारत सरकार ने एक राष्ट्रीय एकीकरण समिति बनाई। इस समिति के सदस्यों ने काशी, मथुरा और अयोध्या का दौरा भी किया। इन स्थलों को देखते ही उस समिति के सदस्य पूर्णतया विभाजित हो गए। मगर सवाल यही उठा था कि जहीरूद्दीन बाबर को अयोध्या में ही मस्जिद निर्माण क्यों सूझी ? वह इस मस्जिद को गांव धन्नीपुर में बनवाता। यही अपेक्षा आलमगीर औरंगजेब से भी होती है कि बजाय ज्ञानवापी के, काशी के निकट बंजरडीहा में वह बड़ा मस्जिद बनवा देता। आगरा के सिकंदरा के पास जहां उसके माता-पिता की कब्र है उस के पास, बजाय ईदगाह के, मस्जिद बनवा देता।

ऐसी सांप्रदायिक विभीषिका का ही अंजाम था कि इस्लामी पाकिस्तान का सृजन और भारत का विभाजन हुआ। इतना सब होने के बाद भी ये तीनों मस्जिदें ऐतिहासिक नाइंसाफी और राजमद में डूबे बादशाहों की नृशंसता के प्रतीकों को यह सेक्युलर भारत कैसे सह पाया ? समय रहते मथुरा और काशी में न्याय नहीं हुआ तो वहां भी अयोध्या जैसा नजारा पेश आ सकता है। यह समय की यही चेतावनी है। इसे समझाने की ज़रूरत है,



इसीलिए काशी विश्वनाथ के दर्शन के बाद सेक्युलर भारत को सुदृढ़ कराने की प्रक्रिया तेज होनी चाहिए। क्या तर्क है कि भारतवासियों को सिद्ध करना पड़ रहा है कि राम, शिव, कृष्ण पहले आए थे अथवा इस्लाम ? ज्ञानवापी के खंडन को अदालत प्रमाणित करेगी कि यह मंदिर था ? वहां की शिल्पकला पर्याप्त प्रमाण नहीं है ? हिंदू की सौजन्यता और सहनशीलता को कमजोरी माना जाता रहा है, यह प्रक्रिया लंबी चली। अब नहीं। भारतवासियों का मूड बदला है, खासकर युवाओं की ऐतिहासिक न्याय के प्रति मांग बढ़ी है। अयोध्या में 6 सितम्बर, 1992 को यह भावना समुचित रूप से प्रकट भी हो चुकी थी। अब नेहरू का भारत नहीं रहा । जहां हिंदू कोड तो लागू हो गया, समान नागरिक संहिता पर हिचक हो, बवाल उठाया जाए।

काशी विश्वनाथ और मथुरा के दर्शन करने के बाद ऐसे विचार आप के मन में भी उठते ही होंगे। वक्त का तकाजा है कि राष्ट्रीय सोच में परिवर्तन हो। इतिहास गवाह है कि सत्ता जब अन्याय खत्म नहीं करती है तो फ्रांसीसी क्रांति जैसा उथल-पुथल होता है। जनविद्रोह होता है। देश को इससे बचाने की ज़रूरत है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, गद्यकार, टीवी समीक्षक एवं स्तंभकार हैं। राजनीति व पत्रकारिता इन्हें विरासत में मिले हैं। तकरीबन तीन दशक से अधिक समय तक टाइम्स ऑफ इंडिया समेत कई अंग्रेज़ी मीडिया समूहों में गुजरात, मुंबई, दिल्ली व उत्तर प्रदेश में काम किया। तकरीबन एक दशक से देश के विभिन्न समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में कॉलम लिख रहे हैं। प्रेस सेंसरशिप के विरोध के चलते इमेरजेंसी में तेरह महीने जेल यातना झेली। श्रमजीवी पत्रकारों के मासिक ‘द वर्किंग जर्नलिस्ट’ के प्रधान संपादक हैं। अमेरिकी रेडियो 'वॉयस ऑफ अमेरिका' (हिन्दी समाचार प्रभाग, वॉशिंगटन) के दक्षिण एशियाई ब्यूरो में संवाददाता रहे।45 वर्षों से मीडिया विश्लेषक, के. विक्रम राव तकरीबन 95 अंग्रेजी, हिंदी, तेलुगु और उर्दू पत्रिकाओं के लिए समसामयिक विषयों के स्तंभकार हैं। E-mail: k.vikramrao@gmail.com)

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