एक लता थीं, एक आज के सिंगर हैं
Lata Mangeshkar : लता मंगेशकर ने कहा था कि वह मौजूदा गायकों में लगन और जुनून नहीं देखती हैं। उन्होंने कहा था कि - मुझे लगता है कि वे कम ही समय में जो हासिल कर लेते हैं, उसी में वे खुश हैं।
Lata Mangeshkar : लता मंगेशकर (Lata Mangeshkar) ने एक बार आज के संगीत की तुलना ताजमहल की रीमॉडेलिंग से की थी। उन्होंने कहा था कि फिल्म इंडस्ट्री में 1947 से 1995 के बीच का दौर अलग था। उनके शब्दों में - "मैं उस युग का हिस्सा थी। मैं वर्तमान युग से जुड़ाव नहीं बना पाती हूँ और यह स्वाभाविक है। सब कुछ बदल गया है, फिल्में, अभिनेता और संगीत भी।"
'युवा गायक रियाज़ यानी अभ्यास को महत्व नहीं देते'
एक साक्षात्कार में, लता मंगेशकर ने कहा था कि वह मौजूदा गायकों में लगन और जुनून नहीं देखती हैं। उन्होंने कहा था कि - मुझे लगता है कि वे कम ही समय में जो हासिल कर लेते हैं , उसी में वे खुश हैं। लेकिन किसी भी कलाकार को अपनी उपलब्धि से संतुष्ट नहीं होना चाहिए। लता जी ने यह भी कहा था कि युवा गायक रियाज़ यानी अभ्यास को महत्व नहीं देते हैं। जबकि रियाज़ ही गायन को सार्थक बनाता है। गायक आज अपनी शास्त्रीय विरासत से पूरी तरह से संपर्क खो रहे हैं।
लता जी ने कहा था कि ए.आर. रहमान या शंकर महादेवन इतने सफल और लंबे समय तक चलने वाले हैं क्योंकि वे अपनी शास्त्रीय विरासत को जानते हैं। लता ने पुराने क्लासिक्स के रीमिक्स और कवर वर्जन के बारे में कहा था - मैंने रफ़ी साब, किशोरदा, मुकेश भैया, मेरे और मेरी बहन आशा द्वारा गाए गए गानों के कुछ रीमिक्स सुने हैं। उन्हें सुन कर मैं सहम जाती हूँ। कृपया, मूल संगीत बनाएं। अनुकरण सृजन नहीं है। यह कला भी नहीं है।
लता मंगेशकर की ये बातें कितनी सही हैं। आज भी ज्यादातर लोगों को गुजरे जमाने के गायक कलाकारों के नाम याद हैं, उस जमाने के गानों के हजारों विडियो यूट्यूब पर देखे – सुने जा सकते हैं। नए नए सिंगर यूट्यूब और टीवी चैनलों के रियलिटी शो में उसी गुजरे जमाने के गानों की अपनी आवाज में नक़ल उतारते हैं। यानी संगीत, खासकर बॉलीवुड संगीत 25 – 30 साल पहले ठहर चुका है। आज बॉलीवुड में हिन्दी गायक कलाकारों के चार नाम भी किसी के ज़ेहन में नहीं पाए जाते। ढेरों संगीत प्रतियोगिताएं, रियलिटी शो आदि के विजेता धमाके से सामने आते हैं – उन्हीं किशोर, मुकेश, लता, आशा के गानों की नक़ल उतार कर – लेकिन उसी तेजी से गुमनामी में चले जाते हैं।
'अब कोई गायक 5 से 7 साल ही चल पाता'
एक सिंगर हैं अर्जित सिंह जिनका नाम काफी मशहूर हुआ । लेकिन उनका खुद का कहना है कि बॉलीवुड में अब कोई गायक कलाकार 5 से 7 साल ही चल पाता है। उनका कहना है कि नए गायकों की आवाज का ताजापन बहुत जल्दी खत्म हो जाता है । इसके लिए सिर्फ गायक ही नहीं बल्कि संगीतकार और लेखक भी जिम्मेदार हैं। टीवी रियलिटी शो की बात करें तो छत्तीसगढ़ के अमित सना, कश्मीर के तौकीर काजी, मुम्बई के अभिजीत सावंत, असम के देबोजित चटर्जी आदि तमाम कलाकार आज कहाँ हैं, कोई नहीं जानता। इनमें से कुछ ने इक्का दुक्का फिल्मों में भी गाया लेकिन करियर वहीँ पर खत्म हो गया। श्रेया घोषाल और सुनिधि चौहान कुछ हद तक सफल रहीं । लेकिन गुजरे जमाने के गायकों के सामने कहीं नहीं ठहरतीं।
आज बॉलीवुड फिल्मों के ज्यादातर गाने बिना सबूत के ही डूब जाते हैं। बहुत से गाने काफी हद तक अनसुने रह सकते हैं क्योंकि वे उन फिल्मों में हैं जिन्हें कुछ ही लोग देखते हैं। मुट्ठी भर गाने चार्टबस्टर बन जाते हैं। इन गानों की थोड़ी बहुत शेल्फ-लाइफ होती है। ये गाने जरूर एफएम चैनलों पर सुने जाते हैं । लेकिन चंद महीनों बाद ये दिमाग से उतर जाते हैं। ये चार्टबस्टर्स श्रोताओं को कुछ देर के लिए आकर्षित करते हैं। लेकिन उनका आकर्षण जल्दी ही मुरझा जाता है।
1970 के दशक के बीच के साउंडट्रैक को आज भी सुनते हैं
आज के संगीत की कहानियां उनके बिलकुल विपरीत है, जिसे बॉलीवुड ने कई दशकों तक लगातार नियमितता के साथ पेश किया है। जो लोग फिल्म संगीत के शौकीन हैं वे 1950 और 1970 के दशक के बीच के साउंडट्रैक को आज भी सुनते हैं। हर हफ्ते नए साउंडट्रैक के उभरने के बावजूद उस दौर के गाने सुने और गुनगुनाए जाते हैं। आज लखनऊ से लेकर मुम्बई तक की टेम्पो-टैक्सियों में आपको वही लता, आशा, मुकेश या रफ़ी के ही गाने बजते मिलेंगे। छोटे शहरों में टेम्पो – ई रिक्शा भले ही कम उम्र के लड़के या युवा चलाते हों लेकिन उनकी गाड़ी में गाने 50 से 70 तक के दशक वाले बजते हैं। यानी चाहे नई पीढी हो या पुरानी - लोगों की पसंद अब भी वही पुराने गाने हैं।
याद करें तो राज कपूर की फिल्मों के लिए शंकर-जयकिशन के भावपूर्ण गाने दिमाग में आते हैं। वो असाधारण गाने जिनको आरडी बर्मन ने राजेश खन्ना की फिल्मों के लिए कंपोज किए थे। एसडी बर्मन, खय्याम, नौशाद, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, ओपी नैयर, सी रामचंद्र और अन्य संगीत निर्देशकों का काम शानदार था। जिन्होंने भारतीय शास्त्रीय परंपरा में डूबे लोगों से लेकर पश्चिम से प्रभावित अन्य लोगों तक सभी प्रकार के रत्नों का निर्माण किया।
एक लता मंगेशकर थीं जिनके गायन ने आज भी श्रोताओं को बांधे रखा है। किशोर कुमार अपनी सहजता और बहुमुखी प्रतिभा से मंत्रमुग्ध करते थे। मोहम्मद रफ़ी ने अपनी आवाज और अपने परफॉरमेंस को एक विशेष गहराई दी। मुकेश कोमल धुनों के लिए बने थे। आशा भोंसले, किशोर कुमार की तरह, सहज थीं और एक उन्मुक्त आवाज की धनी थीं। तलत महमूद ने ग़ज़लों को नई गहराई दी। मन्ना डे में एक विशेष प्रतिभा थी जो किसी भी तरह के गीत को गा सकती थी।
'गायकी उस स्टार से भी कहीं नीचे जा चुकी है'
हिंदी फिल्म संगीत भाग्यशाली था कि उसे ऐसे संगीतकार और गायक मिले जिनके काम ने दशकों तक फिल्मों को अलंकृत किया। लेकिन क्या कोई समकालीन संगीत निर्देशक और गायक ऐसी उत्कृष्ट कृतियों का निर्माण करने में सक्षम है? उन लोगों की एक – एक रचना में जो निहित सुंदरता थी जो हमें आज भी याद है वह आज के क्रिएशन में गायब है।
गुजरे जमाने के संगीतकार लक्ष्मीकान्त - प्यारेलाल ने एक बार कहा था कि आज के समय का हिंदी फिल्म संगीत उस औसत दर्जे को भी नहीं छू पा रहा है जितना कि 80 के दशक में डिस्को म्यूजिक के दौरान हुआ करता था। आज का संगीत और गायकी उस स्टार से भी कहीं नीचे जा चुकी है।लता, रफ़ी, किशोर, मुकेश जैसे गायकों की सरजमीं पर उनकी पैरों की धूल के बराबर तक के गायकों का न बन पाना दुखद है। पीढ़ियां बदलती हैं, ज़माना बदलता है। लेकिन बदले जमाने और बदली पीढ़ी में भी हम सिर्फ उसी जमाने के संगीत और गायकों को याद करते हैं। ये हमारे समाज में क्वालिटी के प्रति सोच, समझ और सम्मान के नजरिये को दर्शाता है।
लता मंगेशकर की आवाज का हर कोई दीवाना
आठ दशक तक कोई किसी देश की छह पीढ़ियों पर राज कैसे कर सकता है। सहस्राब्दी की आवाज़ कोई कैसे बन सकता है। किसी की आवाज़ ही उसकी पहचान कैसे बन सकती है। जबकि पहचान के लिए भगवान ने चेहरा दे रखा है। वह भी बैलगाड़ी युग से लेकर आज के सुपर सोनिक जेट युग तक। ग्रामोफ़ोन से लेकर कैसेट, सीडी, डीवीडी के काल से लेकर आज के इंटरनेट युग तक । तकनीकी चाहे कितनी भी बदली पर लता जी के आवाज़ का जादू नहीं बदला। उसका प्रभाव बढ़ता ही चला गया। छत्तीस भाषाओं के लोगों को अपने जादुई मखमली आवाज़ का दीवाना कैसे बनाया जा सकता है।
स्वर व सुरों से भगवान व भक्ति को दुनिया में कैसे पहुँचाया जा सकता है। सुर व ताल को अपना पर्याय कैसे बनाया जा सकता है। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक को मुरीद कैसे बनाया जा सकता है। ऐसा महज इसलिए हो सका क्योंकि वह कई पीढ़ियों के सुख दुख को वाणी देने वाली आवाज़ थीं। प्रेम व विछोह, तकरार व मनुहार के लता के कंठ से कई पीढ़ियों ने गुनगुनाना, प्रेम करना व सपने देखना सीखा। उनके गानों में संस्कृति की सुगंध मिलती है। लता जी शब्दों का संगीत से मेल की बड़ी पैरोकार थीं। उनका कंठ हमेशा ताज़ा, युवा व नया बना रहा। उनके गायन की रेंज बड़ी है। वह नायिका के व्यक्तित्व के हिसाब से अपनी आवाज़ को ढाल लेती थीं। उन्होंने गानों व तरानों के लिए वह चरित्र, समय व कहानी के अनुसार फ़िल्मी परिस्थिति के मनोभाव व मनोदशा के हिसाब से पेश किया। गीत को भावनाओं में पिरो दिया। कर्म उनके लिए पूजा था। गायन को भक्ति । वह
संगीत उनके लिए धर्म, कर्म, देह और आत्मा
सरस्वती थीं, तभी तो उनके पार्थिंव देह की अंत्येष्टि देवी सरस्वती की प्रतिमाओं के विसर्जन के दिन हुआ। संगीत में साँस लेतीं। उन्हें अशिष्ट व द्वि अर्थी शब्द या वाक्य पसंद नहीं थे। वह हर गाने के एक एक शब्द को पूजा पर चढ़ाये जाने वाले फूलों की तरह पहले माँजती थीं। संगीत उनके लिए धर्म, कर्म, देह और आत्मा सब था। तभी तो वह अपने सुरों को आकार देते समय या सुरों से जुड़ा कोई पुरस्कार लेते समय एकदम धर्मनिष्ठ मुद्रा में देखा जा सकता था।
पहले संगीत में शब्दों का इस्तेमाल ज़्यादा होता था। सुर व ताल बहुत मिलते थे।अभी शब्द कम होते हैं, ट्यून ज़्यादा होती है। पहले रियल आवाज़ होती थी। अब तो आवाज़ को जादुई बनाने के तमाम यंत्र हैं। सुव्यवस्थित ध्वनि जो रस की सृष्टि करे संगीत कहलाती है। स्वर व लय की कला को संगीत कहते हैं।सामवेद संगीत का ही ज्ञान है। आज के कलाकार के लिए गाना नौकरी की तरह का एक प्रोफ़ेशन है महज़। वह भाव से नहीं भौतिकता से जुड़ा है। जुडाव का ही तरीक़ा कालजयी बनाता है।