Uttar Pradesh: आंकड़ों में उनकी-मेरी नज़र में चाक-चौबंद उप्र
Law and order: उत्तर प्रदेश के दंगा और अपराध रहित होने की बात कही तो कुछ देर के लिए मैं भौंचक सी समाचारपत्र की लीड स्टोरी में उनकी कही बातों को पढ़कर स्वंय से उलझती रही।
Law and order: सच है कि राजनीति हो या व्यापार... दोनों में ही वादों-बातों की झूठ की चाशनी लपेटे बिना अपना काम नहीं बनता। जितने आत्मविश्वास और दृढ़ता से अपनी बात रखी जायेगी उतनी ही पकड़ से आप सामने वालों पर अपना असर छोड़ पायेगें। इस मामले में अपने योगी जी भी किसी भी हाल में मोदी जी से पीछे नहीं। अपने प्रचार तंत्र के सहारे, अब वह चाहे मीडिया हो या फिर सर्वे संस्थाएं या फिर उनके स्वयं की प्रचार साम्रगी, वे वही दिखाएंगें जो उनके सुशासन पर मुहर लगाये और उनका महिमामंडन करें। गत दिनों उन्होंने जब उत्तर प्रदेश के दंगा और अपराध रहित होने की बात कही तो कुछ देर के लिए मैं भौंचक सी समाचारपत्र की लीड स्टोरी में उनकी कही बातों को पढ़कर स्वंय से उलझती रही। ऑंख में धूल झोंकना इसी को कहते है। पहले पन्ने की इस ख़बर का असल आईना भीतरी पृष्ठों पर नज़र आ गया। यंू तो अख़बारों के पन्ने राज्य में होने वाले अपराधों और उनकी जघन्यता की ख़बरों से रोजाना ही पटे पड़े रहते हैं और विपक्षी नेताओं के हर दूसरे.-तीसरे ट्वीट तो राज्य में कथित तौर पर बढ़ रहे अपराधों के संदर्भ में नज़र आते ही है। लेकिन उस दिन मुख्यमंत्री की इस झूठगोई पर मैं अवाक् रह गई। इस संदर्भ में फ़ुज़ैल जाफ़री का एक शेर याद आ रहा है-
भूले-बिसरे हुए ग़म फिर उभर आते हैं कई
आईना देखें तो चेहरे नज़र आते हैं कई
दरअसल उनका यह ताल ठोकू बयान राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा हाल ही में जारी एक रिपोर्ट के बाद आया जिसके अनुसार, एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, 2019 की तुलना में 2021 में उत्तर प्रदेश में महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराध में क्रमशः 6ण्2 फीसदी और 11ण्11 फीसदी की कमी आई है। राज्य में वर्ष 2019 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 59ए843 मामले दर्ज किए गए, जो 2021 में घटकर 56ए083 रह गए। इसी तरह, 2019 में बच्चों के खिलाफ अपराध के 18ए943 मामले दर्ज किए गए, जो 2021 में घटकर 16ए838 रह गए। एनसीआरबी की रिपोर्ट 2021 यह भी बताती है कि देश में अधिकांश अपराधों में उत्तर प्रदेश राज्य में सजा दर सबसे अधिक है।
गौर करने वाली बात ये है कि एनसीआरबी रपट का वर्ष 2019-21 है। आँकड़ों का यह तुलनात्मक अध्ययन योगी सरकार के कार्यकाल का है, जो 'ज़ीरो टॉलरेंस की नीति' की हक़ीक़त की स्वयं तसक़ीद़ करता है। पहले, वर्ष 2017 से पूर्व की सरकारों की क़ानून-व्यवस्था से तुलना करने वाली सरकार अब आँकड़ों की जादूगरी को नये आयाम देते हुए 'ऑल इज वेल' का फ़ील देने के लिए अपने कार्यकाल के अपराध के आँकड़ों से अपनी ही तुलना कर रही है। इसे आप अपनी पीठ ठोकना कहेगें या जानते-बूझते आकड़ों में अपनी कंट्रोलिंग का तबसरा पढ़ना। बाक़ी तो ले है कि सत्ता की चाल सत्तानशीं ही बेहतर समझ सकते है।
योगी सरकार पर विपक्ष हमलावर
यूं तो कानून व्यवस्था को लेकर सूबे की योगी सरकार पर लगातार विपक्ष हमलावर रहा है, लेकिन इन आंकड़ों ने राज्य की बीजेपी सरकार या यूं कह लें योगी सरकार की थोड़ी बहुत लाज बचा ली। अब काग़जों से बड़ी चीज भला क्या है। भले ही इस आंकड़ें से एक दिन पहले या एक दिन बाद या फिर उसी एक क्षण में किसी की हत्या, किसी के साथ बलात्कार या डकैती या कोई भी तरह का अपराध हुआ या हो रहा हो। काग़जों में तो उप्र सबसे अव्वल प्रदेश नज़र आ रहा है। रही-सही कसर वि़ज्ञापनों की ड्राफ्ंिटग के जरिए हो जाती है। विपक्ष हो या जनता, उनको तो बस पढ़ाना है और बताना हैै कि इस सरकार से बेहतर न कुछ था और न होगा। आधी से ज्यादा रोज़मर्रा की क़वायद तो इस सुशासन की ड्राफ्ंिटग के ही नाम चली जाती है। बाकी जैसा चलता है चलता ही रहता है और चल ही रहा है। अब किसे इतनी फुरसत कि सत्यता को जांचें परखे। हॉं, पर अपराध तो दिखने वाली चीज है....वह देर-सबेर प्रकट हो ही जाता है। कभी सरेराह चलती गोलियों के रूप में तो कभी वीभत्स और घृणित रूप में।
मुझे याद है जून 2017 में इंडिया टीवी को दिए एक साक्षात्कार में अपने धारदार अल्फाज़ों में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा था अगर अपराध करेंगे तो 'ठोक' दिए जाएंगे। इसे बनाये रखने की उस वक्त उन्होंने शपथ भी ली। उसी के तुरंत बाद आरंभिक कवायद के तौर पर दिलफेंक छोकरों की बन आई थी। नवयुवतियां प्रसन्न हुई और सुरक्षित महसूस करने लगी। लेकिन जिस गति से ये 'रोमियो मुहिम' चली उसी गति से बेदम भी हो गई और फिर से छेड़खानियां अपने चरम पर पहंुचने लगी। फिर बड़ी वाली 'दबिश' चालू हुई और शुरू हुआ इसका-उसका 'एनकांउटर'। यकीनन इसका असर हुआ। बेज़ा हरकत बवाल करने वाले दुबक कर बिलों में चुप बैठ गये। योगी हीरो तो बन गये पर नागरिकों पर सामान्य से कानून का भी भय न बना सके।
भाजपा के एक नेता (नाम न देने की शर्त पर) के अनुसार बड़े-बड़े माफ़िया के यहां छापेमारी होने से अपराध की कुछ घटनाएं जरूर कम हुई और संगठित अपराध तो लगभग बंद ही है। कुछ फर्जी के एनकाउंटर और कुछ खास तबके वालों को टारगेट करने से माहौल कुछ समय को बिगड़ा जरूर, लेकिन फिलवक्त तो शांति है। अब घरेलू विवाद या फिर आपसी विवाद के चलते जो घटनाएं होती हैं. इन्हें रोक पाना तो किसी भी सरकार के लिए मुश्किल होता है। फिर भी दोषी के खि़लाफ कड़ी कार्रवाई की ही जा रही है।
अपराध की घटनाएं
कारवाई के बावजूद कहना न होगा कि अपराध की घटनाएं राजधानी लखनऊ समेत लगभग हर ज़िलों में बदस्तूर जारी हैं। कई मामलों में अब तक वारदात को अंजाम देने वाले अभियुक्त भी पुलिस की पकड़ से बाहर हैं। आपको याद हो तो कानपुर में संजीत यादव अपहरण कांड में पुलिस वालों ने अपहरणकर्ता को फ़िरौती की रक़म भी दिला दी, बावजूद इसके पुलिस संजीत को बचा न सकी। अपहरणकर्ताओं ने उसकी हत्या कर दी। ऐसे कितने ही केस है जिन पर आप तर्क-वितर्क करना चाहे तो फेहरिस्त खत्म नहीं होगी। लेकिन कुल मिलाकर यही बात है कि आखिर किस-किस का जिक्र करें, किस-किस को रोएं। बड़ी वारदातें तो छिपाये नहीं छिप पाती, पहले पेज से लेकर भीतरी पृष्ठों तक अपना स्थान बना ही लेती है। लेकिन फिलहाल मैं गुलिस्तां कालोनी का जिक्र कर रही जहां आये दिन छुटपुट चोरी आम बात होती जा रही जबकि मुख्यमंत्री के प्रोटोकाल के कारण ये इलाका यूं ही बेहद सतर्क रहता है। दिन में 4 से 5 बार मुख्यमंत्री के इन रूटों से एयरपोर्ट जाने-आने के कारण पुलिस चौकसी लगातार बनी रहती है। डीसीपी रैंक के एक अधिकारी का स्वंय यहीं सरकारी निवास है। बावजूद इसके इस एरिया में बढ़ रही चोरियों से लोग परेशान है। पिछले साल ठीक मुख्यमंत्री आवास और राजभवन के बीच एसेक्स बैंक के आगे से कैश वैन के ड्राइवर को मार नकदी लूट हवा में फायर करते अपराधी भाग निकला। ये बात अलग है कि हाइली अलर्ट जोन में कांड होने से पुलिस महकमा ऊपर से नीचे तक हिल गया और चार से पांच घंटे के भीतर अपराधी पकड़ा गया।
जहां तक मेरा विचार है अपराध की श्रेणी में चोरी, फर्जीवाड़ा, कत्ल, दंगा-फसाद, महिला हिंसा या डकैती ही नहीं आते। कब्जा, धोखाधड़ी या फिर किसी भी तरह के सिविल कानून को न माना जाना भी अपराध होता है। समाजवादी पार्टी के नेता मेजर आशीष चतुर्वेदी कानून व्यवस्था के लचीले रूख को हर तरह के छोटे-बड़े अपराध की वजह मानते है। कहते है 'योगी सरकार में शीर्षतम पदों पर तैनात कई अधिकारियों की कोठियां अंसल एपीआई में हैं। बावजूद इसके इसी सोसाइटी के एक फ्लैट में गत एक वर्ष से अवैध तौर पर गेस्ट हाउस चल रहा है। सोसायटी संचालक लगातार गेस्ट हाउस चलाने वालों को नोटिस और पुलिस को शिकायती पत्र भेज रहे हैं लेकिन कोई भी कार्रवाई नहीं हो रही। अब आप खुद ही आकलन कर लें कि योगी सरकार में कानून-व्यवस्था का हाल किस स्तर का है। इस से आम आदमी के प्रति पुलिस प्रशासन के असहयोगी बर्ताव को आसानी से समझा जा सकता है।'
समाज है तो अपराध भी होंगे ही। इनकी कैटेगरी भी अलग-अलग होगी। कुछ मामलों में सरकार फेल भी होती रही है। लेकिन कुशल प्रशासन तो तब ही कहा जा सकता है जब इस पर नियत्रंण करने की रफतार तेज और सख़्त रवैया लिए हो। उसमें भी सबसे बड़ी बात ये कि यह पूरी तरह से पक्षपात रहित हो। कानून के जानकारों का कहना है कि क़ानून-व्यवस्था बेहतर होने का मतलब यह होता है कि नागरिकों को क़ानून का भय होना चाहिए। लेकिन अफसोस इस बात का है कि यही भय कोई भी सरकार नहीं बना पाती। कुछ हद तक बसपा सरकार के समय मायावती राज में कानून का भय रहा जिसे आज भी याद किया जाता है। लेकिन जैसा कि सुंदरकांड में श्रीराम कहते है 'भय बिन होत न प्रीति', योगी जी को भी को इसी पंक्ति को आधार बनाकर हर तरह के अपराध के खिलाफ मोर्चा खोलना होगा। कानून का भय हर छोटे-बड़े को दिखाना ही नहीं मानने को मजबूर करना होगा। तभी काग़जोें से परे सप्रमाण साक्षात सुशासित 'रामराज्य' की परिकल्पना साकार हो सकेगी और बिना किसी असत्य भाषण के अपनी बात भी ताल ठोककर कही जा सकेगी। तब होगी जनता भी खुश और विपक्ष होगा सदैव के लिए चुप।