lord Hanuman: वेद में हनुमान का स्वरूप
lord Hanuman: भागवत माहात्म्य में ज्ञान की वृद्धि कहा गया है और उस क्षेत्र को कर्णाटक कहा गया-"उत्पन्ना द्रविड़े साऽहं वृद्धिं कर्णाटके गता"।
lord Hanuman: वैदिक वर्णन-वेद में तत्त्व रूप वर्णन हैं जिनके मूलतः आधिदैविक अर्थ हैं। इनका विस्तार आधिभौतिक तथा आध्यात्मिक अर्थों में भी है। शब्द रचना मूलतः भौतिक पदार्थों के कर्म और गुण अनुसार हुई थी (मनुस्मृति, १/२१), उनके अर्थ का विस्तार आधिदैविक तथा आध्यात्मिक रूपों में हुआ। इसे भागवत माहात्म्य में ज्ञान की वृद्धि कहा गया है और उस क्षेत्र को कर्णाटक (कर्ण द्वारा वेद या श्रुति का ग्रहण) कहा गया-"उत्पन्ना द्रविड़े साऽहं वृद्धिं कर्णाटके गता" (पद्म पुराण, उत्तर, १९३/४८)। वेद शब्दों की परिभाषा व्याख्या ब्राह्मण भाग में है। उनका भौतिक वर्णन इतिहास-पुराण में है-
"इतिहास पुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्॥२६७॥"
" बिभेत्यल्पश्रुताद् वेदो मामयं प्रहरिष्यति।"
(महाभारत, १/१)
•अतः तीनों को मिला कर पढ़ने से ही पूर्ण ज्ञान हो सकता है।
जगन्नाथ के विषय में भी पाश्चात्य प्रचार था कि वे अशिक्षित वनवासियों के टोटेम (प्रतीक, देवता मानने से कष्ट होता है) थे, अतः उनकी मूर्त्ति के हाथ-पैर नहीं बनते (Gayacharan Tripathi, Hermann Kulke-Jagannath Cult)। इस दुष्प्रचार के लिए हरमन कुल्के को पद्मविभूषण मिला। बाद में और प्रचार होने लगा कि पूर्व तट ओड़िशा के प्रत्येक अंचल में जगन्नाथ की अलग अलग धारणा थी-जगन्नाथ को जगत् स्वरूप के बदले हर ग्राम का अलग स्वरूप करने का षड्यन्त्र। किन्तु भाषण देने के समय त्रिपाठी जी ने कहा कि जगन्नाथ परब्रह्म और वेद स्वरूप हैं (२००४ में दिल्ली में डॉ कर्ण सिंह की अध्यक्षता में सम्मेलन)। मैंने कहा कि आप पुस्तक तथा लेखों में बिल्कुल उलटा लिखते हैं। उन्होंने कहा कि पहले यह मेरा विचार था, अब ठीक से लिखूंगा। पर वैसा लेख कभी नहीं लिखा जैसा भाषण करते थे, क्योंकि पाश्चात्य धारणा की प्रशंसा द्वारा पद लेना था। अधिकांश प्राध्यापक भाषण में वेद को अपौरुषेय, अनादि आदि कहते रहते हैं किन्तु पुस्तकों में लिखते हैं कि वैदिक युग १५०० ईपू में आरम्भ हुआ। अतः मैंने जगन्नाथ की वैदिक व्याख्या के लिए पुस्तक लिखी जिसका घोर विरोध हुआ। मैंने अन्तिम तर्क दिया कि स्वयं भगवान् कह रहे हैं कि वेद में उनका ही वर्णन है, आप कौन होते हैं उसका विरोधकरने वाले।
"वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यं।"
(गीता, १५/१५)।
•विष्णु के जगन्नाथ या पुरुष रूप में जो कहा है, वही हनुमान् के वृषाकपि रूप विषय में भी है-
"तत्र गत्त्वा जगन्नाथं वासुदेवं वृषाकपिम्।
पुरुषं पुरुष सूक्तेन उपतस्थे समाहिताः॥"
(भागवत पुराण, १०/१/२०)
"ततो विभुः प्रवर वराह रूपधृक् वृषाकपिः प्रसभमथैकदंष्ट्रया।"
(हरिवंश पुराण, ३/३४/४८)
•शुक्ल यजुर्वेदीय तारसारोपनिषद् में हनुमान् का परब्रह्म रूप वर्णित है।
•२. कल्याण विशेषांक-कल्याण के श्रीहनुमान अङ्क (१९७५) में कुछ लेख हनुमान के वेद वर्णन विषय में हैं। आरम्भ में हनुमान गायत्री सहित ऋक् (५/३/३,९/६९/१, ९/७१/२, ९/७२/५, १०/५/७) तथा साम (११/३/१/२) मन्त्र दिये हैं। स्वामी गंगेश्वरानन्द जी ने ऋग्वेद के कई मन्त्रों की हनुमान् चरित्र सम्बन्धित व्याख्या की है-ऋक (१/१२/१) में अग्नि अर्थात् अग्रि के दूत, विश्ववेदस (सर्वशास्त्रज्ञ), यज्ञ के सुक्रतु रूप में वर्णन है। ऋक् के प्रथम मन्त्र के चान्द्र भाष्य अनुसार अग्नि को वायुपुत्र हनुमान् तथा रत्न-धातम (राम की मुद्रिका, सीता की चूड़ामणि धारण करने वाले), पुरोहित (सबके आगे रह कर हित करने वाले), होतारं (लंका तथा असुरों को अग्नि और युद्ध में हवन करने वाले हैं। हनु भग्न होने का उल्लेख ऋक् (४/१७/९) में है। हनुमान् शब्द का हन्मन रूप वेद वर्णित है। ऋग्वेद में दूत शब्द ९० बार, हनू शब्द ४ बार तथा हन्मना शब्द ५ बार प्रयुक्त हुआ है। हनुमान् के लिए अपां-नपात् शब्द कई स्थानों पर है (ऋक् सूक्त २/३५, १/, ७, ९, १०, १३, १०/३०/३-४)। आकाश से वायु (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/१), वायु से हनुमान् होने से वह आकाश या अन्तरिक्ष स्थित अप् के पौत्र (अपां-नपात्) हैं। ऋक् (२/३५/१०) में अपां-नपात् को कई प्रकार से हिरण्य रूप कहा है जिस रूप में हनुमान् की स्तुति है-
"अतुलितबलधामं हेमशैलाभ देहं।"
(रामचरितमानस, सुन्दरकाण्ड, मंगलाचरण)
"अशोभत मुखं तस्य जृम्भमाणस्य धीमतः।
अम्बरीषमिवादीप्तं विधूम इव पावकः॥"
(रामायण, ४/६७/७)
•ऋक् (१/१९) सूक्त के सभी ९ मन्त्रों के अन्त में ’मरुद्भिरग्न आ गहि’ कहा है। यहां मध्यम मरुत् स्थान् की अग्नि का अर्थ हनुमान् है।
स्वामी जी की व्याख्या के अतिरिक्त ऋक् (१/१९) के हर मन्त्र में में रामायण के हनुमत् चरित्र के कई घटनाओं का उल्लेख है तथा इसे हनुमान् सूक्त कहा जा सकता है-
•(१) आक्रमण के समय जोर से हू शब्द करते हैं-प्र हूयसे। ननाद भीम निर्ह्रादो रक्षसां जनयन् भयम् (रामायण, ५/४३/१२)
•(२) कोई देव या मर्त्य उनकी बराबरी नहीं कर सकता-नहि देवो न मर्त्यो महस्तव।
(३) सर्व शास्त्र जानने वाले-
"ये महो रजसो विदुः। - सर्वासु विद्यासु तपोनिधाने, प्रस्पर्धतेऽयं हि गुरुं सुराणाम्।
सोऽयं नवव्याकरणार्थवेत्ता, ब्रह्मा भविष्यत्यपि ते प्रसादात्॥"
(वा. रामायण, ७/३६/४७)
•(४) "अजेय-अनाधृष्टास ओजसा।-
न रावण सहस्रं मे युद्धे प्रतिबलो भवेत्।।"
(रामायण, ५/४३/१०)
•(५) प्रचण्ड तेजस्वी तथा असुर नाशक-
"ये शुभ्रा घोर वर्पसः, सुक्षत्रासो रिशादसः।"
•(६) स्वर्ग देव शिव अवतार-
"ये नाकस्याधि रोचने दिवि देवास आसते।"
•(७) पर्वत ले जाने वाले (पर्वत से प्रहार, संजीवनी पर्वत उठा कर उड़ने वाले) तथा समुद्र पार करने वाले-
"य ईङ्खयन्ति पर्वतान्, तिरः समुद्रम् अर्णवम्।"
•(८) शरीर विस्तार से समुद्र जैसे-
"आ ये तन्वन्ति रश्मिभिः, तिरः समुद्र ओजसा।"
•(९) मधु सोम या लड्डू भोग-
"अभि त्वां पूर्व पीतये, सृजामि सोम्यं मधु।"
इसके अतिरिक्त हनुमान के प्रणव रूप तथा नीलकण्ठ के मन्त्र रामायण में उल्लिखित हनुमत् चरित्र सम्बन्धी वेद मन्त्रों का संकलन कुछ लोगों ने किया है।
••३. प्रणव रूप-(रामानुजाचार्य श्री पुरुषोत्तमाचार्य जी के अनुसार)-यह सूर्य के शिष्य हनुमान् जी की गुरु परम्परा में सुरक्षित है। विश्व वाक् तत्त्व का परिणाम है, जो २ प्रकार का है-अर्थवाक्, शब्द वाक्।
ॐ की व्युत्पत्ति अवति, अवाप्नोति आदि धातुओं से है।
अव रक्षण-गति-कान्ति-प्रीति, तृप्ति-अवगम-प्रवेश-श्रवण-स्वामी-अर्थ याचन-क्रिया-इच्छा-दीप्ति-अवाप्ति-आलिङ्गन-हिंसा-आदान-भाव-वृद्धिषु (धातु पाठ, १/३९६)
आप्लृ व्याप्तौ (५/१५) के पूर्व अव उपसर्ग से अवाप्नोति होता है = मिलना, पाना।
ॐ की शास्त्रीय व्याख्या में इतने अर्थ नहीं हैं, किन्तु हनुमत् चरित्र सभी प्रकार के अर्थ वाक् का समन्वय है।
गोपथ ब्राह्मण, पूर्व (१/१६-२८) में ॐ की विस्तृत व्याख्या है।
शब्दमय ॐ-एकाक्षर स्फोट है।
२ अक्षर के ॐ में ओ = ओत, म = मित। इस परब्रह्म में सभी मित हैं।
३ अक्षर का ॐ-विश्व या वैश्वानर, तैजस, प्राज्ञ विश्व के प्रतीक अ, उ, म हैं। (माण्डूक्य उपनिषद्)
४ अक्षर ॐ में अ, उ, म के अतिरिक्त विन्दु परात्पर ब्रह्म है।
अर्थ रूप ॐ वेद या विश्व का चतुर्धा विभाजन है।
ॐ के ३ अंग अ, उ, म-अव्यक्त विश्व हैं।
हनुमान् के ३ पूर्ण अक्षरों से व्यञ्जन निकालने पर ॐ के ३ अक्षर होते हैं। अर्धमात्रा विन्दु का रूप ’न्’ है। पुच्छ सहित हनुमान् का शरीर ही ॐ रूप में है।
•४. आञ्जनेय-भौतिक शरीर रूप में हनुमान् अञ्जना के पुत्र थे। उनको पुञ्जिकस्थली अप्सरा कहा गया है (रामायण, ४/६६/८)। ब्रह्माण्ड् के अप् समुद्र में रमण करने वाले नक्षत्र ही अप्सरा हैं-नक्षत्राण्यप्सरसः (वाज यजु, १८/४०, शतपथ ब्राह्मण, ९/४/१/९)। इस अर्थ में हनुमान् का अर्थ दृश्य जगत् है, जो अव्यक्त पुरुष से प्रकट हुआ-पहले चतुष्पाद पूरुष, उससे निर्मित विश्व पुरुष, उसके बाद विराट् (पुरुष सूक्त, ३-५)।
अव्यक्त विश्व का व्यक्त रूप विराट् है जो अञ्जन परिग्रह के कारण दीखता है। अतः अव्यक्त ॐ में वि+अञ्जन लगाने पर हनुमान् शब्द बनता है। ॐ = अ + उ + म्। हनुमान् = (ह्)अ +(न्)उ + (म्)आ।
पण्डित मधुसूदन ओझा (ब्रह्म चतुष्पदी, तथा उनके शिष्य पण्डित मोतीलाल शर्मा (श्राद्ध विज्ञान-१, गीता बुद्धियोग परीक्षा-१) ने अव्यक्त निर्विशेष आत्मा के ६ परिग्रहों द्वारा दृश्य या विराट् जगत् निर्माण की व्याख्या की है-माया (शैव दर्शन के अनुसार ७ आवरण या कञ्चुक), कला (१६ भेद), गुण, विकार, अञ्जन, आवरण। आवरण द्वारा सीमाबद्ध पिण्ड बनते हैं। जिस प्रकार के आवरण से पिण्ड का रूप दीखता है, वह अञ्जन है। इसी अञ्जन परिग्रह रूप विश्व के रूप आञ्जनेय हनुमान् हैं।
स इमा विश्वा भुवनानि अञ्जत् (अथर्व, १९/५३/२)
"अञ्जसा शासता रजः" (ऋक्, १/१३९/४)
•५. महावीर-यज्ञ सामग्री के पाचन के लिए आवरण या बर्तन को महावीर कहते थे (वाज यजु, १९/१४, शतपथ ब्राह्मण, १४/१/२/९/१७, १४/३/१/१३, १४/३/४/१६, १४/२/२/१३, ४०, पञ्चविंश ब्राह्मण, ९/१०/१, कौषीतकि ब्राह्मण, ८/३/७ आदि)। मनुष्य में वीरता की सीमा महावीर है। लोक भाषा में देश सीमा पर सैन्य स्थान को वीर कहते हैं, जैसे मत्स्य राज्य की सीमा को वीर मत्स्य कहा गया है (रामायण, २/७१/५)। वीरभोग्या वसुन्धरा के अर्थ में भोक्ता को भी वीर कहा गया है-अत्ता ह्येतमनु। अत्ता हि वीरः। (शतपथ ब्राह्मण ४/२/१/९)। आकाश में किसी क्षेत्र की सीमा को वीर कहते हैं, जो यज्ञ का शीर्ष भी है।
शिरो वा एतद् यज्ञस्य यत् महावीरः (कौषीतकि ब्राह्मण, ८/३)
असौ वै महावीरो योऽसौ सूर्यः तपति (कौषीतकि ब्राह्मण, ८/३/७)
सूर्य को घेरे हुए ताप का क्षेत्र (सूर्य से १०० सूर्य व्यास या योजन तक) महावीर है।
सूर्य का परम पद ब्रह्माण्ड ४९ अहर्गण तक है जिसकी सीमा भी महावीर है। इस अर्थ में वे ४९ मरुत् रूप हैं।
हनु = ज्ञान-कर्म की सीमा। ब्रह्माण्ड की सीमा पर ४९वां मरुत् है। ब्रह्माण्ड केन्द्र से सीमा तक गति क्षेत्रों का वर्गीकरण मरुतों के रूप में है। अन्तिम मरुत् की सीमा हनुमान् है। इसी प्रकार सूर्य (विष्णु) के रथ या चक्र की सीमा हनुमान् है। ब्रह्माण्ड विष्णु के परम-पद के रूप में महाविष्णु है। दोनों हनुमान् द्वारा सीमा बद्ध हैं, अतः मनुष्य (कपि) रूप में भी हनुमान् के हृदय में प्रभु राम का वास है।
•६. मातरिश्वन्-वायु का एक रूप मातरिश्वा है, जो ब्रह्म का ही एक रूप है।
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्।
"एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः॥"
(ऋक्, १/१६४/४६, अथर्व, ९/१०/२८)
अप् में गति रूप वायु मातरिश्वा है, उसके द्वारा पदार्थों के मिश्रण से जो सृष्टि होती है, वह वायु पुत्र हनुमान् है।
अने॑ज॒देकं॒ मन॑सो॒ जवी॑यो॒ नैन॑द्देवा आ॑प्नुव॒न् पूर्व॒मर्श॑त्। तद्धाव॑तो॒ ऽन्यानत्ये॑ति॒ तिष्ठ॒त् तस्मि॑न्न॒पो मा॑त॒रिश्वा॑ दधाति॥४॥
(ईशावास्योपनिषद्, वाह. यजु, ४०/४)
यहां हनुमान् की मनोजव गति का भी उल्लेख है। ब्रह्म की यह गति हनुमान् है। मनोजवके २ अर्थ हैं-मन के समान तत्क्षण गति (अभिगमन-छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानः, चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः-गजेन्द्र मोक्ष)। अन्य अर्थ है मन की विचार क्षमता तेज होना जिसका वर्णन गायत्री के तृतीय पाद में है।
•७. गायत्री में हनुमान् स्वरूप-गायत्री मन्त्र के ३ पादों के अनुसार ३ रूप हैं-स्रष्टा रूप में-सूर्या चन्द्रमसौ धाता यथापूर्वं अकल्पयत् (ऋक्, १०/१९०/३)
= पहले जैसी सृष्टि करने वाला वृषाकपि है। मूल तत्त्व के समुद्र से से विन्दु रूपों (द्रप्सः -ब्रह्माण्ड, तारा, ग्रह, -सभी विन्दु हैं) में वर्षा करता है वह वृषा है। पहले जैसा करता है अतः कपि है।
तद् यत् कम्पायमानो रेतो वर्षति तस्माद् वृषाकपिः, तद् वृषाकपेः वृषाकपित्वम्। (गोपथ ब्राह्मण, उत्तर, ६/१२)
आदित्यो वै वृषाकपिः। ( गोपथ ब्राह्मण, उत्तर, ६/१०)
स्तोको वै द्रप्सः। (गोपथ ब्राह्मण, उत्तर, २/१२)
इस प्रकार सृष्टि कर्त्ता ब्रह्म ही वृषाकपि हनुमान है-
तत्र गत्त्वा जगन्नाथं वासुदेवं वृषाकपिम्।
पुरुषं पुरुष सूक्तेन उपतस्थे समाहिताः॥ (भागवत पुराण, १०/१/२०)
ततो विभुः प्रवर वराह रूपधृक् वृषाकपिः प्रसभमथैकदंष्ट्रया। (हरिवंश पुराण, ३/३४/४८)
अतः मनुष्य का अनुकरण करने वाले पशु को भी कपि कहते हैं। तेज का स्रोत विष्णु है, उसका अनुभव शिव है और तेज के स्तर में अन्तर के कारण गति मारुति = हनुमान् है। वर्गीकृत ज्ञान ब्रह्मा है या वेद आधारित है। चेतना विष्ुह है, गुरु शिव है। उसकी शिक्षा के कारण जो उन्नति होती है वह मनोजव हनुमान् है।
"अक्षण्वन्तः कर्णवन्तः सखायो मनोजवेष्व समा बभूवुः।
आदध्नास उपकक्षास उत्वेह्रदा इव स्नात्वा उत्वे ददृशे॥"
(ऋग्वेद,१०/७१/७)
"हृदा तष्टेषु मनसो जवेषु यद्ब्राह्मणाः संयजन्ते सखायः।
अत्राह त्वं विजहुर्वेद्याभि रोह ब्रह्माणो विचरन्तु त्वे॥"
(ऋग्वेद, १०/७१/८)
इसका क्रिया रूप योग सूत्र में है-
"ग्रहण स्वरूपास्मितान्वयार्थवत्व संयमादिन्द्रिय जयः।"
(योग सूत्र, ३/४७)
"ततो मनोजवित्वं विकरण भावः प्रधान जयश्च।"
(योग सूत्र, ३/४८)
= इन्द्रिय संयम, अर्थात् मन द्वारा ज्ञान और कर्म इन्द्रियों का समन्वय (हनुमान् रूप) से मनोजवित्व होता है।
•८. आध्यात्मिक अर्थ-यह तैत्तिरीय उपनिषद् में दिया है-दोनों हनु के बीच का भाग ज्ञान और कर्म की ५-५ इन्द्रियों का मिलन विन्दु है। जो इन १० इन्द्रियों का उभयात्मक मन द्वारा समन्वय करता है, वह हनुमान् है।
तैत्तिरीय उपनिषद् शीक्षा वल्ली, अनुवाक ३-अथाध्यात्मम्। अधरा हनुः पूर्वरूपं, उत्तरा हनुरुत्तर रूपम्। वाक् सन्धिः, जिह्वा सन्धानम्। इत्यध्यात्मम्।
मस्तिष्क के ऊपर सहस्रार से कुछ पीछे जहां चोटी रखते हैं, वह विन्दु चक्र है। वहां हनुमान का स्थान है जिससे अमृत स्राव होता है।
हृदयेऽष्टदले हंसात्मानं ध्यायेत्। अग्निषोमौ पक्षौ, ॐकारः शिरो विन्दुस्तु नेत्रं मुखो रुद्रो रुद्राणि चरणौ बाहूकालश्चाग्निश्च ... एषोऽसौ परमहंसो भानुकोटिप्रतीकाशः। (हंसोपनिषद्)
सुषुम्नायै कुण्डलिन्यै सुधायै चन्द्र मण्डलात्।
मनोन्मन्यै नमस्तुभ्यं महाशक्त्यै चिदात्मन्॥ (योगशिखोपनिषद्, ६/३)
ॐकार का आकार भी हनुमान् के मुख तथा मस्तिष्क रूप में है।
•९. सृष्टि सन्तति-मनुष्य का ७ पीढ़ी तक आनुवंशिक गुणों का सञ्चार भी मरुत् है। गुणों की गति में कुछ नष्ट होता है, पूरा नहीं जाता। अतः इसे ’क्षरन्ति शिशवः’ कहा है।
सप्त क्षरन्ति शिशवे मरुत्वते पित्रे पुत्रासो अप्यवीवतन्नृतम्। (ऋक्, १०/१३/५, अथर्व, ७/४७/२)
मारुतो वत्सतर्य्यः। (ताण्ड्य महाब्राह्मण, २१/१४/१२)
आकाश में भी अव्यक्त पुरुष से क्रमशः ७ लोक बनते हैं जिनका विस्तार ७ समुद्र हैं-
सुदेवो असि वरुण यस्य ते सप्तसिन्धवः। अनु क्षरन्ति काकुदं सूर्म्यं सुषिरामिव॥ (ऋक्, ८/६९/१२)
अस्मा आपो मातरं सप्त तस्थुः (ऋक्, ८/९६/१)
•१०. हनु सीमा-२ प्रकार की सीमाओं को हरि कहते हैं-पिण्ड या मूर्त्ति की सीमा ऋक् है, उसकी महिमा साम है-
ऋक्-सामे वै हरी (शतपथ ब्राह्मण, ४/४/३/६)।
पृथ्वी सतह पर हमारी सीमा क्षितिज है। उसमें २ प्रकार के हरि हैं-वास्तविक भूखण्ड जहां तक दृष्टि जाती है, ऋक् है। वह रेखा जहां राशिचक्र से मिलती है वह साम हरि है। इन दोनों का योजन शतपथ ब्राह्मण के काण्ड ४ अध्याय ४ के तीसरे ब्राह्मण में बताया है अतः इसको हारियोजन ग्रह कहते हैं। हारियोजन से होराइजन हुआ है।
अथ हारियोजनं गृह्णाति । छन्दांसि वै हारियोजनश्छ्न्दांस्येवैतत् सन्तर्पयति तस्माद्धारियोजनं गृह्णाति (शतपथ ब्राह्मण, ४/४/३/२)
एवा ते हारियोजना सुवृक्ति (ऋक्, १/६१/१६, अथर्व, २०/३५/१६)
हारियोजन या पूर्व क्षितिज रेखा पर जब सूर्य आता है, उसे बाल सूर्य कहते हैं। मध्याह्न का युवक और सायं का वृद्ध है। इसी प्रकार गायत्री के रूप हैं। जब सूर्य का उदय दीखता है, उस समय वास्तव में उसका कुछ भाग क्षितिज रेखा के नीचे रहता है और वायुमण्डल में प्रकाश के वलन के कारण दीखने लगता है। सूर्य सिद्धान्त (४/१) में सूर्य का व्यास ६५०० योजन कहा है, यह भ-योजन = २७ भू-योजन = प्रायः २१४ किमी. है। इसे सूर्य व्यास १३,९२,००० किमी. से तुलना कर देख सकते हैं। वलन के कारण जब पूरा सूर्य बिम्ब उदित दीखता है तो इसका २००० योजन भाग (प्रायः ४,२८,००० किमी.) हारियोजन द्वारा ग्रस्त रहता है (सूर्य सिद्धान्त, ४/२६)। इसी को कहा है-बाल समय रवि भक्षि लियो ...)। इसके कारण ३ लोकों पृथ्वी का क्षितिज, सौरमण्डल की सीमा तथा ब्रह्माण्ड की सीमा पर अन्धकार रहता है। यहां युग सहस्र का अर्थ युग्म-सहस्र = २००० योजन है जिसकी इकाई २१४ कि.मी. है।
•११. मनुष्य रूप-पराशर संहिता के अनुसार उनके मनुष्य रूप में ९ अवतार हुये थे। एक जन्म में सूर्य शिष्य रूप में सूर्य सिद्धान्त पढ़ा था। बाइबिल के इथियोपीय प्राचीन संस्करण में उनको इनौक कहा गया है जिनकी अलग पुस्तक ज्योतिष विषय में है। उसके अध्यायों ७८-८२ में प्राचीन कैलेण्डर दिया है जो स्वायम्भुव मनु के समय था। उत्तरायण-दक्षिणायन के २-२ भाग कर वर्ष के ४ भाग होते थे। विषुव के उत्तर या दक्षिण ३ वीथियां १२, २०, २४ अंश के अन्तर पर थीं जिनमें सूर्य १-१ मास रहता था। पण्डित मधुसूदन ओझा ने (आवरणवाद, १२३-१३२) पुस्तक में इनमें दिन मान के अन्तर के आधार पर गायत्री (२४ अक्षर) से जगती (४८ अक्षर) तक के ७ छन्द रूप में वर्णन किया है। इसकी चर्चा ऋग्वेद (१/१६४/१-३, १२, १३, १/११५/३, ७/५३/२, १०/१३०/४), अथर्व वेद (८/५/१९-२०), वायु पुराण, अध्याय २, ब्रह्माण्ड पुराण अ. (१/२२), विष्णु पुराण (अ. २/८-१०) आदि में है। हनुमान् को कुरान में हनूक कहा गया है।
हनुमान के नाम से एक शकुन ग्रन्थ प्रसिद्ध है, जिसे हनुमत् ज्योतिष कहते हैं।