Lord Shri Ram: उत्तर भारत की कला व संस्कृति में राम

Lord Shri Ram: मैं गोस्वामी जी की पंक्ति का स्मरण कर रहा हूँ मन में और इस सारस्वत सुषमा को देखकर जो यहाँ उपस्थित है।

Newstrack :  Network
Update:2024-01-15 21:03 IST

उत्तर भारत की कला व संस्कृति में राम: Photo- Social Media

Lord Shri Ram: मैं गोस्वामी जी की पंक्ति का स्मरण कर रहा हूँ मन में और इस सारस्वत सुषमा को देखकर जो यहाँ उपस्थित है, उस बात पर भरोसा दृढ़ हो रहा है; जो बचपन से पढ़ी है श्री रामचरितमानस का पाठ करते हुए कि- 'सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा।' प्रयाग में सरस्वती लुप्त हैं यह जो आशंका है; गोस्वामी जी ने इस बात का समाधान किया और कहा यहाँ जो ब्रह्म-विचार उपस्थित है वही यहाँ की सरस्वती है, जो कभी लुप्त नहीं हो सकती। वह ब्रह्म विचार क्या है तो कहा कि 'राम ब्रह्म परमारथ रूपा।' श्रीराम को केन्द्र में रखकर जो परिचर्चा-संवाद-संगोष्ठी यहाँ हो रही है, वह प्रमाणित करती है कि यह तीर्थराज प्रयाग प्रणम्य हैं, जहाँ सरस्वती इस प्रकार नृत्य करती हैं।

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श्रीराम की शरण में होने के कारण, श्रीराम का दास होने के कारण, अयोध्यावासी होने के कारण और दुर्घटनात्मक रूप से नहीं अपितु संकल्प लेकर शरणागत परम्परा में होने के कारण मैं कुछ बात कहूँगा। पहली बात तो यह कि श्रीराम पर अनुसंधान की जो कठिनाई है वह दूर हो जाती है, जब एक रागात्मक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। क्योंकि अभी प्रो. त्रिपाठी जी ने जो महत्त्वपूर्ण बात कही यहाँ पर कि 'जो वाच्य अर्थ है और जो प्रतीति में आनेवाला अर्थ है' उसमें और वाच्य अर्थ में इस बात की चुनौती होती है कि जो वक्ता के द्वारा कहा जा रहा है: श्रोता द्वारा उसे उसी अर्थ में ग्रहण किया जा रहा है या नहीं। इसको लेकर जो भी वाचिक परम्परा है हमारे यहाँ, शास्त्र के स्वाध्याय की परम्परा है, वाङ्मय की परम्परा है उसमें यह चुनौती विद्यमान रही है। इस पर विचार हुए हैं संप्रेषण को लेकर, कहने-सुनने की प्रणाली को लेकर बहुत सारा शास्त्र उपस्थित हुआ है। किन्तु जो प्रतीति है, वह राग से बनती है जिसकी चर्चा अभी राजेश जी ने की है और वह रागात्मक सम्बन्ध श्रीराम को हमारे भीतर उतार देता है, जिससे बहुत सारी कठिनाइयाँ अनुसन्धान के स्तर पर जो होती हैं, वह श्रीराम से सम्बन्ध होने के कारण सहज हो जाती हैं। यही कारण है कि हमारे मुख्य वक्ता ने जैसा कहा था मैंने कुछ बातें उनकी नोट की थीं, मैं चाहता हूँ उनके आधार पर बातें आगे ले जाऊँ । उनमें एक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि सुनकर लिखना ठीक नहीं है, समझ कर लिखना है। जब देवर्षि नारद ने महर्षि वाल्मीकि को रामकथा का उपदेश दिया तब भी और जब उन्होंने महर्षि वेदव्यास को भागवत का उपदेश दिया तब भी, उन दोनों ही मनीषियों ने सुनकर लिखना आरम्भ नहीं किया। सुनने के बाद फिर से स्वाध्याय मैं निरत रहे दीर्घकाल तक और उस सुने हुए को अपने भीतर पचाने की चेष्टा की। तो जो वाचिक परम्परा से प्राप्त अर्थ था जब तक उनकी प्रतीत में वह अवतरित नहीं हुआ तब तक उन्होंने लिखना आरम्भ नहीं किया।

श्रीराम भारतवर्ष के लिए प्रतीति हैं, तो पीढ़ियों के प्रवाह में उनको ले जाने के लिए जो संसाधन हैं हमारे पास, उनमें शब्द एक बड़ा आधार है। यद्यपि श्रीमद्भागवत में इस बात की चिन्ता प्रकट की गई है प्रश्न रूप में कि, जो शब्दातीत है उसका निर्वचन करने के लिए शब्दों को आधार बनाया जाएगा तो उसकी प्रामाणिकता कितनी रह जाएगी। आप ब्रह्मतत्त्व की बात कर रहे जो शब्दातीत है तो शब्दमयी श्रुतियाँ कैसे उसका निर्वचन करेंगी; तब वहाँ उसका समाधान भी दिया गया है, मैं उस दिशा में नहीं जाऊँगा। श्रीराम की जो उपस्थिति है हमारे जीवन में वह वस्तुतः प्रातीतिक है, इसलिए जिसने रामायण नहीं पढ़ी है या रामायण न पढ़ने के लिए प्रतिबद्ध है, कहीं ना कहीं वह भी अपने आप को राम से जुड़ा हुआ पाता है।

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इसलिए नहीं कि उसे कोई परम्परा प्राप्त हुई है कहने-सुनने की, बल्कि इसलिए कि वह एक ऐसी व्यवस्था में रह रहा है जिसको सींचा गया है राम से। इसलिए हम चाहते हैं या नहीं चाहते हैं यह महत्वपूर्ण नहीं है। यह ठीक वैसे ही है जैसे हम लोग अन्न के दोष की चर्चा करते हैं। इस समय इस बात की बहुत चर्चा हो रही है कि हम जो आहार ले रहे हैं वह दूषित है और हमारी जैविक संरचना को विकृत कर रहा है, क्योंकि उसमें बहुत सारे रसायनों का प्रयोग किया गया है। कौन चाहता है कि हम रसायन का सेवन करें और वह भी ऐसे रसायन का, जो हमारे लिए हितैषी नहीं है, किन्तु हम अपने फसल की उपज के लिए उन रसायनों का व्यवहार करते हैं और उनसे उपजाया हुआ अनाज स्वाभाविक रूप से उन रसायनों के प्रभाव को हमारे अन्दर ले आता है। ठीक वैसे ही भारत सींचा गया है श्रीराम से, इसलिए हम चाहते हैं तो भी और नहीं चाहते हैं तो भी थोड़े-थोड़े राम हम सब में विद्यमान हैं। संस्कृति और कला की जो बात है, मैं दो आयामों में इस बात को कहूँ.. महर्षि शुक्राचार्य ने ये वर्गीकरण किया है कि कला और विद्या का जो भेद है उसमें जिसकी अभिव्यक्ति वाचिक है वो विद्या है, उसके भेद किये हैं और जिसकी अभिव्यक्ति में वाणी अनिवार्य नहीं है, आंगिक चेष्टाओं के द्वारा-किन्ही अन्य प्रयत्नों के द्वारा जिसे अभिव्यक्त किया जाये वह कला है और उनकी संख्यायें भी बँटी हैं, आप सब सुपरिचित हैं उससे। संस्कृति एक दूसरा तत्त्व है; क्या है संस्कृति ! राम हमारी संस्कृति में विद्यमान हैं और जैसा कि पत्रक आपने बनाया है, उसमें एक श्रीराम संस्कृति ऐसी बात आती है, एक अवधारणा आती है। हम इसे किस रूप में देखेंगे ? दो शब्द समाज में बहुत व्यवहृत होते हैं, एक सभ्यता है, दूसरा संस्कृति है। सभ्यता वह है जो हमको बाह्य रूप से पारस्परिक सामञ्जस्य में स्थिर करती है। हम भीतर से चाहे जैसे हों पर लोगों के बीच होने पर हम एक तरह का सामञ्जस्य निर्मित करें यही सभ्यता है। अधिक सरलता से कह लें तो, हम सभा के योग्य बन जायें यही सभ्यता है। उठना-बैठना बोलना.।एक व्यक्ति का निर्माण इस तरह हो जाय जो दूसरों को उद्विग्न न करता हो। पर संस्कृति इससे भिन्न है और गहरी है। हम सो जायँ तो हमें याद नहीं रहेगा कि हम सभ्य हैं कि नहीं हैं। हमें स्वप्न आये तो हमारा नियन्त्रण नहीं है कि जो स्वप्न आयेगा वह सभ्यता की सीमा में है या नहीं। किन्तु संस्कृति हमारे स्वप्न में भी विद्यमान रहती है, हमारी नींद में भी विद्यमान रहती है और हमारी अचेतनता में भी विद्यमान रहती है। हमारी कॉन्शसनेस के बिलकुल छूट जाने पर भी जो व्यवहार हम अनवधानपूर्वक करते हैं, उसमें भी जो चीज हमारे भीतर सिञ्चित है और हम उससे अपने को पृथक् नहीं कर पाते हैं वो संस्कृति है, जिसकी अभी चर्चा आप कर रहे थे। पीढ़ियाँ इस देश की अभिवादन करने के लिये राम-राम कहती हैं, यह सभ्यता का हिस्सा नहीं है। बहुत बार, बहुत से लोग राम-राम कहते हुए किसी परात्पर परब्रह्म, किसी दशरथनन्दन की अनुभूति नहीं करते। पर संस्कृति है, और पूरब की छोड़ दें पश्चिम की ज्यादा है और ये संस्कृति इतनी प्रबल है कि जब सूरदास, तुलसीदास रामचरित लिखते हैं तब तो वे राम का चरित लिखते ही हैं, जब कृष्णचरित लिखते हैं और यशोदा बालकृष्ण को सुलाने के लिए लोरी सुनाती हैं तो लोरी में कौन सी कथा, कौन सा गीत सुनाती हैं तो वे रामचरित सुना रही हैं। अभी शताब्दियों में जो रामचरित और उसकी संस्कृति की चर्चा हो रही थी, राजेश जी जिक्र कर रहे थे, मैं उसमें एक बात पर आपका ध्यान ले जाना चाहता हूँ। द्वारिका में भगवान कृष्ण के विराजमान रहते समय वहाँ कला और लोकरंजन का जो सबसे बड़ा आयाम उस समय उपस्थित था, वो नाटक था और उस नाट्य का जो सबसे बड़ा उपजीव्य था, वह रामलीला थी। हरिवंश आदि पुराणों में इसका संकेत उपस्थित है। इसी तरह कला की दूसरी दिशाओं में जायेंगे, दूसरे आयामों में जायेंगे तो आप को दिखाई पड़ेगा। भागवत सुनाने बैठे हैं शुकदेव जी। राजा परीक्षित को सारा चरित सुनाते हैं, सारे अवतारों का चरित सुनाते हैं और क्या महत्त्वपूर्ण बात है कि जब रामचरित सुनाने की बात आती है तो शुकदेव कहते हैं कि राजन्! अब मैं आपको वो चरित्र सुनाने जा रहा हूँ जो आपने बहुत बार सुना है। कृष्णचरित्र आपने बहुत बार सुना है नहीं कहा, वराह-चरित्र आपने बहुत बार सुना है नहीं कहा, वामन-चरित्र आपने बहुत बार सुना है नहीं कहा, मैं आपको श्रीराम का चरित्र सुनाने जा रहा हूँ, जो आपने बहुत बार सुना है ऐसा कहा। इसकी क्या विशेषता है तो कहा कि 'श्रुतं हि त्वया भूरि' आपने बारम्बार इसको सुना है क्योंकि राम जी का चरित्र तत्त्वदर्शी ऋषियों ने बारम्बार गाया है और तुम्हारे कुल में यह परम्परा रही है कि तुम्हारे पूर्वज रामचरित सुनते आये हैं। ये वहाँ से चली आ रही परम्परा है। अभी अभिलेखों में जिस राम शब्द की चर्चा की गई, मैं उस विषय का विद्यार्थी नहीं हूँ, अतः उस विषय में कुछ नहीं कह सकता। पर जो बलराम को राम शब्द मिला है उसके पहले से तो राम शब्द विद्यमान ही है। जब हमारे यहाँ दशावतार की चर्चा होती है तो कहते हैं 'त्रिरामः सकृपोऽपः'। दयालुता और उग्रता के भेद से हमारे यहाँ तीन राम उपस्थित हैं। जो दशरथनन्दन राम हैं हमारे सामने और सबसे पहले वाल्मीकि रामायण के माध्यम से जिनका चरित्र सबसे प्रामाणिक रूप से हमारे सामने आता है, मैं संस्कृत की उस परम्परा की ओर लौटते हुए इस बात पर आपका ध्यान ले जाना चाहता हूँ कि महर्षि वाल्मीकि की चिन्ता काव्य का सृजन करना नहीं है। वस्तुतः पुराणों में-आर्ष ग्रन्थों में जो माहात्म्य उनके साथ संलग्न होते हैं वे ठीक तौर पर उनकी प्रस्तावना होते हैं। किन परिस्थितियों में, किन आकांक्षाओं से यह ग्रन्थ लिखा गया है, ये माहात्म्य से अभिव्यक्त होता है। श्रीमद्वाल्मीकिरामायण के महत्त्व को देखते हैं तो जो प्रश्न उपस्थित है-संस्कृति क्या करती है, वो स्पष्ट होता है। संस्कृति, मानवजाति को दीर्घकाल तक सुयोग्य बनाये रखने का प्रबन्धन है। एक ऐसा प्रबन्धन जो शिक्षा के अभाव में भी नष्ट न हो जाये। अब उसकी विशेषता क्या है, शिक्षा को तो किसी बालक को किसी एक जीवन में कुछ भी दी जा सकती है। हिन्दी क्षेत्र में जन्ये किसी बालक को, जिसके पूर्वज भोजपुरी-अवधी या बुन्देली बोलते होंगे, उस बालक को फ्रेंच जर्मन कुछ भी पढ़ा दीजिए, बढ़िया पढ़ लेगा लेकिन संस्कृति के साथ ऐसा नहीं हो सकता है। संस्कृति को तो वो प्राप्त करेगा जो उसकी माँ ने भी पाया होगा, उसके पिता ने भी पाया, होगा उसके पितामह ने भी पाया होगा, क्योंकि वो कई पीढ़ियों से रचता हुआ उसकी आनुवंशिकी में ढलकर उस तक आया होगा। यह जो संस्कृति है ये कैसे निर्मित होती है, तो महर्षि वाल्मीकि रामायण को प्रकट करने के लिए जिस चिन्ता का सामना करते हैं और जिसको गोस्वामी तुलसीदास लक्ष्य करके उनको वैज्ञानिक कहते हैं-महर्षि वाल्मीकि वैज्ञानिक हैं। उनकी वैज्ञानिकता क्या है, यहाँ थोड़ा लोभ मेरा बढ़ गया है मुख्य अतिथि महोदय के वक्तव्य से, तो थोड़ा महर्षि वाल्मीकि की चर्चा करता हुआ मैं कला-संस्कृति पर आता हूँ। प्रश्न वहाँ उठता है मनःशुद्धिविहीनानां निष्कृतिश्च कथं भवेत्। जिनका मन बिगड़ गया है उनका कैसे कल्याण होगा। क्योंकि सम्पूर्ण भारतीय चिन्तन सारी भारतीय मनीषा स्पष्ट रूप से मानती है कि हमारे जीवन में सर्वाधिक निर्णय जो कुछ भी है, वो मन के अधीन है। मन का ही शोधन होना आवश्यक है और वह इतना महत्त्वपूर्ण है कि हम शिवसंकल्प सूक्त पढ़ते हैं-तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु। ये मन शिवसंकल्प वाला रहे सदैव ऐसा नहीं हो सकता है, ये विकृत होता ही जाता है। मन के बिगड़ने की बात क्यों है, ये गीता जी में भी कही गयी है, अनेक ग्रन्थों में है। मुझे भी प्रायः लोग पूछते हैं कि बार-बार यह मन बिगड़ता क्यों है तो मैं थोड़ा सरल उत्तर उसका देता हूँ। मैं कहता हूँ कि देखिए, द्रव्य है मन और द्रव्य का स्वभाव है एक अवस्था में ठीक रहता है और दूसरी अवस्था में बिगड़ जाता है। जैसे-दूध फट जाता है, फल सड़ जाता है। दूध-सब्जी बचाने के लिए तो फ्रीज है। महर्षि वाल्मीकि ने विचार किया मन को किसी ऐसे परिवेश में डाल दिया जाए कि बदलता हुआ तापमान अनुकूलता या प्रतिकूलता का, इसको विकृत न कर पाए। किन्तु इसका क्या उपाय है। मन को रोक करके रखा नहीं जा सकता क्योंकि उसकी गति प्रबल है और चारों ओर विषयों में जाता है। यदि इसे निरुद्ध करने की बात की जाय तो वह योग की स्थिति होगी जो सबके लिए व्यवहार्य नहीं है। तो जैसे काठ के टुकड़े को पानी में डाल दिया जाए तो वह पानी को सोखता है किन्तु उस टुकड़े को पहले तेल में डुबा दें फिर पानी में डालें तो.. वह जल नहीं सोखता। महर्षि वाल्मीकि ने चिन्तन किया कि समस्त मन को एक ऐसे रसायन में, जो चरित्र से, जो मानवीय गुणों से, मानवीय दिव्यताओं से बना है, उसमें सिझा दें, तो किसी भी परिस्थिति में पड़े मनुष्य का जीवन विकृत नहीं होगा। हम मन पर एक ऐसे चरित्र का लेप लगा दें, उसे चरित के ऐसे रसायन में सिझा दें कि उसके विकृत होने की सम्भावना समाप्त हो जाये। तब महर्षि वाल्मीकि के भीतर यह प्रश्न उठता है कि ऐसा चरित्र कौन है। यूँ तो, भारत महानताओं का देश है, हमारा अतीत दिव्य है, किन्तु दुर्भाग्य है कि हम दिव्यताओं को अतीत में मानने के अभ्यासी हो गए हैं। कोई दिव्यता हमारे आसपास की विभूतियों की तरह उपस्थित हो तो हम उसे मर जाने तक स्वीकार ही नहीं करते। यह कुण्ठा इतनी प्रबल हो गई है कि हम जीवन्त की प्रतिमा बनाने तक का निषेध करते हैं कि नहीं-नहीं यह तो अमांगलिक है, यह मर जाएगा तो बना लेंगे। मैं प्रतिमायें बनाने के पक्ष में यह बात नहीं कह रहा, मैं यह कहना चाहता हूँ कि जो लोग चले गए मात्र वही दिव्य लोग नहीं थे। दिव्य वे लोग भी थे जिन्होंने अपने समय की दिव्यताओं को स्वीकार कर लिया था। राम की महानता जो है; वो है, महानता उन लोगों की भी है जिन्होंने अपने समय में चलते-फिरते, रोते-हँसते, घर से निकाले जाते राम को भी परात्पर स्वीकार कर लिया। केवट इसलिये महान हैं कि वो राम की उस महायात्रा को स्वीकार कर अपनी एक दिन की मजदूरी दान दे देता है। जटायु इसलिये महान हैं कि वो राम की प्रिया का हरण होने पर, यह जानते हुए भी कि मैं लड़कर जीत नहीं सकता हूँ, मैं मारा जाऊँगा।

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उन्होंने स्वीकार किया है कि मैं जीतूंगा नहीं। उन्होंने रावण से कहा है कि तुम युवा और धनुर्धर योद्धा हो जबकि मैं बूढ़ा हूँ, फिर भी मैं यथाप्राण युद्ध करूंगा। यह उनके भीतर विद्यमान चरित्र है। तब महर्षि वाल्मीकि के मन में यह प्रश्न उठता है कि तुम क्यों अतीत को देखकर महान बनते हो, तुम वर्तमान को महान क्यों नहीं बनाते हो। परिणामस्वरूप उन्होंने अपने देश व काल को रेखांकित किया उन्होंने इसी लोक की बात में चरित्र का अनुसन्धान किया। कहा- इस लोक की बात होनी चाहिए, वैकुण्ठ-गोलोक की बात मत बताना, किसी देवता के लोक की बात मत बताना। जिस में हम रहते हैं इसी लोक में हो और इसी समय में हो, उसका परिणाम यह हुआ कि श्रीराम की कथा के व्याज से सूर्यवंश में वह दिव्यता आयी, जिसको आज हम देखते हैं, जानते हैं व सराहते हैं। मुझे नहीं ध्यान है कि सूर्यवंशी राजाओं को केन्द्र में रखकर स्वतन्त्र रूप से कितने काव्य लिखे गए। राम के आलोक में ही आज दशरथ- इक्ष्वाकु सभी प्रकाशित हैं। हालाँकि, यत्र-तत्र इनकी चर्चा आई है। पर स्वतन्त्र रूप में सम्पूर्ण सूर्यवंश की जो चर्चा है वो तो श्रीराम के प्रकाश से ही प्रकाशित है। संस्कृति के रूप में राम वहाँ विद्यमान हैं, जहाँ एक ऋषि के मन में यह चिन्ता उत्पन्न होती है कि सहज पतनशील मानव मन को कैसे स्थिर किया जाए और तब, वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यदि हम रामचरित को सबके मन में स्थापित कर दें जिस का चित्त, जिसका चरित्र के श्रीराम के अनुस्मरण से आप्लावित है, सीझा हुआ है वह कभी पतित नहीं होगा। सांस्कृतिक संरक्षण का सबसे बड़ा मूल्य राम के जीवन से यहाँ प्रकट होता है और ये यहाँ समाप्त नहीं होता। कोई भी वैज्ञानिक प्रयोग जो आते हैं, उनके नवीन संस्करण आते रहते हैं। हम आदिकाव्य के रूप में महर्षि वाल्मीकि के काव्य को जानते हैं वहाँ से जो प्रश्न उठता है, जब आप श्रीमद्भागवत तक चले आयेंगे जिसको इस परम्परा का अन्तिम व सर्वश्रेष्ठ वाङ्मय हम मानते हैं, तो उसमें आ करके कहते हैं-एतस्मादपरं किञ्चिन्मनःशुद्धयै न विद्यते। इससे बढ़कर मन की शुद्धि के लिये कुछ भी नहीं है। एक पंक्ति है, वाल्मीकि रामायण की भूमिका में और दूसरी पंक्ति आती है; भागवत महापुराण की भूमिका में। मनःशुद्धि का यह अनुष्ठान हजारों वर्षों तक अविच्छिन्न चल रहा है। और फिर, यह बात सामने आती है कि जो उत्तम श्लोक हैं, उनका चरित्र लोकचित्त में स्थापित कर दिया जाये। श्रीमद्भागवत तो श्रीकृष्ण का प्रतिपादन करने के लिए है- 'कृष्णप्राप्तिकरं' किन्तु उस भागवत में भी महर्षि व्यास इस यथार्थ को झुठलाते नहीं और वो कहते हैं कि ये लीला नहीं है। ये मात्र राक्षसों को मारने का उपक्रम नहीं है। सीता का त्याग व लक्ष्मण का त्याग इत्यादि जो बातें हैं वे श्रीरामचरित्र में दिखाई नहीं पड़ सकती थीं, यदि उन्हें यह नहीं बताना होता कि देखो मानव-जीवन कैसा होता है। तो, जो रामचरित्र है वह हमारी संस्कृति के मूल में उसके मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित है। कलायें व कलाओं में वर्णित कथायें वाचिक परम्परा की बात अभी हमने कही। कथा... एक कथा है, एक रामचरित्र है। सामान्यतया हम एक दूसरे को एकशः लेते हैं, पर समझने चलेंगे अगर तो ये दोनों बड़े गम्भीर व अलग-अलग दिखने वाले आयाम हैं। चरित्र कथा में ढलता है और फिर कथायें चरित्र को ढालती हैं और यह निरन्तर काल के अनन्त प्रवाह में चलता जाता है। श्रीराम की कथा यह लोक सुन रहा है और श्रीराम भी कथायें सुनते हैं। एक चरित्र निर्मित होता है इससे, जो इस लोक को प्रकाश देता है और यह प्रकाश बना रहे पीढ़ियों के लिए, इसीलिए लोक इस चरित्र को कथाओं में बुनता है और फिर वही कथायें आने वाले युग की पूरी-पूरी पीढ़ियों को चरित्र में निर्मित करती चली जाती हैं। इससे हमारे समाज में एक अवधारणा विकसित होती है। किसी सफल व श्रेष्ठ व्यक्ति के बारे में हम पढ़ते हैं और पूछते हैं कि आपका आदर्श कौन है। किसी सफल व्यक्ति से अक्सर इण्टरव्यू में यह पूछा जाता है कि आप आपका आदर्श कौन है। आदर्श का तात्पर्य क्या है ? ये किन्हीं मूल्यों के व्यवस्था व प्रबन्धन की बात नहीं है। आदर्श का स्पष्ट अर्थ होता है दर्पण... जिसमें देखकर हम अपने आप को पहचान पाते हैं। जिसमें देखकर हम स्वयं को जैसा चाहते हैं वैसा निर्मित करते हैं, वह आदर्श है और श्रीराम इस देश के लिए वह आदर्श बन कर खड़े होते हैं जिसको देखकर के भारतीय मनुष्य या विथ मानव अपने को मनुष्य बना सकता है। श्रीराम और कुछ नहीं बनाते ... हिन्दू भी नहीं बनते ब्राह्मण भी नहीं, वैदिक भी नहीं, केवल मनुष्य बनाते हैं। उस मनुष्यता की विशेषता क्या है कि अयोध्या में पैदा हुए, पहली बार किष्किन्धा पहुँचे श्रीराम को बाली कहता है-मैं तो यह जानता था कि-निवासवृक्षः साधूनां आपन्नानां परागतिः। आप तो सज्जनों का ठिकाना हैं, आपत्ति में पड़े हुने लोगों के परम आश्रय हैं।' बाली कहाँ मिला है श्रीराम से, कोई पूर्वपरिचय नहीं है, सामने नहीं आया है वह। भाई की शिकायत पर जिन्होंने छिपकर सीधे बाण चला दिया है। सामने आकर एक बार बातचीत भी नहीं किया उन श्रीराम को बाली कहता है, मैं तो सुनता था कि तुम उत्तम कुल में उत्पन्न, सदाचार से सम्पन्न हो। कहाँ से सुन लिया उसने, तो जो मनुष्यता की प्रतिष्ठा है श्रीराम के जीवन में वह कितनी दूर तक पहुँचती है। वन में चलते हुए जो की गई प्रतिज्ञा है, वह वानर है ना बाली, तो वन में होने वाली घटनाओं की ध्वनि उस तक पहुँचती है। जब सीता को समझाते हुए श्रीराम कहते हैं कि मैंने आभूषण के लिए धनुष धारण नहीं किया है, मैंने तो इसलिए किया है कि किसी को हाय-हाय पुकारने की स्थिति न आये। कोई पुकारे नहीं करुण पुकार में पीड़ित होकर, इसलिए मैंने धनुष धारण किया है। तो इस बात को लक्ष्य करके बाली वहाँ कहता है कि यदि तुमने इसलिए धनुष धारण कर रखा है तो मेरे ऊपर बाण क्यों चलाया और फिर श्रीराम के उत्तरों से संतुष्ट होता है। पीढ़ियाँ इस प्रसङ्ग को अपने भीतर संरक्षित रखना चाहती हैं तो उनके पास अभिव्यक्ति के जितने माध्यम हैं उनमें संरक्षित करती हैं। उनमें बड़ा माध्यम हमारे पाषाण लेख हैं, लिपियाँ हैं, चित्र हैं, प्रतिमायें हैं। वे दीर्घजीवी हैं फिर भी सदैव नहीं रहने वाली हैं। पर जो परम्परा है, वह तो अमरता के क्रम में ही विद्यमान है, जिसको अभी कहा गया है कि हमारे भीतर जो कण्ठ में विद्यमान वेद है... हमारी चेतना में विद्यमान जो राम हैं.. हमारा सारा वाङ्मय यदि नष्ट हो जाय तो भी वह पीढ़ियों तक प्रवहमान रहेगा और इसका प्रमाण यह है कि भारतवर्ष के किसी कोने में किसी मजदूर के भी घर में अगर पुत्र जन्म हो या किसी राजा के घर में पुत्र जन्म ले तो पिता दशरथ हो जाता है; माँ कौशल्या हो जाती है और जन्म लेने वाला बेटा राम हो जाता है।

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यह किसी ने बताया नहीं है, यदि आप पता करें तो जो लोकगीत हमारे हैं, उनकी कोई प्रतनिधि पुस्तक गाँव में नहीं मिलेगी। यद्यपि लोकगीतों के संग्रह कर लिए गए हैं, बहुत पुस्तकें प्रकाशित भी हो चुकी हैं। परन्तु आज भी सुदूर गाँव में जो विवाह गीत गाए जाते हैं उनमें सब की बेटी सीता हो जाती है, सब का बेटा राम हो जाता है और जब विवाह होता है तो वे भावतः जनकपुर पहुँच जाते हैं। यह संस्कृति है और यह इतनी प्रगाढ़ है कि न दूल्हा जानना चाहता है कि राम से मेरा कितना मेल है, न दुल्हन जानती है कि सीता से उसकी क्या समानता है। दोनों अपने ऊपर आरोपित इस सांस्कृतिक रूपक को स्वीकार कर लेते हैं। क्योंकि उनकी पीढ़ियों द्वारा राम को उनकी साँसो में उसको सींचा गया है, यह उनको पिलाया नहीं गया है जिसको वह वमन कर सकें। इसी प्रकार अयोध्या से जो पहली यात्रा श्रीराम आरम्भ करते हैं, अगर उनके पीछे-पीछे हम चलें और मिथिला की ओर जायें तो रास्ते में पड़ने वाले विश्वामित्र का आश्रम, अहिल्या उद्धार-स्थान, धनुष यज्ञ का स्थान या जहाँ श्रीराम का विवाह हुआ वह मण्डप हो, वह सांस्कृतिक रूप में इस देश के लाखों लाख लोगों में इस तरह व्याप्त हो गई है। एक सरोवर है जहाँ आप जाएँगे तो आपको पता चलेगा कि यहाँ श्रीराम ने दातून किया था। दरअसल, पुरातत्त्व की भी अपनी एक सीमा है, लाखों वर्षों के इतिहास में वह कितना क्षरित होता है, यह धरती आसमान सब गतिशील है लेकिन हमारी चेतना में प्रवाहित, हमारी प्रतीति में जो राम रचा-बसा है, आज तक उन स्थानों को जीवित रखे है। नेपाल जाते हैं तो हम जनकपुर धाम का दर्शन करते हैं और धनुषा धाम जाते हैं। आपके अनुसन्धान का विषय है, मैं इस पर आधिकारिक रूप से कुछ नहीं कह सकता पर जब जाता हूँ तो वहाँ के लोग बहुत रोमांचित हो कर दिखाते हैं कि महाराज जी देखिए यह पत्थर और भी बढ़ रहा है।

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उस पर कुछ रिसर्च भी हुए है, उसका एक टुकड़ा यहाँ आकर गिरा था और यही धनुषा धाम नेपाल के प्रमुख तीर्थ में एक है। आपने उसको अपनी एक सूची में शामिल किया है। वहीं का व्यक्ति यह जानने की कोशिश नहीं करता कि यह कैसे सम्भव है, भौतिक रूप से ये कैसे सम्भव हुआ होगा। इतिहास, भूगोल में कैसे प्रमाणित होगा ये उसके लिए चिन्ता का विषय नहीं है क्योंकि श्रीराम उसके भीतर ऐसे रखें बसे हैं कि उन्हें प्रमाणित करने का सवाल ही नहीं उठता। प्रामाणिकता का सवाल तो इसलिये उठता है कि जिन्हें व्याख्या करनी है, उनका दायित्व है कि वह अगली पीढ़ी को उसका सम्प्रेषण ठीक ढंग से करें, अपने प्रश्नकर्ताओं को ठीक ढंग से समझा सकें। प्रयाग में बैठे ऋषि भारद्वाज इसलिए नहीं पूछते कि वो रामचरित जानते नहीं हैं, गोस्वामीजी ने संकेत दिया कि वे जो रामतत्त्व पूछ रहे हैं; वो केवल रामकथा नहीं बल्कि श्रीरामतत्त्व की गूढ़ता पूछ रहे हैं। वह गूढ़ता क्या है राम को लेकर, कि जो परात्पर है उसका यह लौकिक व्यापार क्यों है, क्यों उसकी प्रामाणिकता का संघर्ष है। फिर यदि लौकिक व्यापार से ही उसकी प्रामाणिकता व ऐतिहासिक सिद्ध होती है, तो उसकी परात्परता प्रतिपादित करने की क्या आवश्यकता है। मैं जब रामचरितमानस देखता हूँ तो उसका एक सन्दर्भ विशेष महत्त्व का दिखाई पड़ता है। महाराज मनु की कथा आती है कि वृद्धावस्था प्राप्त होने तक उन्होंने राज्य का सम्पादन किया, व्यवस्थायें पूरी कीं, सारे कार्य किए और फिर एक दिन उन्हें बहुत दुःख हुआ। उन्हें ग्लानि हुई और अपने जीवन पर पछतावा हुआ, मैं सोचता हूँ कि इसमें दुखी होने की क्या बात है। जिसने अपने सम्पूर्ण जीवन को ईश्वर की आज्ञा मानकर जिया हो, उसके लिए पछतावे का क्या प्रश्न है। तो, जब मनु का प्राकट्य हुआ उस समय लोकपितामह ब्रह्मा ने उनको मैथुनी सृष्टि के द्वारा जगत् का विस्तार करने के लिए कहा और उसको धर्ममार्ग में प्रवृत्त करने का आदेश दिया। जिससे मनुष्य प्रवृत्ति से होता हुआ निवृत्ति तक सहजता से जा सके। महाराज मनु ने अनुभव किया कि मैं दूसरों को क्या सिखाऊँगा, जबकि मेरे ही बेटे के यहाँ जो उपद्रव हुआ है। उसकी दो पत्नियों के कलह में उसका पाँच साल का बेटा घर छोड़कर जंगल की ओर चला गया है। महाराज मनु सोचने लगे कि संविधान लिखकर मनुष्य को मनुष्य नहीं बनाया जा सकता। कोई संविधान कभी भी समाज को सभ्य नहीं बना सकता, वह दण्डित करने का विधान दे सकता है पर समाज बनेगा कैसे ? जब तक व्यक्ति में स्वतः एक प्रेरणा जागृत नहीं होगी ठीक होने की, तब तक उसे ठीक नहीं किया जा सकता है। वह प्रेरणा कौन जागृत करेगा ये सोचते हुये महाराज मनु निराश हुये कि, मैं इस दुनिया को एक संहिता लिखकर, मानव धर्मशास्त्र लिखकर मनुष्य बनाने की चेष्टा कर रहा हूँ और मेरा ही पौत्र पिता की गोद से विमाता के द्वारा उतार दिया जा रहा है। कौन पढ़ेगा और कौन मनुष्य बनेगा ! क्या मैं असफल हो गया हूँ, अब मुझे क्या करना चाहिए। फिर वे देखते हैं कि यह जो जगत है, जिसमें व्यक्ति रहता है इसके निर्माण में अधिकांश भूमिका माया की है, इसलिए किसी अनुशासन के द्वारा मनुष्य को धर्म की ओर प्रवृत्त कर लिया जाए बड़ा कठिन है। तो, कुछ ऐसा करूँ कि स्वभाव से ही मनुष्य धर्म की ओर आकृष्ट हो जाए। वो स्वभाव क्या है, गीता में स्पष्ट करते हैं कि अध्यात्म ही स्वभाव है। महाराज मनु ने निर्णय लिया कि आध्यात्मिक मार्ग से मनुष्य को धर्म में करना उचित है। भौतिक मार्ग से संविधान बनाकर यह करना दुष्कर है। आज हम देख ही रहे हैं कि संविधान के होते हुए भी क्या दशा है दुनिया की, क्या दशा है देश की। अब उन्हें चिन्ता हुई कि स्वाभाविक आकर्षण कौन कर सकता है। सबका स्वभाव क्या है, सब का स्वभाव तो आत्मा ही है और सबका आत्मा स्वयं परमात्मा है। तब उन्होंने कहा कि एक-एक जीव को मैं रास्ते पर लगाऊँ तो यह ठीक नहीं है, मैं ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूँ। फिर उन्होंने तप किया, और जब प्रसन्न होकर परमपिता प्रकट हुए और वर माँगने को बोला तो उन्होंने माँगा कि मेरे पुत्र बन जाइये। क्योंकि, मैंने पुत्र उत्पन्न किये, उन्हें शिक्षायें दीं, सब प्रकार से ठीक करने की चेष्टा की लेकिन वह नहीं हो पाया। अतः अब आप स्वयं मृत्युलोक में आयेंगे, मनुष्य बनकर चलेंगे तो परमात्मा होने के कारण आत्माओं से जो आपका स्वाभाविक सम्बन्ध है, उसके कारण सब स्वतः आपकी और आकृष्ट होंगे और आपको देखकर धर्म करने में समर्थ होंगे। पुस्तक पढ़कर धर्म करने में समर्थ नहीं होंगे, आज भारतवर्ष प्रत्यक्ष इसको देख रहा है। इतने हमारे पास शास्व-पुराण हैं, वेद हैं, संविधान हैं, स्मृतिय हैं। उनके कुशल व्याख्याता हैं लेकिन जिस तरह श्रीराम ने इस भारत देश को अपने पीछे चलाया है और आज का भारत जिस तरह अयोध्या, श्रीराम और श्री रामजन्म भूमि को लेकर जिस भाँति खड़ा है वह सिद्ध करता है कि भारतीय मनुष्यता और मूल्यबोध के आधार श्रीराम हैं। यह देश धर्म की ओर बढ़ेगा तो किसी पुस्तक को आगे रखकर नहीं बढ़ेगा, बल्कि श्रीराम को आगे रखकर बढ़ेगा। इस अनुगमन का प्रभाव गीतों और कलाओं से होता हुआ सांस्कृतिक पहचान निर्मित करेगा। आप मधुबनी पेंटिंग उठा कर देखिए उसका अधिकांश उपजीव्य श्रीरामचरित है। बेटे का मुण्डन हो या विवाह हो समस्तप्राय मिथिलाञ्चल में अष्टयाम होता है, 24 घंटे का सीताराम संकीर्तन। सर्दियों के दिनों में अगहन के महीने में व्यापक रूप से श्रीसीताराम विवाह का आयोजन और राज पारिवारों में राज्याभिषेक होने पर श्रीराम राज्याभिषेक के मंचन की परम्परा रही है। ये सारे तत्त्व एक-एक करके सांस्कृतिक चेतना के रूप में हमारे जीवन में आये। यह केवल पुस्तकीय ज्ञान या वाचिक परम्परा से नहीं, व्याख्यान से नहीं, वरन् श्रीराम सब के भीतर स्वाभाविक रूप से बस गए थे इसलिए हो सका। समस्त लोक को सींचती हुई यह संस्कृति यहाँ तक पहुँची। हमारे वर्तमान समय व समाज को सर्वाधिक प्रभावित करने वाली जो अवधारणा है, वह राजनीति है। वर्तमान भारत में राजनैतिक दृष्टि से जिसका नेतृत्व सर्वाधिक सम्मानित हुआ है, वे महात्मा गाँधी हैं। विरोधाभास हो सकता है, असहमतियाँ हो सकती हैं, अलग-अलग पक्ष हो सकते हैं लेकिन इस देश को गाँधी चिन्तन ने जिस प्रकार विश्व के सम्मुख खड़ा किया है; उसे नकारा नहीं जा सकता। उससे असहमत हुआ जा सकता है, पर उसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता और वही गाँधी जब समाज को अच्छा बनाना चाहते हैं तो उनके पास जो आदर्श है, वह राम हैं। आज लाख कोई कुछ कहता रहे किन्तु हम ये झुठला नहीं सकते कि राजनीति में प्रार्थना सभाओं की क्या गुंजाइश गाँधी के देन है। स्वतंत्रता संग्राम में जब संघर्ष के दिन आते हैं तो सन्त महात्मा भी पूजा- पाठ छोड़कर लड़ाई में खड़े हो जाते हैं। पर एक ऐसा महात्मा इस देश में पैदा हुआ जिसने अपनी लड़ाई में भी प्रार्थना-सभाओं को सम्मिलित किया। वहाँ रघुपति राघव राजा राम गाने की परम्परा चली इस देश में स्वतन्त्र भारत में राजनीति का जो सूत्रपात है उसके नायक भी श्रीराम होते हैं। आदर्श राज्य की जो अवधारणा है उसके नायक भी श्रीराम बनते हैं। यद्यपि रामराज्य को लेकर भी तमाम सामाजिक अनुसन्धान व चिन्तायें हैं, पर उन सबके बाद भी हम उससे बेहतर समय की कल्पना नहीं कर सकते। हम एक प्रसंग की ओर आपकी दृष्टि ले जाना चाहते हैं। गोस्वामी श्रीतुलसीदास जी रामराज्य का वर्णन करते हुये कहते हैं कि वहाँ बाजार में वस्तुयें बिना मूल्य दिये मिल रही हैं। वस्तुतः जब श्रीराम लौटकर अयोध्या आते हैं तो भरत जी से पूछते हैं कि अयोध्या में इतनी सम्पत्ति, इतना वैभव संगृहीत कैसे हुआ। तो भरत जी ने कहा कि प्रभो! आपकी अनुपस्थिति में सर्वजित् यज्ञ न होने के कारण सर्वस्व दान करने का जो क्रम था वह अवरुद्ध रहा और इसलिए बीते वर्षों में कर के द्वारा संगृहीत सम्पत्ति का संचय हो गया है। यह सुनकर श्रीराम कहते हैं कि यह तो अनर्थ है, एक वित्तीय वर्ष में जो राशि इकट्ठा होती है उसको प्रजा के निमित्त राजा उत्सर्जित कर देता है। यदि वह उसका संग्रह करके रखता है तो अपराधी हो जाता है, उसे रख नहीं सकता। यह अपरिग्रह की दृष्टि है, जो मात्र सन्यासियों के लिए नहीं है, एक राजा कहता है-कि एक बार कर संग्रह द्वारा प्राप्त संपत्ति को प्रजा के निमित्त राजा वैसे ही उत्सर्जित कर दे, जैसे बादल अपना जल रखते नहीं बरसा देते हैं। तब श्रीराम ने आज्ञा दी कि यह संचित वैभव प्रजा में आवश्यकतानुरूप निःशुल्क वितरित कर दिया जाय। इसी का संकेत मानस में गोस्वामी जी ने किया है।

ये जो सन्दर्भ और उनमें निहित विचार हैं, ये भारतीय संस्कृति में श्रीराम प्रभावान्विति को स्पष्ट करते हैं। इसके संवाहक और प्रतिनिधि श्रीराम हैं। कथाओं में तथा विभिन्न माध्यमों में जो उनकी व्याप्ति है वह वास्तव में हमारी चेतना में व्याप्त होकर जीवित रहती है। अभिव्यक्ति में वहीं आता है जो हमारे भीतर विद्यमान होता है, श्री राम हमारे भीतर विद्यमान हैं। यह समय उनके व्यापक अभिव्यक्ति का है, जो हम सब को करना है।

(ग्लोबल इन साइक्लोपीडिया ऑफ रामायण संगोष्ठी में लेखक द्वारा दिया गया अध्यक्षीय वक्तव्य ।’कला व संस्कृति में श्रीराम’ पुस्तक से साभार। यह पुस्तक उत्तर प्रदेश के संस्कृति विभाग द्वारा मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ के संरक्षक , संस्कृति व पर्यटन मंत्री जयवीर सिंह के मार्ग दर्शन , प्रमुख सचिव पर्यटन व संस्कृति मुकेश कुमार मेश्राम के निर्देशन, संस्कृति निदेशालय के निदेशक शिशिर तथा कार्यकारी संपादक तथा अयोध्या शोध संस्थान के निदेशक डॉ लव कुश द्विवेदी के सहयोग से प्रकाशित हुई है। )

आचार्य मिथिलेशनन्दिनीशरण

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