Mahatma Gandhi: क्या बापू विभाजन रोक सकते थे ?
Mahatma Gandhi: जिन्ना के बाद दूसरा कोई मुस्लिम नेता था ही नहीं। सिंधी, पंजाबी, बांग्ला, पठान, बलूच, सुन्नी, शिया आदि इस्लामिस्ट साथ रह नहीं पाते। पाकिस्तान नफरत में जन्मा था, ईर्ष्या में मर जाता। आज की तस्वीर देखें। पूर्वी भाग टूटा।;
Mahatma Gandhi: गांधी उत्सर्ग दिवस पर विमर्श कर लें कि अगर बापू पाकिस्तान के विरोध में आमरण अनशन पर बैठ जाते तो ? विभाजन टल जाता, भले ही रुक न पाता। डॉ. राममनोहर लोहिया ने इस पहलू को उठाया है अपनी पुस्तक ‘गिल्टी मेन ऑफ पार्टीशन’ में। संभावना बड़ी थी। प्रबल आशंका थी कि तब तक मोहम्मद अली जिन्ना की मृत्यु हो जाती। ठीक बारह माह बाद 11 सितंबर 1948 को गले-आंतों के कारण उनका इंतकाल हो भी गया। मेरी ताजा पुस्तक ‘ अब और पाकिस्तान नहीं’ में यह मसला उठा है। अनामिका प्रकाशन : 21-ए, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली 110002।
जिन्ना के बाद दूसरा कोई मुस्लिम नेता था ही नहीं। सिंधी, पंजाबी, बांग्ला, पठान, बलूच, सुन्नी, शिया आदि इस्लामिस्ट साथ रह नहीं पाते। पाकिस्तान नफरत में जन्मा था, ईर्ष्या में मर जाता। आज की तस्वीर देखें। पूर्वी भाग टूटा। बलूच कगार पर है। तालिबानी भी पाकिस्तान से खदेड़े जा रहे हैं। बचेगा कौन ? पंजाबी फौजी और भारत से भागे मुसलमान जो आज भी खानाबदोश हैं। अंग्रेज भी तब तक ऊब जाते और बिस्तर बांध लेते।
ज्योतिषीय रेखाओं के संकेत के अनुसार उस घेरे में केवल दो व्यक्ति ही सबसे बड़े लाभार्थी थे विभाजन के। जिन्ना जो साल भर में गुजर गए। जवाहरलाल नेहरू जो तेरह वर्ष तक सत्तासुख भोगते रहे। उनके वंशज डटे भी रहे तीन दशकों तक। अतः जवाब मिल ही गया कि पाकिस्तान बना आखिर किसके खातिर ? फैज अहमद फ़ैज़ ने तो साफ जवाब लिख दिया था : "यह (पाकिस्तान) वह सुबह नहीं जिसका इंतजार था।" एक तथ्य हमेशा याद रहेगा। बादशाह खान (अब्दुल गफ्फार खान) ने कहा था : "जिन्होंने पाकिस्तान का राज पाया, वे ही लोग थे जिनके पुरखे ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के खिदमतगार थे। अंग्रेजो के थाली चट्टे थे।" कितना कड़वा सच था ?
जून 1947 (दो राष्ट्र बनने के माह भर पूर्व ही) मेजर जनरल आगा मोहम्मद याह्या खान ने क्वेटा के स्टाफ कॉलेज में सेना के बटवारे पर मुख्य प्रशिक्षक कर्नल एस. डी. वर्मा से कहा था : "सर हम लोग किस बात का जश्न मना रहे हैं ? हम लोग एक मजबूत राष्ट्र हो सकते थे। अब हम एक दूसरे के खिलाफ लड़ रहे होंगे।" यही मार्शल याह्या थे जो बाद में टूटे-फूटे पाकिस्तान के पूर्वी भूभाग को भी काटने में सफल रहे। बांग्लादेश था। अपनी किताब ‘जिन्ना’ में लेखक इश्तियाक अहमद ने कहा था : "याह्या खान का वक्तव्य ज्योतिषीय था।" अंतत पाकिस्तानी में पाकिस्तान नहीं रहे। केवल पंजाबी, सिंधी, पठान बलूच। ये लोग तो हिंदुस्तान में भी हैं। तो अलग कैसे ?
पाकिस्तान बनने से मौलाना अबुल कलाम आजाद भी गलत साबित हुए। मौलाना आजाद के 27 अक्टूबर, 1914 को कोलकाता में दिए गए भाषण के कुछ अंश पढ़ें : "यह (मुस्लिम) बिरादरी अल्लाह द्वारा स्थापित की गई है। सारे बुनियादी संबंध खत्म हो सकते हैं पर यह (मुस्लमान का मुस्लमान से) संबंध अटूट है। एक पिता अपने पुत्र के खिलाफ जा सकता है, एक माता अपने बच्चे को अपनी गोदी से अलग कर सकती है, भाई अपने भाई का दुश्मन हो सकता है, किंतु एक चीनी मुस्लमान का अफ्रीकी मुस्लमान से, एक अरब के रेगिस्तान में रहने वाले खानाबदोश का तातार चरवाहे और एक भारत के नए मुस्लमान का मक्का (के शुद्ध रक्त) के कुरेशी से जो संबंध है, उसे दुनिया की कोई ताकत नहीं तोड़ सकती।" मगर मौलाना आजाद से ज्यादा नेक मुसलमान जिन्ना माने गए। दारुल इस्लाम लेकर रहे। आजाद भारत में नहीं रह पाये।
इसी बीच अंग्रेजी शासन ने हिंद मुसलमान के लिये पृथक निर्वाचन क्षेत्र की हिमायत शुरू कर दी। उन्होंने अपनी परिवर्तित राय भी व्यक्त की कि, ‘संयुक्त चुनाव प्रणाली से राष्ट्रीयता सबल नहीं हो सकती।’ (मीट मिस्टर जिन्ना, लेखक ए.ए. राउफ, मद्रास प्रकाशन, 1944, पृष्ठ 90)। जब दिसम्बर 1928 में कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन मे नेहरू रपट पर चर्चा हुई तो जिन्ना ने पृथक चुनाव क्षेत्र की मांग पर ज्यादा जोर नहीं दिया। लेकिन शीघ्र ही साम्प्रदायिक विभाजन का सिद्धान्त उनके लिए अभियान का एकमात्र कार्यक्रम बन गया।
दूसरा पहलू, जिस पर आज दुबारा खोजबीन की दृष्टि से अध्ययन करने की आवश्यकता है, इस यथार्थ से जुड़ा है कि मोहम्मद अली जिन्ना लाख चाहकर भी अविभाजित भारत के मुसलमानों के एक छत्र नेता नहीं बन पाये थे। वे तो उस समय मुस्लिम नेताओं की झुण्ड में बस एक थे। मगर कांग्रेसी नेताओं के ऐसे विवेकहीन और असमय निर्णय थे जिसने अन्य मुस्लिम नेताओं को जिन्ना की गोद में डाल दिया। तब मुसलमान मुख्यमंत्री थे पंजाब में सर सिकन्दर हयात खां तथा बंगाल में सादुल्ला जो मुस्लिम लीग के विरोध् में थे। सीमान्त प्रदेश में कांग्रेस के डा. खान साहब मुख्यमंत्री थे। उनके भाई खान अब्दुल गफ्फार खान कांग्रेस कार्यसमिति में थे। अचरज की बात तो यह थी कि मुस्लिम-बहुल राज्यों में जिन्ना की मुस्लिम लीग विधनसभा निर्वाचन में बुरी तरह पराजित हो गयी थी। जिन राज्यों में मुसलमान अल्पसंख्यक थे वहां मुस्लिम लीग ने अपने पैर जमा लिये थे जैसे संयुक्त प्रान्त यू.पी., बिहार, मध्य भारत के इलाके आदि।
तभी जवाहरलाल नेहरू ने ऐतिहासिक और अक्षम्य भूल कर दी। यू.पी. में कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने साझेदारी से विधनसभा का चुनाव लड़ा था। कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिल गया तो नेहरू ने गोविन्द वल्लभ पन्त सरकार में चौधरी खलिकुज्जमां को सीटें देने से साफ इनकार कर दिया। यह वादा-फरामोशी थी। लखनऊ की इसी घटना ने भारत की मुस्लिम राजनीति को एक घातक और दर्दनाक मोड़ दे दिया। नेहरू के निर्णय को विश्वासघात कहकर सभी मुस्लिम नेता जिन्ना के आगोश मे जा पहुंचे। ब्रिटिश लेखक पाण्ड्रेल मून ने अपनी पुस्तक ‘डिवाइड एण्ड क्विट’ लन्दन, 1964, पृष्ठ-17 में लिखा कि इस लखनऊ की घटना से मंजर पूरा बदल गया। पंजाब और बंगाल के मुसलमानों के जिन्ना की मुस्लिम लीग के साथ आ जाने से जिन्ना राजनीतिक उत्कर्ष की उस चोटी पर जा पहुंचे, जहां वे पहले कभी नहीं थे। इससे पाकिस्तान की मांग को अपार समर्थन भी मिल गया। तीसरा पहलू उर्दू भाषा से सम्बन्ध्ति है। जिन्ना से पूछा गया कि उनके कौम पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा क्या होगी, तो तपाक से वे बोले, ‘निसन्देह, उर्दू।’ उनसे फिर प्रश्नकर्ता ने जानना चाहा कि क्या उन्हें उर्दू का पर्याप्त ज्ञान है? उनका जवाब था, ‘अपने खानसामे को डिनर का आर्डर देने लायक उर्दू बोल सकता हूं।’ मातृभाषा गुजराती, सिंधी परिवेश और अंग्रेजी जिन्ना का उर्दू प्रेम ऐसा था ! जब पाकिस्तान ने पूर्वी पाकिस्तान पर उर्दू थोपना चाहा तो बगावत हो गयी। बांग्लाभाषी पूर्वी पाकिस्तानियों ने बांग्लादेश बना लिया। इस्लामी जम्हूरिया का बटवारा हो गया। आज भी बचेखुचे पाकिस्तान में उर्दू किसी भी राज्य की भाषा नहीं है। पंजाबी, सिन्धी, बलूची, पश्तो आद जुबान प्रयुक्त होती है। सही मायनों में उर्दू को कहीं आदर और उपयोगिता प्राप्त हुई है तो वह उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में है। हिन्दी के प्रेमियों को यह ऐतिहासिक तथ्य कभी भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए।
अतः अब भूली बिसरी बातों को कुरेदने के बजाय कटु वास्तविकता को मान लें। जब दो दारुल इस्लाम इस्लामी पाकिस्तान और तालिबानी अफगानिस्तान ही दुश्मन हों तो भारत के समक्ष विकल्प क्या है ? जाहे विधि राखे राम ताहि रहिए।कभी इतिहास ने भूगोल को सुधारना चाहा तो पूर्व और पश्चिम जर्मनी भी एक राष्ट्र फिर से हो गया। तो आशा संजोये रहें।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)