छात्रों का गला रेतकर 'क्रांति' करते माओवादी व उल्टा लटका 'मानवाधिकार'
माओवादी बच्चों व छात्रों के गला रेत कर सर्वहारा वर्ग के लिए तथाकथित ‘क्रांति’ करने में लगे हैं । कुछ दिन पूर्व ही माओवादियों ने बस्तर के सुकमा जिले में दो लोगों की हत्या कर दी थी । इनमें एक स्कूल में पढ़ने वाला छात्र था।
माओवादी बच्चों व छात्रों के गला रेत कर सर्वहारा वर्ग के लिए तथाकथित 'क्रांति' करने में लगे हैं । कुछ दिन पूर्व ही माओवादियों ने बस्तर के सुकमा जिले में दो लोगों की हत्या कर दी थी । इनमें एक स्कूल में पढ़ने वाला छात्र था। माओवादियों ने दो लोगों का अपहरण कर लिया था। इसके बाद उन्हें पुलिस इनफार्मर बता कर हत्या कर दी। माओवादियों के हत्या का शीकार होने वाले इस छात्र के पिता पुलिस में थे। माओवादियों ने उसके पिता को नौकरी छोड़ने के लिए धमकी दी थी जिसके बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी थी। इसके बाद भी उन्होंने उनके स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे का अपहरण कर जंगल में ले जाने के बाद हत्या कर दी।
स्कूली छात्र या बच्चों को माओवादियों द्वारा हत्या किये जाने की यह पहली घटना नहीं हैं । इससे पूर्व स्कूली बच्चे यहां तक की मासूम व छोटे बच्चों की हत्या करने की घटनाएं घटी है । कुछ पुरानी घटनाओं पर नजर डालने पर माओवादियों की बर्बरता का पता चल सकता है ।
2018 के अक्तूबर माह में सुकमा जिले के कुकानार थाना इलाके के कुंदनपाल गांव में माओवादियों ने जनजातीय छात्र कुंजामी शंकर का अपहरण कर लिया था । उनके अपहरण करने के बाद उस पर भी पुलिस इनफार्मर होने का आरोप लगा कर गला रेत कर हत्या कर दी थी । कुंजामी शंकर लाइवलीहूड विद्यालय में पढते थे । उनके परिवार के लोगों का सपना था कुंजामी पढ लिख कर अपने परिवार को आर्थिक रुप से सहायता करेगा । लेकिन माओवादी कुंजामी शंकर को तथाकथित 'क्रांति' के लिए अवरोध के रुप में देखते थे । यही कारण है कि उन्होंने बच्चे की गला रेत कर हत्या कर दी ।
बच्चे से माओवादियों को क्या खतरा
स्कूल में पढ़ने वाले इस बच्चे से माओवादियों को क्या खतरा था ? मार्क्स की वर्ग संघर्ष की शब्दाबली में यह बच्चा किस वर्ग में आता था । इसका उत्तर इस तथाकथित 'क्रांति' के लिए कार्य करने वाले माओवादी व शहरों में बैठे उनके ओवर ग्राउंड कार्यकर्ता यानी शहरी नक्सलियों को देना चाहिए था।
इसी तरह की एक घटना ओडिशा- झारखंड सीमा पर सुंदरगढ जिले में 2011 में घटा लथा । कांदरी लोहार नामक एक होमगार्ड को माओवादियों ने गला रेत कर हत्या करने के बाद जंगल मे लाश फैंक दिया था । केवल इतना ही नहीं माओवादियों ने उसके तीन साल के बच्चे को भी नहीं छोडा । इस तीन साल के बच्चे को भी माओवादियों ने गला रेत कर हत्या की थी ।
कांदरी लोहार की गलती क्या थी ? कांदरी कभी माओवादी संगठन में कार्य कर चुकी थी। लेकिन जब उसे अपनी गलती का अहसास हुआ तब उसने आत्म समर्पण करने के साथ साथ समाज के मुख्यधारा में शामिल हुई । प्रशासन ने उसे होमगार्ड बनाया । यही कारण है कि माओवादियों ने कांदरी की गला रेत कर हत्या कर दी । लेकिन एक मुख्य प्रश्न यह है कि उसके तीन साल के बच्चे को माओवादी इतना खतरनाक क्यों मानते थे । हो सकता है इसमें मार्क्स द्वारा लिखे गये कुछ गूढ रहस्य छुपा हुआ हो । किसी शीर्ष माओवादी नेता ही इसका जवाब दे सकता है।
तीन साल के बाचे का गला रेत कर की हत्या
इस तीन साल की बच्चे की गला रेत कर हत्या करने की घटना ने मानवता को शर्मसाल कर दिया था। हालांकि माओवादियों के लिए यह 'क्रांति' के लिए एक अनिवार्य़ कदम था । इस घटना ने माओवादियों के असली चरित्र को उजागर किया था । इस घटना ने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि माओवादी किसी प्रकार का वैचारिक आंदोलन नहीं चला रहे हैं बल्कि वे एक वसूली गिरोह में परिवर्तित हो चुके हैं तथा आतंक के बल पर कुछ इलाकों में अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहते हैं ।
यद्यपि माओवादियों के इस तरह के बर्बर कृत्य कोई नयी बात नहीं है लेकिन इस तरह की घटनाओं को समाचार पत्र व इलेक्ट्रोनिक्स चैनलों में उचित स्थान मिल नहीं पाता । यह चिता का विषय है ।
सर्वहारा वर्ग के लिए तथाकथित 'क्रांति' में लगे इन माओवादियों के इस तरह के नृशंस कृत्यों को दिल्ली से प्रकाशित किसी राष्ट्रीय समाचार पत्रों में या फिर 24 घंटों के चैनलों में स्थान न मिलना , रायपुर, भुवनेश्वर से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों में प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित न हो कर किसी बीच के पृष्ठ के किसी कोने पर छोटा समाचार के रुप में प्रकाशित होना हमारी संवेदनशीलता का स्तर कितना गिर चुका है इस बात को प्रमाणित करता है ।
यहां एक और सवाल आता है । इस तरह के घटनाओं के बाद किसी मोमबत्ती ब्रिगेड के लोग क्यों नहीं दिखते । मानवाधिकार की दुकानें खोल कर बैठने वाले तथाकथित मानवाधिकारवादों के दुकानों पर भी ताला क्यों जड़ा रहता है। वे अपना मूहँ क्यों नहीं खोलते ।
मानवाधिकारों का हनन हो रहा है
सभी को ध्यान में होगा विनायक सेन व बर्बरा राव जैसे लोगों के खिलाफ जब पुलिस किसी प्रकार कार्रवाई करती है तो नई दिल्ली के जंतर मंतर से लेकर रायपुर के राजीव चौक व भुवनेश्वर के लोवर पीएमजी चौक तक ये मानवाधिकार कार्यकर्ता हाथों में प्लाकार्ड लिए मानवाधिकारों का हनन हो रहा है कह कर चिल्लाते दिखते हैं । मौन रैलियां निकालते हैं । ट्वीटर पर ट्रैंड कराया जाता है । लेकिन इन बिचारे नीरिह निरपराध जनजातीय बच्चों के लिए कोई नहीं निकलता । ऐसा लगता है कि इन बेचारे बेबस जनजातीय बच्चों के लिए मानवाधिकार नहीं होता, मानवाधिकार केवल भारत को तोडने वालों, भारत को कमजोर करने वालों का होता है ।
इस तरह के बर्बर घटनाओं के बाद वे बुद्धिजीवी भी चुप्प रहते हैं जो शहरी नक्सलवादियों के लिए तुरंत सुप्रीमकोर्ट पहुंच जाते हैं । वे इस मामले में पूर्ण रूप से चुप्पी बरतते हैं ।
वास्तव में ये सभी घटनाएं उन तथाकथित मानवाधिकार कार्यकर्ता व संगठनों के वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट करता है । उनके मुखौटे को खोल देता है तथा यह भी प्रमाणित करता है कि ये मानवाधिकार कार्यकर्ता वास्तव में मानवाधिकारों के लिए नहीं बल्कि दानवों के अधिकारों के लिए कार्य करते हैं । इन दानव अधिकारवादियों के विकराल हसीं में उन निरपराध मासूम जनजातीय बच्चों के चीखें दब जा रही है ।