Shri Ram: भारतीय संस्कृति के लोकनायक मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम
Maryada Purushottam Shriram: रम्यते इति रामः अर्थात् जो रम गया हो, रच-बस गया हो वह राम है। वे राम परम ब्रह्म परमेश्वर हैं। विष्णु के अवतार हैं अथवा कौशल्या पुत्र दशरथी राम हैं। ये सभी मान्यतायें अपने स्थान पर चर्चा का विषय बन सकती हैं। परन्तु श्रीराम भारतीय संस्कृति में लोक-जीवन में अपने मर्यादा पुरुषोत्तम के स्वरूप में जन-जीवन में सर्वत्र रचे-बसे हैं।
Maryada Purushottam Shriram: रम्यते इति रामः अर्थात् जो रम गया हो, रच-बस गया हो वह राम है। वे राम परम ब्रह्म परमेश्वर हैं। विष्णु के अवतार हैं अथवा कौशल्या पुत्र दशरथी राम हैं। ये सभी मान्यतायें अपने स्थान पर चर्चा का विषय बन सकती हैं। परन्तु श्रीराम भारतीय संस्कृति में लोक-जीवन में अपने मर्यादा पुरुषोत्तम के स्वरूप में जन-जीवन में सर्वत्र रचे-बसे हैं। सांस्कृतिक जीवन में राम का रूप- रंग लोगों की आस्था-विश्वास, श्रद्धा के अनुरूप ढला हुआ है। जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त हर क्षण राम-नाम का स्मरण करता भारतीय जन-मानस राम से अभिन्न रूप से जुड़ा है। जहाँ राम-नाम आह्रह्लाद के क्षणों में प्रसन्नता की अभिव्यक्ति है, वहीं दुःख, क्षोभ, ग्लानि में उच्छ्वास के साथ स्वतः प्रकट हो जाता है। जीवन की अन्तिम यात्रा भी श्रीराम की सत्यता को स्वीकारती हुई सम्पन्न होती है। आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो परब्रह्म स्वरूप श्रीराम की इतिहास में खोज सर्वथा अनावश्यक प्रतीत होती है; क्योंकि वे सर्वव्यापी हैं। आज श्रीराम के मर्यादा पुरुषोत्तम स्वरूप को सच्ची श्रद्धा से स्मरण कर जीवन में उतारने की कहीं अधिक आवश्यकता है, जिससे भारतीय संस्कृति अपने 'वसुधैव कुटुम्बकम्' स्वरूप को अक्षुण्ण बनाये रख सके।
कवियों ने श्रीराम के जीवन पर सदियों से अपनी लेखनी चलाई है। बाल्मीकि की आहत भावना के कारुण्य से उपजी काव्यधारा की सशक्त अभिव्यक्ति रामायण महाकाव्य के रूप में हुई। माना तो यही जाता है कि बाल्मीकि राम की अलौकिक जीवन-यात्रा के साक्षी थे। उन्होंने राम के आदर्श जीवन को अपनी सशक्त लेखनी से जीवन्त किया। तब से लेकर गोस्वामी तुलसीदास तक सैकड़ों लेखकों-कवियों ने अनेकानेक रूपों में राम-कथा को अपने-अपने ढंग से अपनी सामर्थ्य के अनुसार लेखबद्ध किया। बाल्मीकि कृत रामायण से लेकर गोस्वामी तुलसीदास के बीच की शताब्दियों में राम-कथा के निरूपण रामायण के ही रूपान्तरण माने जा सकते हैं। प्रत्येक कवि-लेखक राम का रूप और गुण अपनी दृष्टि से देखता है। सही अर्थों में देखें तो इन सभी के अपने-अपने राम हैं। अपने स्वभाव, रुचि, श्रद्धा-विश्वास परिस्थिति- परिवेश के अनुरूप अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति राम कथा के रूप में इन कवि-लेखक गायकों की काव्यांजलि के रूप में सदियों तक होती रही। इनमें इतिहास पुरुष राम को खोज कर सामने लाना दुष्कर तो है ही, साथ ही बेमानी भी है। सार्थकता तो इसमें है कि आज के युग में आदर्श व्यक्तित्व के अभाव में भटकती पीढ़ी के सम्मुख श्रीराम के मर्यादा पुरुषोत्तम स्वरूप को प्रस्तुत कर एक समुचित जीवनदृष्टि दी जाय।
आधुनिक भारतीय समाज के सामने श्रीराम के चरित का सशक्त रेखांकन गोस्वामीजी ने किया। अपने युग के हतोत्साहित समाज, सामाजिक कुरीतियों से जूझते, धार्मिक अभिव्यक्ति की कठिनाइयों से दो-चार होते हिन्दू समाज को आशा की किरण दिखाते आहत जीवनधारा को तिनके का सहारा देते गोस्वामी जी ने रामचरित मानस की अभिरचना की है।
आधुनिक भारत भौतिक जीवन की ओर अभिमुख ऐसी जीवन दृष्टि के साथ प्रगति के पथ पर अग्रसर है, जिसने नैतिकता, सौहार्द्र, संवेदना जैसे भावों से एक तरह से किनारा कर लिया है। जीवन के मार्ग पर चलने के लिये आदर्श दिशा देने वाले चरित्रों का आज सर्वथा अभाव है, अतः पथभ्रष्ट, दिशाभ्रष्ट, जीवन की कठिनाइयों से जूझते जीवन के सामने राम के मर्यादा पुरुषोत्तम स्वरूप को पुनः स्थापित करने की महती आवश्यकता है।
श्रीराम के आदर्श चरित्र की पुनर्स्थापना न केवल हमारे दैनन्दिन जीवन में अपने पारिवारिक सम्बन्धों को द्वेषरहित व स्नेहमय बनाए रखने की प्रेरणा है वरन् सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक समरसता और सौहार्द्र की स्थापना में सहायक भी है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि राम के चिरन्तन गुणों के विषय में सभी जानते हैं किन्तु उनका पुनः स्मरण करके आदर्श से भटकते जन-जीवन में समरसता स्थापित करना श्रीराम के प्रति सच्ची श्रद्धा होगी। प्रस्तुत आलेख अकादमिक दृष्टि से पुरातात्विक ऐतिहासिक गवेषणा से परे राम के आदर्श चरित का स्मरण करने का एक लघु प्रयास है।
राम की ऐतिहासिकता पर विद्वानों ने लम्बे विमर्श किये हैं, पक्ष-विपक्ष में विस्तार से तर्क प्रस्तुत किये गए हैं। पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर राम के भौतिक अवशेषों की स्थापना के भी प्रयास कम नहीं है। यह एक कठिन ही नहीं दुष्कर कार्य भी है। पुरातात्विक साक्ष्यों की खोज में कतिपय विद्वानों ने रामायण में वर्णित स्थलों को चिन्हित कर जहाँ से प्राप्त पुरावशेषों को प्रकाश में लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। इससे अधिक से अधिक उन स्थलों को चिन्हित करने में सहायता मिल सकती है, जिनका उल्लेख रामायण में हुआ है। तत्कालीन भौतिक जीवन की झलकी कदाचित् हमें अयोध्या, श्रृंग्वेरपुर, चित्रकूट, भरद्वाज आश्रम, नन्दीग्राम आदि के उत्खननों से मिल सकती है। उन पुरास्थलों का तिथि निर्धारण भी किया जा सकता है। प्रश्न यह उठेगा कि क्या उन पुरावस्तुओं में श्रीराम की ऐतिहासिकता को पूर्णतः स्थापित करने की सामर्थ्य होगी ? क्या वास्तव में वे रामायण में वर्णित वही स्थान है जहाँ श्रीराम की इहलौकिक लीलाएँ घटित हुई थीं? क्या जनश्रुति पर आधारित वे स्थान नाम वास्तव में त्रेता युग के रघुकुल का इतिहास संजोए हुए वे ही स्थल हैं? यदि ऐसा कुछ है भी तो क्या वह रामायण के विभिन्न संस्करणों में वर्णित विवरणों से मेल खाते हैं, जो बाद की रचनाएँ मानी जाती हैं? पुरावशेषों तथा पुरातात्विक संस्कृतियों को ऐतिहासिक ग्रन्थों के साथ समेकित करने की अपनी कठिनाइयाँ हैं। इस विषय पर विस्तार से विमर्श भी हुए हैं। इस पचड़े में पड़ना यहाँ अभीष्ट नहीं प्रतीत होता है। इन साक्ष्यों से ऊपर उठकर यदि हम मर्यादा पुरुषोतम राम के चरित्र-स्वरूप-गुण की ओर ध्यान दें तो कदाचित् उनकी प्रासंगिकता आज कहीं अधिक प्रतीत होती है। यही इस लेख का उद्देश्य भी है।
राम के आदर्श चरित्र का आकर्षण इतना बड़ा था कि भारत-भूमि से बाहर दक्षिण-पूर्व के अनेक देशों में भी राम के जीवन से जुड़े स्थानों को परिकल्पित कर उनकी स्थापना की गई। हमें अनेक देशों में अयोध्या, साकेत जैसे नाम वाले स्थल मिलते हैं। रामायण और रामलीला दक्षिण-पूर्व एशिया के अनेकानेक देशों के संस्कृति की अभिन्न अंग है। यह इसीलिए संभव हुआ होगा कि रामायण महाकाव्य के नायक श्रीराम का चरित्र न केवल अनुकरणीय और स्तुत्य है वरन् सामान्य जीवन के बहुत निकट भी है। साधारण लोग भी उससे जुड़ाव का अनुभव कर सकते हैं। अपनी पारिवारिक-सामाजिक समस्याओं के समाधान का मार्ग राम के जीवन में ढूँढ़ सकते हैं। जहाँ आदर्श जीवन की सुस्पष्ट झलक है।
आधुनिक समाज में आदर्श चरित्र जिसका अनुसरण कर जीवन की सही दिशा तलाशी जा सके उनका सर्वथा अभाव है। इसके लिये रामचरित हमारा मार्ग प्रशस्त करता है। ऐसे तो उस महाकाव्य के विभिन्न चरित्रों जैसे भरत, लक्ष्मण, सीता आदि के आधार पर करणीय अथवा अकरणीय का विवेकपूर्ण निर्णय किया जा सकता है किन्तु श्रीराम उनमें अद्वितीय हैं, अनुकरणीय हैं और अत्यन्त प्रासंगिक भी।
श्रीराम के मर्यादा पुरुषोत्तम स्वरूप की विस्तृत चर्चा तो थोड़े से शब्दों में समेटना सम्भव ही नहीं परन्तु हमें आधुनिक जीवन में व्यवहार्य कुछ आदशों की चर्चा करना अभीष्ट प्रतीत होता है। श्रीराम की जो छवि गोस्वामी जी की लेखनी में उभरी वह इतनी आकर्षक है कि सुनने-पढ़ने वाला विभोर हो जाता है।
राम का स्वरूप अभिराम है-अप्रतिम रूप से आकर्षक छवि के स्वामी राम ने बाल्यावस्था से ही सभी का मन मोहा है। तुलसी की सशक्त लेखनी भी 'ठुमक चलत रामचन्द्र बाजत पैंजनियाँ ......' जैसे विवरण भी कदाचित् शिशुरूप में राम का वह आकर्षक चित्र नहीं उभार पाए होंगे जो वास्तव में उनकी छवि रही होगी। अपनी सहज बाल-क्रीड़ा से सभी को मोहने वाले राम युवावस्था तक आते-आते एक सौम्य छवि वाले आज्ञाकारी, शिष्ट, विनयावनत पुत्र और शिष्य के रूप में दिखाई पड़ते हैं।
आश्रम में गुरु वशिष्ठ के आदर्श शिष्य के रूप में निरूपित, स्वयं के साथ अपने भाइयों-सहपाठियों का भी यथोचित मार्गदर्शन कर सबके प्रिय हैं। सभी विद्याओं के अर्जन में सचेष्ट-सफल विद्यार्थी हैं। क्षात्र धर्म में निपुण होकर अजेय योद्धा के रूप में अयोध्या लौटते हैं। मार्ग में मिथिला में सीता स्वयंवर में भाग लेकर शिव-धनुष भंग कर अपनी वीरता और पराक्रमी छवि की छाप समाज में स्थापित कर देते हैं। यहाँ परशुराम के क्रोध-भाजन बनने पर जिस शालीनता और विनयशीलता का परिचय देते हैं, वह चकित करता है। इसका गोस्वामी तुलसीदास ने सुन्दर चित्र प्रस्तुत किया है। लक्ष्मण ने जो रूप धारण कर अपने अग्रज का बचाव करने के प्रयास में थोड़ी उग्रता दिखाई वहाँ भी राम ने अपनी संयमित वाणी से वातावरण को यथासम्भव शान्त करने का प्रयास किया। युवावस्था के ओज में भी आत्म-निग्रह का जो पाठ वह गुरुकुल में पढ़कर आए थे, वह शत-प्रतिशत उसका अनुपालन करते दीख पड़ते हैं, जो जहाँ उपस्थित सभी का हृदय जीत लेता है।
परिवार-माता-पिता-भाई-पत्नी के साथ-साथ अयोध्यावासी अपने युवराज के गुण रूप पर न्योछावर हैं। माता कैकेयी को दिये बचन से आबद्ध पिता राजा दशरथ की बचन-पूर्ति के लिये राजसिंहासन के स्थान पर बेझिझक वनगमन को तत्पर होते युवा राम क्या विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न नहीं लगते? इस परिस्थिति में भी वे माता कैकेयी को मान देना नहीं भूलते। वन प्रस्थान करते समय उनका भी यथोचित अभिवादन करते हैं, उनकी आज्ञा लेते हैं। क्या इस तरह का आदर्श हमें कहीं अन्यत्र ढूँढ़ने पर मिल सकता है? महाभारत में युद्ध की पृष्ठभूमि राजसत्ता की कामना एवं कुचेष्टा ही है। शायद नेता और द्वापर युग के नैतिक मानवीय मूल्यों का यह अन्तर इतना बढ़ गया है कि इस बढ़ती खाई को पाटने में योगेश्वर कृष्ण अपनी चौंसठ कलाओं के स्वामी होकर भी पाट नहीं सके। कलियुग आते-आते वे सभी मान-मर्यादायें धराशायी हो गयी हैं। श्रीराम का चरित उन मान-मर्यादाओं की पुनर्स्थापना की प्रेरणा है, जो आज विखण्डित हो रही है।
वनवासी राम अपने राजपुत्र का रूप अयोध्या में ही छोड़ जाते हैं। केवट से विनती और उसके पश्चात् उससे प्रगाढ़ मित्रता, वनवासी भीलनी शबरी के प्रति स्नेह-प्रेम की उदात्त भावना का प्रतिबिम्ब है। वे बिना संकोच उसके जूठे बेर खाते हैं। यह एक उदात्त व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है जो वर्ग-जाति, ऊँन नीच, बड़े-छोटे के खाँचों में बँटे जिस समाज को हमने पिछली कुछ शताब्दियों में जाना-सुना-पढ़ा है, उसके सर्वथा विपरीत प्रतीत होता है। श्रीराम का यह आचरण-व्यवहार जाति वर्ग में बँटे भारतीय समाज के लिये आदर्श होना चाहिए। यह भेदभाव वाले 'भारतीय समाज के आचरण को झुठलाता प्रतीत होता है। ऐसा व्यवहार महाभारत में कर्ण को सूत-पुत्र कह कर बार-बार अपमानित करने या एकलव्य के 'भील होने के कारण राजपुरुषों के साथ शिक्षा से वंचित होने और उससे अँगूठा कटवाने जैसे दृष्टान्तों की ओर ध्यान खींचता है। प्रतीत होता है कि दो युगों के बीच भारतीय समाज की इस प्रकार की विसंगतियाँ कदाचित् बढ़ती ही गई। परन्तु यदि हम श्रीराम को अपना आदर्श चरित्र मानकर उनकी स्तुति कर रहे हैं तो सामाजिक समरसता की प्रतिमूर्ति उनका इस प्रकार का आचरण आज पहले से कहीं अधिक व्यवहार्य और अनुकरणीय है।
वनवास में राम ने 'वानरों' को मित्र बनाया जो शायद किसी वनवासी समूह के लिये प्रयुक्त प्रतीकात्मक नामकरण हो। विभिन्न वर्गों, समूहों, जातियों धर्मों में बँटे भारतीय सामाजिक व्यवस्था को यदि राम-राज्य बनाना है तो राम के चरित का अवगाहन कर उसे आचरण व्यवहार में लाना होगा। इसी समानता-समरसता को आधार बना गाँधी ने रामराज्य की परिकल्पना की। श्रीराम के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि पृथ्वी पर अनाचार, अत्याचार को समाप्त करना था। राक्षस जो पृथ्वी पर उद्दण्डता और दमन के प्रतीक कहे गये हैं, उनसे समाज को मुक्त करना अनिवार्य था। राम अपने वनवास में निरन्तर संघर्ष करते रहे। परन्तु उनके द्वारा युद्ध में भी कभी मर्यादा का उल्लंघन नहीं हुआ। उन्होंने जीवन में सदा लक्ष्य प्राप्ति के लिए उचित मार्ग को ही चुना। परम अहंकारी रावण जो उनका सबसे बड़ा शत्रु था उसके पाण्डित्य और कूटनीति की जानकारी का वे आदर करते थे। रामायण हो या रामचरित मानस, श्रीराम उसकी विद्वता का सम्मान करते दिखाए गए हैं। लक्ष्मण को मृत्यु शैय्या पर पड़े रावण से सीख लेने के लिये राम का आदेश अपने आप में अनोखा है। 'पाप से घृणा करो, पापी से नहीं' का इससे अच्छा उदाहरण दुर्लभ है। उसके राज्य को वे स्वयं नहीं लेते वरन् विभीषण को वापस देते हैं। यह जहाँ उनके उदात्त चरित्र का ज्वलन्त उदाहरण है, वहीं राजनयिक कुशलता और कूटनीति का भी परिचायक है।
तुलसी के राम एक ओर परम ब्रह्म परमात्मा हैं, जो घट-घट वासी हैं, आत्म-स्वरूप हैं वहीं वे दाशरथी राम हैं, कौशल्या के प्रिय पुत्र, अपने भाइयों के भाई, सीता के प्राणप्रिय, प्रजा पालक तथा हनुमान के परम आराध्य देव। यह उनका लीला स्वरूप है। जीवन के सभी रसों का आस्वादन चाहे वह आनन्द हो, कारुण्य हो, श्रृंगार हो, या रौद्र हो सभी को अपनी पूर्णता में जिया जाय, रामकथा यह भी बताती है। राम के जीवन के रसों को समग्रता में ग्रहण करना रामकथा के रसिकों का परम दायित्व है। राम का चरित्र प्राणिमात्र के सम्मुख जीवनदृष्टि की सटीक प्रस्तुति है। राम का लौकिक जीवन हमारे सम्मुख जीवन जीने की कला और आदर्श प्रस्तुत करता है। राम-लीला लोकरंजक इसीलिये बन सकी। भारत भूमि में ही नहीं वरन् इस भूमण्डल के भिन्न-भिन्न भागों में इस लीला के माध्यम से आज भी राम और उनके द्वारा प्रस्तुत आदर्श जीवन्त है। उन देशों व लोगों में भी जो हिन्दू धर्म के अनुपालक नहीं हैं। समूचा दक्षिण-पूर्व एशिया इस्लाम को स्वीकार करने के बाद भी आज तक राममय है। रामलीला का मंचन कर उस आदर्श को निरन्तर जीवन्त करने का प्रयास कदाचित् उन जीवन-मूल्यों को जीवन में उतारने का प्रयास है। अतः राम धर्म, जाति, देश और काल से परे हैं। जन-जन के मन में रचे-बसे मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जीवन मानव मात्र का आदर्श है। उनके गुणों का अनुसरण कर जीवन की सार्थकता सिद्ध होती है। ऊँच-नीच, छोटे-बड़े, शत्रु-मित्र सबसे ऊपर उठ प्राणिमात्र को जीवन-मूल्यों का पाठ पढ़ा मनुष्य को मनुष्य बनाने का प्रयास राम के जीवन की सबसे बड़ी शिक्षा कही जा सकती है।
राम के जीवन काल में भी नर-वानर, राक्षस, गंधर्व जैसी जातियों- प्रजातियों की विवधिता देखने को मिलती है। राम ने सभी को अपनाया और यथोचित मान दिया।
सामाजिक समरसता तथा आदर्श मानवता का इससे बड़ा उदाहरण दुर्लभ है। गुण-आह्यता राम के जीवन की एक अन्य बड़ी विशेषता थी, चाहे वह उनके परमशत्रु अहंकारी रावण के चरित्र से ही क्यों न ली गई हो। सभी को साथ लेकर एक आदर्श समाज की रचना जिसमें सभी सुखी हों चाहे वह स्वयं उनके जीवन के लिये कितना भी कष्टकारी क्यों न हो राम के चरित्र को असाधारण ऊँचाई देता है। यही जनसामान्य को इस विशिष्ट आदर्श चरित्र की शिक्षा भी है। आज सदियों बाद भी भारत-भूमि में राम- राज्य की परिकल्पना को साकार करने का संकल्प पूर्ण हो सके यही राम के प्रति सच्ची श्रद्धा और भक्ति होगी। श्री राम के पदचिह्नों पर चलकर आज का विश्व यदि क्रोध, शत्रुता, अहंकार, दुराव, स्वार्थपरता जैसे भावों से ऊपर उठकर उस रामराज्य की परिकल्पना को साकार करने की दिशा में सार्थक कदम उठा सके तो कदाचित् राम के जीवन का स्मरण और स्तुति सार्थक हो। श्रीराम के जीवन पर आधारित इस प्रकार के विमर्श की परिणति वास्तव में भारत-भूमि को विश्व पटल पर एक आदर्श और गरिमामय स्थान दिला सके तो इसकी सार्थकता होगी।