देश में जब से नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं, सकारात्मक परिवर्तन की बयार बहती दिख रही है। इसके पीछे मजबूत नेतृत्व, विकास नीतियां एवं आदर्श मूल्यों की स्थापना का संकल्प है। राष्ट्र में राजनीतिक परिवेश ही नहीं बदला बल्कि जन-जन के बीच का माहौल, मकसद, मूल्य और मूड सभी कुछ परिस्थिति और परिवेश के परिप्रेक्ष्य में बदलता हुआ दिखाई दे रहा है। और यह बदलता दौर राष्ट्र को नए अर्थ दे रहा हैं। न केवल सामान्य-जन के जीवन-स्तर में गुणात्मक सुधार आया है, बल्कि भारत की प्रतिष्ठा भी विश्व में फिर से स्थापित हुई है, मुझे इसका सुखद अहसास विदेश यात्राओं में होता रहा है।
लम्बे समय से राष्ट्र पंजों के बल खड़ा नैतिकता की प्रतीक्षा कर रहा था। कब होगा वह सूर्योदय जिस दिन राष्ट्र भ्रष्टाचारमुक्त होगा, महिलाएं अकेली भी सुरक्षित महसूस करेंगी, खाने को शुद्ध सामग्री मिलगी, सामाजिक जीवन में विश्वास जगेगा, मूल्यों की राजनीति कहकर कीमत की राजनीति चलाने वाले राजनेता नकार दिये जायेंगे? भारतीय जीवन से नैतिकता इतनी जल्दी भाग रही थी कि उसे थामकर रोक पाना किसी एक व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं था। सामूहिक जागृति लाना जरूरी था। यह सबसे कठिन था पर यह सबसे आवश्यक भी था। वर्तमान नेतृत्व की दृढ़ इच्छाशक्ति ही है कि वह इन विषम राजनीतिक परिस्थितियों में भी अनेक कठिन फैसले ले सकी। बात चाहे जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 और 35 ए को समाप्त करने की हो या असंभव से दिखने वाले सर्जिकल एवं एयर स्ट्राइक जैसे फैसले लेने की हो या फिर भ्रष्ट राजनीतिज्ञों पर शिकंजा कसने की। ये फैसले एवं बदलते भारत की तस्वीर हमें आश्वस्त करते हैं, सुकून देते हैं।
बदलाव बलिदान मांगता है, उसके लिये सोच के कितने ही हाशिये छोडऩे होते हैं। कितनी लक्ष्मण रेखाएं बनानी होती हैं। सुधार एक अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है। बदलना प्रकृति का शाश्वत धर्म है। हम अवश्य बदलें मगर गिरगिट की भांति नहीं जो हर दूसरे क्षण अपना रंग बदलता है। बदलाव की जमीं रचनात्मक हो। निषेधात्मक बदलाव जीवन से जुड़ी हर शैली को बेबुनियादी बना देता है। विकास का जहां तक प्रश्न है चाहे व्यक्ति हो, समाज हो, देश हो या राष्ट्र, कदम उठाने से पहले कुछ ठोस इरादे, चिंतन, निर्णय और शुरूआत मांगता है अन्यथा बिना दिशा-निर्धारण मीलों चलकर भी हम सफर तय नहीं कर पायेंगे। वर्तमान नेतृत्व के ठोस फैसलों के पीछे वर्षों का गहन चिन्तन-मंथन है।
आज सबसे बड़ी सवालिया नजर राजनीति पर टिकी है। जनमत का फलसफा यही है और जनमत का आदेश भी यही है कि चुने हुए प्रतिनिधि मतदाताओं के मत के साथ उनकी भावनाओं को भी उतना ही अधिमान दें। आदर्श नेतृत्व वही है जो सत्ता की परवाह किये बिना देशहित को ध्यान में रखे। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक सही अर्थों में लोकतंत्र का स्वरूप नहीं बनता तथा असंतोष एवं असुरक्षा किसी न किसी स्तर पर व्याप्त रहती है। चुनाव जनतंत्र का प्राण माना गया है। हर बार चुनावों में जनता द्वारा चुने गये सभी सांसदों के सामने चुनौती भरा समय होता है कि देश की सत्ता को कौन स्थायित्व/सुरक्षा दे? कुर्सी की कामयाबी संख्या के गणित से जुड़ी है। बिना बहुमत प्राप्त किए बड़े बदलाव की आशा नहीं की जा सकती। इसी संख्या के नाम पर होने वाली सत्ता और सिद्धांत की लड़ाई में बहुत फर्क है। सिद्धांत मानवीय गुणों का आचरण मांगता है जिसकी बुनियाद है आस्था, विश्वास, त्याग, बलिदान, धैर्य, निष्ठा, नीतिमत्ता और निष्पृहता, क्योंकि यह सर्वोदय की साधना है जबकि सत्ता का व्यामोह स्वार्थ, सुख, आकांक्षा और प्रतिष्ठा की सीढिय़ां चढक़र ऊंचा उठता है। वर्तमान नेतृत्व की विशेषता है कि वह सबके अभ्युदय के संकल्प के साथ गतिशील है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था के बुनियादी मुद्दों पर मौलिक सिद्धांतों की सुरक्षा एवं राष्ट्रीय विकास के मसलों पर निर्णायक भूमिका बनाने का दौर शुरू हुआ है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। स्वस्थ लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना के लिये जरूरी है कि हम समय का सदुपयोग करें। एक-दूसरे की छींटाकशी में, छिद्रान्वेषण में, आरोप-प्रत्यारोप में समय को व्यर्थ न जाने दें। केकड़ावृत्ति की मानसिकता ने देश की जमीं को खोखली बना दिया है। आज राजनेता अपने स्वार्थों की चादर ताने खड़े हैं अपने आपको तेज धूप से बचाने के लिए, न कि जनता की तकलीफों को दूर करने के लिये। सबके सामने एक ही अहम सवाल आ खड़ा हुआ है कि जो हम नहीं कर सकते वो तुम कैसे करोगे? लगता है इसी स्वार्थी सोच ने, आग्रही पकड़ ने, व्यक्तिवादी मनोवृत्ति ने देश के नैतिक मूल्यों को बौना बना दिया। भारत पिछड़ेपन का खिताब पहनकर जब तब विश्व के सामने भ्रष्टाचार की सूची में नामंाकित होता रहा है, इससे बढक़र और क्या दुर्भाग्य होता? आज जब विश्व के हासिए में उभरती भारत की इस तस्वीर को कोई नया रंग दिया जा रहा है, तो यह देश के हर नागरिक के लिये गौरवान्वित होने की बात है। सरकार किसी की भी हो, हमें व्यक्ति नहीं, विचार और विश्वास चाहिए। चेहरा नहीं, चरित्र चाहिए। बदलते वायदे नहीं, सार्थक सबूत चाहिए। वक्तव्य कम और कर्तव्य ज्यादा पालन होंगे तो भारत निश्चित रूप से अपने संवैधानिक मूल्यों एवं भारत की विरासत का योगक्षेम कर सकेगा।
यह भी एक तथ्य है कि हमें सफलता भी तब तक नहीं मिलेगी, जब तक हम राजनीति एवं प्रशासन शैली में या तो विरोध करते रहेंगे या खामोशी/चुप्पी साधे रहेंगे। जरूरत है इन दोनों सीमाओं से हटकर देश के हित में जो गलत है उसे लक्ष्मणरेखा दें और जो सही है उसे उदारनीति और सद्भावना से स्वीकृति दें। आज के संदर्भ में निर्बल एवं कमजोर विपक्ष अभिशाप बन गया है। स्वस्थ एवं सुदृढ़ लोकतंत्र के लिये सशक्त विपक्ष भी जरूरी है। विपक्ष संख्याबल से भले कमजोर हो, लेकिन मनोबल तो सुदृढ़ बनाये।
प्रसन्नता की बात है कि तपती धूप में हवा का एक शीतल झोंका आया तो सही। देश में सकारात्मकता का एक वातावरण बना है और पूरे देश को इसका लाभ भी मिला है। सबको एक साथ लेकर चलने की नीति प्रधानमंत्री मोदी के इस कथन से स्पष्ट होती है कि देश में सिर्फ दो वर्ग हैं, एक गरीब का और दूसरा गरीबी हटाने वालों का। सचमुच! इसे संतुलित समाज संरचना की दिशा में आगे बढऩे का द्योतक समझा जा सकता है, नैतिक एवं राष्ट्रीय मूल्यों की सुरक्षा में उठा विवेकी कदम समझा जा सकता है। आज सभी चाहते हैं कि इस नाजुक एवं संवेदनशील दौर में वर्तमान नेतृत्व देश में संतुलन, सहिष्णुता, प्रामाणिकता, राष्ट्रीय चरित्र, विकास, सौहार्द एवं सद्भावना लाये। वह धर्म, जाति, सम्प्रदाय की भेद-सीमा से ऊपर उठकर सिर्फ इंसानियत को मूल्य दे। अहिंसक जीवनशैली को व्यापकता दे। सबको सहना सीखे। सबके बीच सबका होकर जीए। एक हाथ उठे तो संगठन बन जाए। एक कदम बढ़े तो कारवां चल पड़े। यही भारतीयता का संदेश है, यही जीवन मूल्यों का सम्मान है और यही हमारा दायित्व और कर्तव्य है।